प्रस्तुति :- राकेश बिहारी शर्मा,-जननायक कर्पूरी ठाकुर जी के मुख्यमंत्री रहते हुए ही बिहार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना था। जब बिहार में आरक्षण की बात करते थे, तो लोग उन्हें मां-बहन-बेटी की गाली देते थे। लेकिन अब वर्तमान समय में कर्पूरी जी को सभी जाति धर्म के लोग श्रध्दा से याद करते हैं।
कर्पूरी ठाकुर ने हाशिये पर रह रहे समुदायों को राजनीति का ज्ञान और ताकत दी थी। सैदेव समाजवादी रहे कर्पूरी ठाकुर, निजी और सार्वजनिक जीवन, दोनों में आचरण के ऊंचे मानदंड स्थापित करते थे शायद इसीलिए बाद में वे ‘जननायक’ कहलाये। वे लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान जी के राजनीतिक गुरू थे, जिनसे लालू प्रसाद यादव और नीतीशजी ने जन संवाद की चतुराई को सीखा था। जननेता जननायक कर्पूरी ठाकुर का राजनीतिक सफर – आरक्षण के बावजूद वे मानते थे कि सामाजिक गैर बराबरी जल्दी खत्म होने वाली नही हैं। कर्पूरी ठाकुर जी कहा करते थे कि ‘आर्थिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ जाना, सरकारी नौकरी मिल जाना, इससे क्या समाज में निम्न वर्गों को सम्मान मिल जाता है? जो वंचित वर्ग के लोग हैं, उसको इसी से सम्मान प्राप्त हो जाता है क्या? नहीं होता है।’ कर्पूरी जी अपना उदाहरण देते हुए कहते हैं कि जब मैं मैट्रिक में फर्स्ट डिविज़न से पास हुआ था उस समय भी मैं नाई का काम करता था। एक दिन बाबूजी गांव के समृद्ध वर्ग के एक व्यक्ति के पास लेकर गए और कहा, ‘सरकार, ये मेरा बेटा है, फर्स्ट डिविजन से पास किया है.’ उस आदमी ने अपनी टांगें टेबल के ऊपर रखते हुए कहा, ‘अच्छा, फर्स्ट डिविज़न से पास किए हो? मेरा पैर दबाओ।’ इस तरह की तमाम समाजिक व्यवस्थाओं की जटिलता समेत तमाम तरह की चुनौतियों से पार पाते हुए कर्पूरी ठाकुर जी आगे बढ़े। 1967 में जब पहली बार नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो महामाया प्रसाद के मंत्रिमंडल में वे शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने थे। उन्होंने मैट्रिक में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता समाप्त कर दी और यह बाधा दूर होते ही क़स्बाई-देहाती लड़के और लडकीयाँ भी उच्च शिक्षा की ओर अग्रसर हुए, नहीं तो पहले वे मैट्रिक में ही अटक जाते थे।
बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में जननेता कर्पूरी ठाकुर- वर्ष 1970 में 163 दिनों के लिए कर्पूरी ठाकुर जी ने पहली सरकार बनाई थी, मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने कई ऐतिहासिक फ़ैसले लिए जिसमे आठवीं तक की मुफ्त शिक्षा, उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा बनाना, पांच एकड़ तक की ज़मीन पर मालगुज़ारी खत्म करना इत्यादि।
जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने, उसी दिन उनके गांव पितौंझिया (अब कर्पूरी ग्राम) के एक सामंत ने उनके पिता को छड़ी से पीट दिया। दरअसल पुत्र के मुख्यमंत्री बनने की खुशी में बड़ी संख्या में आसपास के लोग उनके पैतृक घर आ गए थे। मेहमानों की आगवानी में लगे कर्पूरी जी के पिता श्री गोकुल ठाकुर जी को स्थानीय सामंत के यहां जाने में देरी हो गई। वे तब उनके यहां दाढ़ी-बाल बनाते थे। देरी से क्षुब्ध स्थानीय सामंत ने श्री गोकुल ठाकुर को छड़ियों से पीटा। इस घटना की जानकारी मिलने पर कर्पूरी गांव आए। उनके आने की सूचना मिलते ही पुलिस ने सामंत की कोठी को घेर लिया था, सभी को लग रहा था कि स्थानीय सामंत को गिरफ्तार कर लिया जाएगा। खूब भीड़ जुट चुकी थी, मुख्यमंत्री के रूप में कर्पूरी आए तो उन्होंने स्थानीय सामंत से कहा कि मेरे पिताजी वृद्ध हो गए हैं। आप कहें तो मैं आपकी हजामत बना दूं। इस घटना से उनकी सरलता का विशेष रूप से पता चलता हैं। वर्ष 1977 में वे दोबारा मुख्यमंत्री बने तो एस-एसटी के अलावा मुंगेरीलाल कमीशन की अनुशंसाओं को लागू करते हुए बिहार को देश के पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण लागू करने वाला पहला राज्य बना दिया। 11 नवंबर 1978 को उन्होंने महिलाओं के लिए तीन (इसमें सभी जातियों की महिलाएं शामिल थीं), ग़रीब सवर्णों के लिए तीन और पिछडों के लिए 20 फीसदी यानी कुल 26 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी। आरक्षण नीति की वजह से उन्हें व्यक्तिगत रूप से भद्दी गालियां और जातिवादी टिप्पणीयां तक सहनी पड़ी। उनके नाई जाति से होने की वजह से बिहार का अभिजात्य वर्ग उन पर तंज कसते हुए कहता- “कर कर्पूरी कर पूरा, छोड़ गद्दी, धर उस्तरा”। वे धुन के पक्के थे, आरक्षण के तुरंत बाद सन 1978 में ही उनकी सरकार ने सिंचाई विभाग में 17000 पदों के लिए आवेदन मंगाए, इस पर कुछ कर पाते उसके हफ्ते भर में उनकी सरकार गिरा दी गयी। इन दोनों बातों का आपस में संबंध था, पहले होता यह था कि बैक डोर से अस्थायी बहाली कर दी जाती थी, बाद में उसी को नियमित कर दिया जाता था। माना जाता है कि एक साथ इतने लोग खुली भर्ती के ज़रिये नौकरी पा जाए, यह सरकारी व्यवस्था पर कुंडली मारकर बैठे एक वर्ग को मंजूर नहीं था सो कर्पूरी ठाकुर को जाना पड़ा। इस आरक्षण के लिए ऊंचे तबकों ने भले ही उनको कोसा हो, लेकिन वंचितों ने उन्हें सर माथे बिठाया। इस जन समर्थन की बदौलत 1984 के एक अपवाद को छोड़ दें तो वे कभी चुनाव नहीं हारे।
सांसद के रूप में जननायक कर्पूरी ठाकुर –दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बनने के बाद वर्ष 1977 में कर्पूरी ठाकुर जी लोकसभा चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे। संसद में अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि संसद के विशेषाधिकार कायम रहें लेकिन यदि जनता के अधिकार कुचले जाएंगे, तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी। कर्पूरी ठाकुर जी का संसदीय जीवन सत्ता से ओत-प्रोत कम ही रहा। उन्होंने अधिकांश समय तक विपक्ष की राजनीति की, इसके बावजूद उनकी जड़ें जनता-जनार्दन के बीच गहरी थीं। उन दिनों संचार के इतने सशक्त माध्यम नहीं थे फिर भी कोई घटना होने पर वह सबसे पहले उनके बीच पहुंचते थे।
सादगी की मिसाल समाजवादी नेता जननायक कर्पूरी ठाकुर –
जननायक कर्पूरी ठाकुर जी कितनी सादगी से अपना जीवन व्यतीत करते थे, इसका एक उदाहरण है- एक बार कर्पूरी जी अपने सहयोगी के साथ एक कार्यवश दिल्ली गए। दिन भर कई मीटिंग के बाद वे और उनके सहयोगी थक गए। बिहार निवास पहुंचने के बाद सहयोगी को लगा कि अब जननायक जी आराम करेंगे। रात भी अधिक हो चुकी थी। सहयोगी जी जननायक के बिछावन पर लेट गए। लेटते ही सहयोगी को नींद आ गयी। सुबह उठने पर देखा कि जननायक स्वयं फर्श पर सो रहे हैं। ये कर्पूरी जी का सादगीपूर्ण वयवहार था। एक बार की वाक्या है जब वर्ष 1952 में कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने थे, उन्हीं दिनों उनका आस्ट्रेलिया जाने वाले एक प्रतिनिधिमंडल में चयन हुआ था। उनके पास कोट नहीं था, तो एक दोस्त से कोट मांगा जो थोड़ा सा फटा हुआ था। वे वही कोट पहनकर चले गए, वहां यूगोस्लाविया के मुखिया मार्शल टीटो ने देखा कि कर्पूरी जी का कोट फटा हुआ है, तो टीटों ने नया कोट गिफ़्ट कर दिया था। वर्ष 1974 में कर्पूरी ठाकुर के छोटे बेटे का मेडिकल की पढ़ाई के लिए चयन हुआ, पर वे बीमार पड़ गए। वे दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती किये गए, उनकी हार्ट की सर्जरी होनी थी। इंदिरा गांधी को जैसे ही पता चला, एक राज्यसभा सांसद को वहां भेजा और उन्हें एम्स में भर्ती कराया और ख़ुद भी दो बार मिलने गईं। उन्होंने बेटे को सरकारी खर्च पर इलाज के लिए अमेरिका भेजने की पेशकश जिस पर कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि वे मर जाएंगे पर बेटे का इलाज़ सरकारी खर्च पर नहीं कराएंगे। बाद में जेपी ने कुछ व्यवस्था कर न्यूज़ीलैंड भेजकर उनके बेटे का इलाज़ कराया। अपनी पुत्री की शादी के पांच दिन पहले वह पितौंझिया आए। सरकारी गाड़ी उन्होंने गांव की बाहरी सीमा पर ही छोड़ दिया। अफसरों को भी खास निर्देश दे दिया कि जब तक शादी खत्म नहीं हो जाती है, तब तक कोई सरकारी अधिकारी गांव में नजर नहीं आएंगे। उन्होंने बिहार सरकार के सरकारी हेलीकॉप्टर के उपयोग पर भी पाबंदी लगा दी थी। उन्हें अहसास था कि उनके मंत्रीमंडल के सहयोगी शादी में आ सकते हैं। यह सोचकर उन्होंने किसी को भी आमंत्रित नहीं किया था। एक अन्य मौके पर जब प्रधानमंत्री चरण सिंह उनके घर मिलने आये तो उनके घर का दरवाज़ा इतना छोटा था कि चौधरी जी को सिर में चोट लग गई। पश्चिमी उत्तर प्रदेश वाली खांटी शैली में चरण सिंह ने कहा, ‘कर्पूरी, इसको ज़रा ऊंचा करवाओ.’ जवाब आया, ‘जब तक बिहार के ग़रीबों का घर नहीं बन जाता, मेरा घर बन जाने से क्या होगा?’ इन सब बातों की वजह से पक्ष, विपक्ष से जुड़े सभी लोग उनकी राजनीतिक शुचिता और दूरदर्शिता के कायल थे।
जननायक कर्पूरी ठाकुर के विरासत और प्रासंगिकता-सामाजिक न्याय के हिमायती जननायक कर्पूरी ठाकुर ने उस वक्त सर्वसमाज को आरक्षण देने का गजट निकाला था, जब इसे लागू करने की कल्पना कठिन थी। गरीब परिवार में जन्में विचारों के धनी कर्पूरी ठाकुर जी ने जिस राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय चार दशक पहले दिया था वही अब माननीय मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार जी पिछडा, अति पिछड़ा, अनुसूचित जाति,अनुसूचित जनजाति को और महिलाओं को नौकरियों व पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण देकर, जननायक कर्पूरी के सपनों को साकार कर रहे हैं।
कर्पूरी ठाकुर देशी माटी में जन्मे देसी मिजाज के राजनेता जो नाई जाति में पैदा होकर भी कभी एक जाति, समुदाय के नेता नहीं रहे, वे सैदेव सर्वजन के नेता बने रहे। 17 फरवरी 1988 को मधुमेह और उच्च रक्तचाप के बीमारी के कारण अचानक तबीयत बिगड़ने से उनका देहांत हो गया।