Monday, December 23, 2024
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बिहार के इन सात छात्रों ने लहू से लिखा था आजादी का इतिहास

कुमुद रंजन सिंह – भारत के आज़ादी में बिहार के बुजुर्ग शेर बाबू वीर कुंवर से लेकर छात्रों तक का इतिहास रहा है,जो
भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बिहार में भी आंदोलनकारियों ने अपने खून से जगह-जगह शहादत का इतिहास लिख डाला था। ऐसी ही एक घटना पटना के सचिवालय पर हुई थी। अगस्‍त क्रांति के दौरान फिरंगी हुकूमत के प्रतीक सचिवालय पर तिरंगा फहराने के क्रम में पटना के सात छात्र 11 अगस्‍त 1942 को गोलियों के शिकार हो गए। लेकिन, उन्‍होंने तिरंगा फहराकर ही दम लिया था।

गांधी ने दिया क‍रो या मरो का नारा – यह द्वितीय विश्वयुद्ध का दौर था। भारत में आजादी की तड़प भी तेज होती जा रही थी। उसी दौर में 1942 में महात्‍मा गांधी ने आर-पार की लड़ाई के लिए ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का प्रस्ताव रखा। इसे कांग्रेस ने अाठ अगस्‍त 1942 को स्वीकार कर लिया। लेकिन, अगले 24 घंटे के अंदर देश के तमाम बड़े नेता या तो गिरफ्तार कर लिए गए या भूमिगत हो गए। लेकिन, तब तक गांधीजी ने आजादी की ललक हर व्यक्ति में जगा दी थी। रगों में लहू की जगह बापू का दिया नारा ‘करो या मरो’ बहने लगा था। रामवृक्ष बेनीपुरी ने लिखा है कि तब हर व्यक्ति नेता हो गया था। नौ अगस्त को आंदोलन शुरू हो गया।बिहार के इन सात छात्रों ने लहू से लिखा था आजादी का इतिहास

नौ अगस्‍त को फूटी आंदोलन की चिंगारी – पटना तो स्वाधीनता आंदोलन का महत्वपूर्ण गढ़ रहा था। नौ अगस्त को पूरे देश के साथ आंदोलन की चिंगारी पटना में भी भड़क उठी। घर-घर आजादी के गीत गाए जाने लगे। कॉलेजों में छात्र-शिक्षक सभी आजादी का पाठ करने लगे। हवाओं में अंग्रेजो भारत छोड़ो के जोशीले शब्द गूंजने लगे। राजधानी का कण-कण पुकार उठा – आजादी।
हर व्यक्ति बन गया नेता – नौ अगस्त को सभी अपने-अपने हिसाब से आंदोलन कर रहे थे। बिहार के राजेंद्र प्रसाद, मथुरा बाबू, अनुग्रह नारायण, श्रीकृष्ण सिंह आदि तमाम बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे। अन्य नेताओं की गिरफ्तारी के लिए भी लगातार छापेमारी हो रही थी। कोई ऐसा बड़ा चेहरा नहीं था, नहीं जो नेतृत्व कर सके। अगले दिन यानी 10 अगस्त को आंदोलन के साथ पटना ने एकजुट होना शुरू कर दिया। लोग अंग्रेजों की धमकी और दमन से बेखौफ सड़कों पर उतर रहे थे। ब्रिटिश सत्ता को सीधी चुनौती दे रहे थे। स्कूल-कॉलेजों से लेकर हर प्रतिष्ठान में आंदोलन की ज्वाला धधकती जा रही थी। उत्तेजना कुछ ऐसी थी कि 10 की रात लोग मुश्किल से सो सके।
ठान लिया: आजादी से कम मंजूर नहीं ।
11 अगस्त की सुबह हुई। लोग घरों से निकलने लगे। अशोक राजपथ जनसमूह से भरा हुआ था। आंदोलनकारियों का जत्था बांकीपुर पहुंचा, जहां आज बांकीपुर बस स्टैंड है। सभा हुई। आजादी से कम किसी को कुछ मंजूर नहीं था। ठान लिया कि आज यूनियन जैक का झंडा नहीं, अपना तिरंगा फहरेगा। आजादी आज चाहिए। भीड़ चल पड़ी शासन के केंद्र यानी सचिवालय की तरफ। सचिवालय पर बड़ी संख्या में बिटिश हुकूमत ने सुरक्षा बल तैनात कर रखा था। परंतु, जब मिटने का जज्बा हो तो फिर रोक कौन सकता था? बिहार के इन सात छात्रों ने लहू से लिखा था आजादी का इतिहास
जान पर खेल लहरा दिया तिरंगा – आंदोलनकारियों पर सुरक्षा बलों ने लाठी चार्ज कर दिया। परंतु कदम डगमगाए नहीं, हर लाठी पडऩे के साथ जोश बढ़ता गया। लोग सचिवालय तक पहुंच गए। तिरंगा लेकर बढऩे लगे। इसके बाद जो हुआ वह आजादी के इतिहास का सबसे चमकदार सुनहरा पन्ना है। दिन के करीब 11 बज रहे थे। बौखलाए हुए जिलाधिकारी डब्ल्यू जी ऑर्थर ने गोली चलाने का आदेश दे दिया। मिलर हाई स्कूल के नौवीं के छात्र देवीपद चौधरी तिरंगा लिए आगे बढ़ रहे थे। धोती पहने हुए मात्र 14 साल का किशोर। देवीपद सिलहट के जमालपुर गांव के रहने वाले थे, जो अब बंग्लादेश में है। अचानक सीने में गोली लगी और वे गिर गए। तिरंगा गिरता, इससे पहले ही पुनपुन हाई स्कूल के छात्र रायगोविंद सिंह ने थाम लिया। रायगोविंद पटना के ही दसरथा गांव के थे। कदम जैसे बढ़ाया कि उन्हें भी गोली मार दी। अब तिरंगा राममोहन राय सेमिनरी के छात्र रामानंद सिंह के हाथों में था। रामानंद पटना के ही शहादत नगर गांव के थे। अंग्रेजों को चुनौती देते तिरंगा थामे वे बढ़ चले कि अगली गोली से वे भी वीरगति को प्राप्त हो गए। तब तक तिरंगा को पटना हाई स्कूल गर्दनीबाग के राजेंद्र सिंह लेकर आगे बढऩे लगे। राजेंद्र सारण के बनवारी चक गांव के रहने वाले थे। उनकी शादी हो चुकी थी। गोलियां लगातार चल रही थीं। उन्हें भी गोली लगी और भारत माता की जय कहते हुए सदा के लिए भारत माता की गोद में सो गए। साम्राज्यवाद की क्रूरता को आजादी का दीवानापन चुनौती देता आगे बढ़ रहा था। राजेंद्र को गिरने तक तिरंगा बीएन कॉलेज के छात्र जगपति कुमार थामकर आगे बढऩे लगे। जगपति औरंगाबाद के खरांटी गांव के रहने वाले थे। लक्ष्य बस कुछ ही कदमों पर था। जगपति तेजी से आगे बढ़े। उन्हें एक साथ तीन गोलियां लगीं। एक गोली हाथ में, दूसरी छाती में और तीसरी जांघ में। जगपति के शहीद होते ही पटना कॉलेजिएट के छात्र सतीश प्रसाद झा ने तिरंगा थाम लिया। सतीश भागलपुर के खडहरा के रहने वाले थे। उन्हें भी गोली मार दी गई। तिरंगा अब राममोहन राय सेमिनरी के 15 साल के छात्र उमाकांत सिंह के हाथों में था। लक्ष्य सामने था। गोली चली, उमाकांत गिर पड़े, लेकिन तिरंगा तब तक सचिवालय पर लहराने लगा था।

पटना के सात शहीद :- भारत छोड़ो आंदोलन के नायक

ये सभी छात्र थे और 1942 में अगस्त क्रांति के दौरान 11 अगस्त को दो बजे दिन में पटना के सचिवालय पर झंडा फहराने निकले थे। पटना के उस समय के जिलाधिकारी डब्ल्यू जी आर्थर के आदेश पर पुलिस ने गोलियां चलाई थीं। इसमें लगभग 13 से 14 राउंड गोलियों की बौछार हुई थी। ये सात सपूत थे उमाकांत प्रसाद सिंह, रामानंद सिंह, सतीश प्रसाद झा, जगपति कुमार, देवीपद चौधरी, राजेन्द्र सिंह और राम गोविंद सिंह। इस अभियान का नेतृत्व कर रहे थे देवीपद चौधरी। देवी पद चौधरी की उम्र 14 साल की थी। वे सिलहट (वर्तमान में बांग्लादेश) के जमालपुर गांव के रहने वाले थे। वे जब सचिवालय की ओर अपने छह साथियों के साथ बढ़ रहे थे तो पुलिस ने उन्हें रोकना चाहा पर वे रुकने वाले कहां थे। देवीपद तिरंगा थामे आगे बढ़ रहे थे कि पुलस ने उन्हें गोली मार दी। देवीपद को गिरते देख पटना जिले के दशरथा गांव के रामगोविंद सिंह आगे बढ़े और हाथ में तिरंगा ले लिया। देवकी सिंह के पुत्र रामगोविंद सिंह उस समय पुनपुन के हाईस्कूल में दसवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। रामगोविंद सिंह आगे बढ़े पुलिस ने उन्हें भी गोली मारी दी। तिरंगा रामानंद सिन्हा ने थामा और उसे गिरने नहीं दिया। पटना जिले के रहने वाले रामानंद सिंह 10वीं कक्षा के छात्र थे। उनकी शादी हो चुकी थी। रामानंद को गिरता देख सारण जिले के दिघवारा के निवासी राजेन्द्र सिंह ने तिरंगा थामा। राजेन्द्र सिंह आगे बढ़े। गर्दनीबाग उच्च विद्यालय में पढ़ाई कर रहे थे। उनका भी विवाह हो चुका था। राजेन्द्र सिंह के पिता का शिवनारायण सिंह थे। राजेन्द्र सिंह से तिरंगे को गिरता देख जगपति कुमार ने संभाला। जगपति कुमार औरंगाबाद जिले के रहने वाले थे। जगपति कुमार को एक गोली हाथ में लगी दूसरी गोली छाती मे धंसी और तीसरी गोली जांघ में लगी फिर भी तिरंगा नहीं झुका। अब आगे आये भागलपुर जिले (बांका) के बरापुरा ग्राम के श्री मथुरा प्रसाद का सुपुत्र सतीश झा। वे पटना कालेज में पढ़ते थे। तिरंगा फहराने की कोशिश में इन्हें भी गोली मार दी गई। सतीश भी शहीद हो गए पर झण्डा नहीं गिरने दिया। उसे आगे बढ़कर उठा लिया उमाकान्त सिंह ने जो मात्र 15 वर्ष के थे। वे पटना के बी.एन.काॅलेज के द्वितीय वर्ष के छात्र थे। पुलिस दल ने उन्हें भी गोली का निशाना बनाया, पर उन्होंने गोली लगने पर भी आखिरकार सचिवालय के गुम्बद पर तिरंगा फहरा ही दिया। इसके बाद वे शहीद हो गए। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस स्थान पर शहीद स्मारक का निर्माण हुआ। इसका शिलान्यास स्वतन्त्रता दिवस को बिहार के प्रथम राज्यपाल जयराम दौलत राय के हाथों हुआ। औपचारिक अनावरण देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 1956 में किया।

शहीद सात महान बिहारी सपूत-
1. उमाकान्त प्रसाद सिंह- राम मोहन राय सेमीनरी स्कूल के 12 वीं कक्षा के छात्र थे। इनके पिता राजकुमार सिंह थे। वह सारण जिले के नरेन्द्रपुर ग्राम के निवासी थे।
2 रामानन्द सिंह- ये राम मोहन राय सेमीनरी स्कूल पटना के 11 वीं कक्षा के छात्र थे। इनका जन्म पटना जिले के ग्राम शहादत नगर में हुआ था। इनके पिता लक्ष्मण सिंह थे ।
3. सतीश प्रसाद झा-सतीश प्रसाद का जन्म भागलपुर जिले के खडहरा में हुआ था। इनके पिता जगदीश प्रसाद झा थे। वह पटना कालेजियत स्कूल के 11वीं कक्षा के छात्र थे।
4. जगपति कुमार- इस महान सपूत का जन्म गया जिले (वर्तमान में औरंगाबाद) के खराठी गांव में हुआ था।
5. देवीपद चौधरी- इस महान सपूत का जन्म सिलहर जिले के अन्तर्गत जमालपुर गांव में हुआ था। वे मीलर हाईस्कूल के 9वीं कक्षा के छात्र थे।
6. राजेन्द्र सिंह- इस महान सपूत का जन्म सारण जिले के बनवारी चक ग्राम में हुआ था। वह पटना हाईस्कूल के 11वीं के छात्र थे।
7. राय गोविन्द सिंह- इस महान सपूत का जन्म पटना जिले के दशरथ ग्राम में हुआ। वह पुनपुन हाईस्कूल में 11वीं के छात्र थे।

आजादी के दीवानों के सम्‍मान में बनी प्रतिमा

पटना के छात्रों ने अपने खून से जो इबारत लिखी, वह युगों तक युवाओं को प्रेरित करता रहेगा। स्वतंत्रता के बाद आजादी के इन सात दीवानों की याद में प्रतिमा बनाना तय किया गया। प्रतिमा स्थापित करने के लिए वही जगह चुनी गई, जहां वे शहीद हुए थे। बिहार के प्रथम राज्यपाल जयरामदास दौलतराम ने शिलान्यास किया।
प्रसिद्ध मूर्तिकार देवी प्रसाद राय चौधरी को मूर्ति बनाने का काम सौंपा गया। चौधरी का जन्म रंगपुर में, जो अब बांग्लादेश में है, हुआ था। उन्होंने इटली में सात शहीद मूर्ति तैयार की, जिसे लाकर यहां स्थापित किया गया। प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने 1956 में मूर्ति का अनावरण किया। मूर्तिकार देवी प्रसाद को 1958 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

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