राकेश बिहारी शर्मा -राजो सिंह का जन्म और पारिवारिक संघर्षों का जीवन बहुजन हिताय बहुजन सुखाय महापुरुष जन्म लेते हैं। उनका आविर्भाव समाज के हितार्थ होता है। वह समाज की रूढ़िवादी परम्परा का अनुसरण नहीं करते। अपितु समाज को बदल डालते हैं। राजो सिंह टेंगर सिंह के प्रपौत्र, लोकनाथ सिंह के पौत्र एवं पिता देवकी सिंह एवं माता रामपरी देवी के पुत्र के रूप में 25 मार्च, 1926 ई० को शेखपुरा थाने के हथियावां ग्राम में जन्म लिए थे। इनके अत्युत्कृष्ट नेतृत्व, समर्पित, उदार, परोपकारी कार्यक्रम एवं तदनुरूप अथक प्रयासों के फलस्वरूप इलाके की अभूतपूर्व उन्नति हुई।
राजो सिंह का विवाह बचपन में ही हो गया था। उस समय ये सातवीं कक्षा के विद्यार्थी थे। इनकी शादी मुंगेर जिला के फरदा ग्राम में एक सुसम्पन्न परिवार में देवकी कुंवर की पुत्री शारदा देवी के साथ हुआ था। शारदा देवी के भाइयों के नाम बालगोविन्द कुंवर, साधु कुंबर और राजेन्द्र कुंवर हैं।
राजो सिंह के साले द्वारा शिक्षक प्रशिक्षण में दाखिला
वर्ष 1939-40 ई० में राजो सिंह का नामांकन मध्य विद्यालय, मेहुस में हुआ था। आर्थिक तंगी के कारण उच्च विद्यालय में इनका नामांकन नहीं हो सका। पढ़ाई छूटने के बाद जब ये हाथ में लाठी लेकर भैंस चराने लगे तो इनके ससुराल वालों को अच्छा नहीं लगा। इनके बड़े साले बालगोविन्द कुंवर के द्वारा संवाद आया कि ये मुंगेर कोर्ट में मुंशी का काम करें। यह इनको पसन्द नहीं आया। इनकी रुचि पढ़ने की ओर थी। बाद में ये शिक्षक प्रशिक्षण में उनलोगों के प्रयास से जाने को तैयार हुए। आवेदन पड़ गया। इन्टरव्यू में जाने की बुलाहट हो गई। इनके मंझले साले साधु कुंवर इन्हें लेने आए थे। घर में रेल के भाड़े के लिये भी पैसे नहीं थे। मुंगेर तक जाने में तेरह आना भाड़ा लगता था। इनकी पत्नी ने अपने पास का दो रुपया साधु कुंवर को दिया कि दो टिकट में एक रुपया दस आना लगेगा और छः आने की चूड़ी लाने कहा था इस तरह ये शिक्षक प्रशिक्षण के इन्टरव्यू में सम्मिलित हुए। शिक्षक प्रशिक्षण में इनका दाखिला के लिए चयनित किये गये। अब नामांकन के लिये चिट्ठी आ गई 41-42 का जमाना था।
राजो सिंह का शिक्षक में नियुक्ति और पारिवारिक संकट
भारत में उस समय अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का नारा बुलन्द था। यह अफवाह फैल गई थी कि अंग्रेज लोग मुंगेर शहर पर बम वर्षा करेंगे। अतः मुंगेर में नामांकन कराने से डर गए। फिर जमुई में इनका नामांकन हुआ। शिक्षक प्रशिक्षण की अवधि पूरी हो गई। इनकी पहली नियुक्ति प्राथमिक विद्यालय, एकाढ़ा में 1944 ई. में हुई थी। शिक्षक बनने के बाद इन्होंने अपनी योग्यता बढ़ाने का काम किया और हिन्दी में विशारद की परीक्षा पास की। फिर साहित्य रत्न की भी परीक्षा पास की और हिन्दी साहित्य का ज्ञानार्जन किया। शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए इनकी रुचि गांव के विकास कार्यों की ओर होने लगी। अब गांव के लोग भी राजो की मान्यता देने लगे थे। शिक्षक बनने के बाद इनके परिवार में आर्थिक सुधार आने लगा। अभी लगभग चार महींने ही नौकरी किये थे कि सावन मास में इनके पिता देवकी सिंह की अचानक मृत्यु हो गई। जो धीर नर होता है विपत्तियों से घबराता नहीं है। पिता का श्राद्ध कार्य सम्पन्न किया। समय पर अपनी दो बहनों की शादी भी इन्होंने ही की। कम उम्र में ही इनपर पारिवारिक बोझ लद गया। संकटों से लड़कर अपने घरेलू कार्यों को सम्पन्न करते ये राजनीति में पैर रखने लगे। इनके मंझले भाई श्याम सिंह जो खेती में काफी रुचि रखते थे, इनकी मदद से छोटे-छोटे खेत के टुकड़े को अदल-बदल कर बड़े प्लाट में परिणत किया और कहीं-कहीं बाहर से मिट्टी लाकर खेत को समतल भी किया। इस तरह अब ये फिर सम्पन्नता की ओर अग्रसर होने लगे। परन्तु यह भी विधाता को मंजूर नहीं था।
राजो बाबू का राजनीति में प्रवेश और पंचायत के मुखिया
राजो बाबू के भाई श्याम सिंह ट्रेन में दुर्घटनाग्रस्त हो गए और उनकी मृत्यु हो गई। उस समय जब पंचायत की स्थापना की चर्चा हुई, ग्रामीणों ने निर्णय लिया कि अभी की हालत में राजो बाबू ही इस काम के लिये उपयुक्त व्यक्ति होंगे। फलस्वरूप इन्हें ही मुखिया बनाया जाय। बिना सरकारी आदेश के शिक्षक रहते हुए मुखिया बनना गैर कानूनी था। पंचायत के सभी मुख्य लोगों ने आवेदन देकर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह से निवेदन किया और इन्हें उम्मीदवार होने की स्वीकृति मिल गई। यद्यपि ये सातो गांव के स्वीकार्य मुखिया के उम्मीदवार थे, फिर भी कम्युनिस्टों को इनकी बढ़ती अच्छी नहीं लगी और सर्वमत मुखिया होने में उन्होंने बाधा डाल दी। राजो बाबू 1954 में हथियावां पंचायत के मुखिया बन गये थे। ये काफी मतों से जीतकर शिक्षक रहते हुए मुखिया बन गये। सभी काम सुचारू रूप से चल ही रहा था। कुछ दिन नौकरी करने के बाद ये पूर्ण रूप से राजनीति में आ गये और नौकरी से इस्तीफा दे दिये। राजो बाबू श्रीबाबू के महाप्रयाण के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र शिवशंकर सिंह के एम. एल. ए. के चुनाव 1962 ई० में तथा 1967-1969 ई० में सक्रिय सहयोग दिया था।
राजो बाबू बरबीघा विधान सभा क्षेत्र से विधायक के रूप में निर्वाचित
राजो बाबू 1972 ई० में बरबीघा विधान सभा क्षेत्र से एम. एल. ए. निर्वाचित हुए एवं पुनः 1977 ई० से शेखपुरा विधान सभा क्षेत्र से लगातार एम. पी. चुने गये। मार्च 1972 ई० में बिहार विधान सभा की सदस्यता प्राप्ति के उपरान्त भारत सरकार के रेलमन्त्री, श्री ललित नारायण मिश्र के सान्निध्य में बिहार प्रदेश की राजनीति में सक्रिय प्रवेश हुआ। राजो बाबू भारतीय चुनावोँ में कभी हार का मुँह नहीं देखा था। ये सन 1972 से लगातार छह बार शेखपुरा ,बरबीघा विधानसभा क्षेत्र के विधायक पद को सुशोभित किया। विधायक पद छोड़ने के बाद वे लगातार दो बार कांग्रेस के टिकट पर बेगुसराय लोक सभा सीट से सांसद बनने का गौरव हासिल किया। विलक्षण प्रतिभा के धनी कर्मयोगी बाबू राजो सिंह वींसवी सदी के महान समाजवादी थे। उनकी जीवन पीड़ित, शोषित, दुखी जनता को समर्पित था और उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे।
राजो बाबू के भाई स्वराज सिंह घर का पूरा बोझ संभाल चुके थे और राजो बाबू को राजनीति के लिए स्वतंत्र कर दिया था। पर होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है। अचानक बिजली के करेंट लगने से स्वराज भी काल-कलवित हो गये। हिम्मत के साथ ये पारिवारिक बोझ अपने कंधे पर लेकर सुचारू रूपेण सभी कार्य करते रहे। शिक्षा की ओर इनकी रुचि प्रारम्भ से ही थी। अपने तो लाचारीवश महाविद्यालय का मुंह नहीं देखे, परन्तु बेटे और भतीजे को उच्च शिक्षा दिलाने में सफल हुए। इतना ही नहीं, परिवार में मुखिया के रूप में इन्होंने सफल भूमिका निभाई। बेटा-बेटी, भतीजा-भतीजी तथा परिवार के अन्य सभी सदस्यों के साथ इनका आचरण मर्यादा पुरुषोत्तम की तरह रहा था।
राजो बाबू अपने क्षेत्र के लोकप्रिय पथ-प्रदर्शक विधायक
एकबार जब ये शिक्षक थे, तो इलाके में मारा (सुखाड़) पड़ गया। धान की फसल सूखने लगी, इन्होंने हथियावां, कामता और मन्दना गांव के लोगों को संगठित किया और टाटी नदी में जहां आज छिलका बना हुआ है, कच्चा बांध बन्धवाया और दो दिनों के अन्दर ही खेतों में पानी जाने लगा। खेत पटने से धान की फसल हरी हो गई और उपज भी हुई। उसी समय से इन्होंने टाटी नदी में पक्का बांध उसी जगह बंधवाने का निश्चय किया और इसमें इन्हें सफलता मिली।
हथियावां और कामता के लोगों ने विरोध किया क्योंकि नहर बनने में उनकी कीमती जमीन जा रही थी। वही नहर आज हथियावां एवं अगल-बगल के ग्रामीणों के लिये वरदान साबित हुआ। इस नहर के बनवाने में राजो बाबू ने इंजीनियरों को भी मात कर दिया। सभी तकनीक लोग सीधे नहर ले जाना चाहते थे और ये लाभ के दृष्टिकोण से नहर को घुमाकर ले जाना चाहते थे। इन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीबाबू को नहर से लाभ को बतलाया और श्रीबाबू ने भी राजो बाबू का समर्थन कर इंजीनियरों को किसानों के फायदे को देखकर घुमाकर नहर ले जाने का नक्शा बनाने का आदेश दे दिया और इस तरह कार्य सम्पन्न हुआ। अनवरत परिश्रम करके इन्होंने अपने घर परिवार को सुदृढ़ किया। बड़ा पद पाने से कोई बड़ा नहीं होता है। बड़ा वही होता है, जिसका हृदय बड़ा है। काम करने की सूझ-बूझ भी इनकी निराली थी।
घर संभालते-संभालते इन्हें उसी समय से गांव की चिन्ता हुई और इनके कार्यों से प्रभावित होकर गांववालों ने इन्हें अपना पथ-प्रदर्शक मान लिया। बाल्य काल से ही ये निर्भीक थे। विद्यालय, गांव या इलाके में विकास कार्य के लिये किसी के पास जाने में इन्हें संकोच या भय नहीं होता था। उस समय लोग पुलिस की लाल पगड़ी देखकर भाग जाते थे, सामने नहीं होते थे । परन्तु निःसंकोच किसी भी अफसर से बात कर लेते थे। इस तरह समस्याओं का निदान भी इनके लिये आसान काम था। दुश्मन से भी दोस्ती करने में ये हिचकते नहीं थे। बचपन के इन सारे गुणों ने इन्हें इतना ऊंचा उठने में सहयोग दिया।
बचपन का नटखट बदमाश रजवा, राजो हो गया और फिर समदर्शी राजो बाबू के नाम से विख्यात हो गये। यहां तक कि लोग अब आलाकमान की संज्ञा से भी विभूषित करने लगे थे। राजो बाबू विद्यार्थी जीवन से ही सबेरे चार बजे उठने की इनकी आदत बन गई थी। शौच से निवृत्त होने के बाद ये अपने कमरे की सफाई कर लेते थे। बचपन से ही सफाई और सजावट पर ये ध्यान देते थे। इनके पढ़ने और रहने के लिये अलग कोठरी थी। इस कोठरी की दिवाल पर देवी-देवताओं के रंगीन चित्रों के अलावे महापुरुषों और नेताओं के चित्र लगे रहते थे। शुरू-शुरू में ये मील के बने कपड़े ही शौक से पहनते थे। राजनीति में रुचि लेने के बाद खादी वस्त्रों को धारण करने लगे।
जब ये हथियावां पंचायत के मुखिया बने तो इन्होंने गांव-गांव में विकास कार्यों में काफी रुचि दिखलाई। उच्च विद्यालयों के A.C.C. कैडेटों का कैम्प हथियावां ग्राम श्रमदान के विचार से करवाया और स्वयं भी श्रमदान में हिस्सा लेकर आठ दिनों में गांव में सड़क बनवा दिया। सार्वजनिक सम्पत्ति के रख-रखाव पर ये काफी ध्यान देते थे। गांव या घर में जहां कहीं असमय बिजली जलते देखते तो लोगों को बुलाकर दुरुपयोग न करने की सलाह देते थे। मालगुजारी, बिजली बिल तथा पटवन का भुगतान करने में हमेशा सतर्क रहते थे। तभी तो मुखिया के रूप में अपने पंचायत में मालगुजारी वसूल करने में पूरे बिहार में तत्कालीन पंचायत मंत्री श्री विनोदानन्द झा के कार्यकाल में जैकब साहब ने इन्हें प्रथम पुरष्कार से पुरस्कृत किया था।
राजो सिंह का मुखिया होते ही गांव का चहुंमुखी विकास
मुखिया होते ही गांव और पंचायत के विकास में चार चांद लग गया। गांव की शिक्षा पर दृष्टिपात हुआ और प्राथमिक विद्यालय को मध्य विद्यालय की मंजूरी दिलवाई। फिर उच्च विद्यालय की स्थापना गांव में पंचायत के लोगों के सहयोग से किया। इसी सिलसिले में इन्होंने दान स्वरूप इतनी जमीन इकट्ठी कर ली कि उच्च विद्यालय के साथ-साथ अस्पताल, पंचायत भवन, राजस्व कचहरी, को-ऑपरेटिव बैंक, विस्कोमान, खाद बिक्री केन्द्र, निरीक्षण भवन, को-ऑपरेटिव गोदाम, हरिजन छात्रावास, विस्कोमान गोदाम, सामुदायिक भवन, कॉलेज, प्राचार्य निवास एवं आंगनबाड़ी केन्द्र आदि. संस्थाओं का निर्माण दान दी हुई जमीन पर करवा दिया। ये सभी संस्थायें इनके गांव में बनीं, पंचायत के अन्य गांवों में भी इसी तरह कुछ-न-कुछ संस्थाओं का निर्माण कराया और तब इलाके की ओर अग्रसर हुए।
शेखपुरा जिला निर्माता के रूप में राजो सिंह
‘मुखिया मुख से चाहिए, खान पान को एक, पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक’। इन्होंने अपने विवेक से प्रारम्भ से ही अविरल गति से विकास कार्यों को आगे गांव से प्रखण्ड, क्षेत्र और जिला में बढ़ाया। 14 अप्रैल 83 को माननीय मुख्यमंत्री डा० जगन्नाथ मिश्र द्वारा शेखपुरा अनुमण्डल कार्यालय का उद्घाटन करवाया। बिहार विधान सभा में कांग्रेस विधायक दल के मुख्य सचेतक 11 अप्रैल 1990 से 1994 ई० तक रहे थे। राजो बाबू ने शेखपुरा जिला समाहरणालय का उद्घाटन तत्कालीन माननीय मुख्यमंत्री श्री लालू प्रसाद द्वारा 31 जुलाई, 1994 ई० को सम्पन्न हुआ था।
राजो बाबू ने शेखपुरा जैसे एक छोटे से ब्लॉक को अपने राजनीति पराक्रम के बदौलत बिहार के एक जिला के रूप में सरकार से मान्यता दिलवाई। इसीलिए उन्हें आज भी शेखपुरा जिला का निर्माता के नाम से जाना जाता है। एम. एल. ए. के दायित्वों के प्रति अपनी सजगता का कीर्तिमान स्थापित करते हुए शेखपुरा विधान सभा क्षेत्र की अप्रतिम प्रगति की। बिहार ही नही बल्कि पुरे हिंदुस्तान में अपने राजनीति का डंका बजाने वाले कुशल राजनेता थे।
लोकप्रिय नेता राजो बाबू का निधन
दिग्गज नेता राजो बाबू के राजनीतिक पराक्रम रास न आनेवाले कुछ असामाजिक तत्वों ने एक साजिश के तहत 09 सितम्बर 2005 की देर शाम 07 बजे जिला कांग्रेस कार्यालय, आज़ाद हिन्द आश्रम में घुसकर उनकी हत्या गोलियों से छलनी कर कर डाली। जब वे स्थानीय लोगों से मिल रहे थे। सांसद, विधायक रहकर भी आम आदमी के लिये आम आदमी बनकर जीया। भारत सरकार और बिहार सरकार की राजनीति में रहते हुए उन्होंने अपने क्षेत्र का खूब विकास किया खासकर शेखपुरा के विकास में उनका अमूल्य योगदान रहा। वे सदैव गरीबों वंचितों की चिता करते रहते थे। उनकी कथनी और करनी में समानता थी। राजो बाबू का हर राजनीतिक दल में सम्मान था। वे राजनीति के आजाद शत्रु थे।