● बिहारशरीफ के महलपर मुहल्ले में जन्मे नाट्य आन्दोलन के कर्मठ योद्धा डॉ. चतुर्भुज
● डॉ चतुर्भुज की नाटकीय प्रस्तुति देखकर पृथ्वी राजकपुर ने काफी प्रशंसा की थी
● कर्मवीर योद्धा डॉ. चतुर्भुज ने राष्ट्रीयता, सामाजिक विषमता, नारी जागरण पर ज्यादा ध्यान दिया
प्रस्तुति :- राकेश बिहारी शर्मा – हिन्दी नाटक विधा को समसामयिक और लोगों में सामाजिकता की भावना पैदा तथा जनमानस को नाटक के माध्यम से बिहार में आदर्श मानव बनाने वाले नाटककार डॉ. चतुर्भुज का नाम भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद के बाद आदर से लिया जाता है। हिंदी में नाटक विधा को समसामयिक बनाने और नयी दिशा देने वाले प्रसिद्ध नाटककार, निबंधकार और हिन्दी नाट्य आन्दोलन के कर्मठ योद्धा डॉ. चतुर्भुज जी का जन्म 15 जनवरी, 1928 ई. को नालन्दा जिलान्तर्गत बिहारशरीफ के महलपर मुहल्ले में हुआ था। इनके पिता श्री प्रयाग नारायण बख्तियारपुर-राजगीर मार्टिन रेल में स्टेशन मास्टर के पद पर कार्यरत थे। तथा साहित्य और संगीत कला प्रेमी थे। जिसका प्रभाव डॉ. चतुर्भुज के जीवन पर भी पड़ा। फारसी, कैथी भाषाओं के जानकार प्रयाग नारायण की रूचि नाटकों में भी थी। डॉ. चतुर्भुज के पूर्वज वर्तमान लखीसराय जिले के हल्सी प्रखंड प्रतापपुर गाँव के रहने वाले थे। जहाँ उनका मकान और अच्छी खेती-बारी थी, इलाके में उनका बड़ा मान-सम्मान था। प्रयाग नारायण जी का बख्तियारपुर में पोस्टिंग होने पर वहां की प्रतिष्ठित नाट्य संस्था ‘बिहारी क्लब’ से उनका जुड़ाव था। वे उस संस्था के वरीय सम्मानित सदस्यों में एक थे। नाटक के संबन्ध में उनसे महत्वपूर्ण परामर्श लिया जाता था। सरस्वती पूजा, दशहरा से छठ पूजा तक प्रतिवर्ष नाटकों का दौर रहता था। मेधावी बालक चतुर्भुज अपने पिता की अंगुली पकड़ कर प्रतिदिन पूर्वाभ्यास में जाते और देररात लौटते समय वे अपने मन की बात पिता से शेयर करते। नाटक के संबन्ध में भी वे अनगिनत प्रश्न करते और पिता प्रयाग नारायण उनके प्रश्नों का जवाब देते थे। प्रदर्शित पारसी नाटकों का निर्देशन करने के लिए पटना के चर्चित नाट्य निर्देशक और अनुशासनप्रिय त्रिभुवन सिन्हा को बुलाया जाता था। चतुर्भुज जी बिहारी क्लब के अपने वरीय कलाकारों का सम्मान करते रहे और नाटक की गूढ़ बातों का गहराई से अध्ययन करते रहे। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा महलपर, बख्तियारपुर और खुशरूपुर के स्कूलों में हुई थी। बिहारी क्लब संस्था में प्रदर्शित पारसी नाटकों में महिला चरित्र में अभिनय से शुरूआत हुई। रणधीर साहित्यालंकार, हरेकृष्ण प्रेमी आदि लेखकों के उपलब्ध सभी पारसी नाटकों का मंचन बिहारी क्लब ने कर लिया तब युवा चतुर्भुज ने अपना पहला नाटक ‘मेघनाद’ उनके बीच रखा। नाट्य लेखन की शुरूआत भी अब हो गयी थी। एकल व्यक्तित्व के धनी डॉ. चतुर्भुज जी ने पहले ‘बिहार क्लब’ बाद में मगधकलाकार की स्थापना किया। जिस नाटक को लिखा स्वयं उसका मंचन भी किया। बिहार राज्य हमेशा से प्रतिभाओं का धनी रहा है।
यहाँ एक से बढ़कर एक चित्रकार, नृत्यकार, गायक, वादक पैदा हुए हैं। नाट्यकला के मामले में बिहार पहले भाड़ों की मण्डली के अलावा कुछ नहीं था। इनका उद्देश्य मात्र मनोरंजन था। बाद में बिहार में विक्टोरिया नाटक मंडली, एलिफिस्टन नाटक मण्डली, कर्जन थियेटर, पारसी थियेटर काफी लोकप्रिय रहा। बिहारशरीफ के केशव राम भट्ट ने 1876 में पटना नाट्य मण्डली नामक नाटक संस्था की स्थापना की थी। आरा के पण्डित ईश्वरी प्रसाद वर्मा 1914 में मनोरंजन नाटक मंडली, जगन्नाथ प्रसाद किंकर ने किंकर नाट्य कला मंच 1917 में स्थापित किया। ये कवि, लेखक के साथ साथ अभिनय निर्देशन करते थे। नाटक में बार-बार परिदृश्य बदलने में असुविधा को देखकर घुमावदार मंच बनाया। इस संस्था का नाम महालक्ष्मी थिएटर दिया था। आगे चलकर फिल्म निर्माता बने। पुनर्जन्म पर पहली बिहारी फिल्म बना। डॉ. एल . एम . घोषाल, डॉ. ए. के. सेन और राजकिशोर प्रसाद ने 1947 में ‘ पटना इप्टा’ की स्थापना की। अनिल मुखर्जी ने बिहार आर्ट थिएटर, कालीदास रंगालय ( प्रेक्षागह) का निर्माण किया। इनकी नाटकीय प्रस्तुति देखकर पृथ्वी राजकपुर ने काफी प्रशंसा की थी। बिहार के ग्रामों में सबसे अधिक मंचन होने वाला नाटक चतुर्भुज जी का ही था। उन्होंने राष्ट्रीयता, सामाजिक विषमता, नारी जागरण पर ज्यादा ध्यान दिया। इनके नाटक संस्था का नाम “मगध कलाकार” है। रेल-सेवा, नव नालन्दा महाविहार और आकाशवाणी से 1986 में सेवानिवृति के बादपूर्ण-रूपेण जन-संचार, पत्रकारिता और नाट्य प्रशिक्षण करते हुए डॉ. चतुर्भुज की लेखन-कला निर्वाध रूप से गतिशील रही। डॉ. चतुर्भुज जी को अध्ययनशीलता की बीमारी ऐसी रही कि उन्होंने बिना किसी कॉलेज में अध्ययन किए प्राईवेट से आई.ए., बी.ए. और एम.ए. (पालि और बौद्ध साहित्य में) पी-एच.डी., (शोध विषय- ‘प्रमुख भारतीय भाषाओं के नाटक और प्राचीन यूनानी नाटक-एक अध्ययन’) की परीक्षाएं पास की। संघ लोकसेवा आयोग से चयनित होकर आकाशवाणी, पटना में कार्यक्रम अधिशासी के रूप में प्रारंभिक नौकरी शुरू की थी। फिर उसके बाद आकाशवाणी रांची, भागलपुर और दरभंगा केन्द्रों पर भी कार्यरत रहे। वे जहां भी रहे रंगमंच की गतिविधियों को लोगों के बीच बनाए रखा। आकाशवाणी दरभंगा के केन्द्र निदेशक पद से 1986 ई. में सेवानिवृत्ति तक नाटककार डॉ. चतुर्भुज जी की लगभग 50 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थी। कई विश्वविद्यालयों से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर अनेक छात्रों ने एम. फिल और पी-एच.डी. की डिग्री प्राप्त कर ली थी । सेवानिवृत्ति के बाद भी उनकी लेखनी निर्बाध चलती रही और उन्होने तीन ऐतिहासिक उपन्यास लिखा। उन्होंने पी-एचडी. की डिग्री मगध विश्वविद्यालय से अपने सेवानिवृत्ति के दस वर्षों बाद प्राप्त की 1996 ई. में।
नाटक-रंगमंच डॉ. चतुर्भुज के जीवन की सदैव छाया बनी रही। इसी विधा ने उन्हें अध्ययन शील बनाए रखा। नाटक, कहानी, लेख और उपन्यास का लेखन करते रहे। बौध साहित्य, इतिहास, नाट्य शास्त्र, पत्रकारिता और जन-संचार का विशेषज्ञ बनाए रखा। डॉ. चतुर्भुज जी का लिखने-पढ़ने का समय तब होता था जब घर के सभी लोग खा-पीकर सो जाते थे। रात दस बजे के बाद से, लेखन के लिए डॉ. चतुर्भुज ने कभी भी कुर्सी-टेबुल को काम में नहीं लाया। ये हमेशा जमीन पर, चटाई बिछाकर एक छोटा पोर्टेबुल टाईपराईटर रख, वे रात्रि में एक से डेढ़ बजे तक लेखन करते थे ।यह सिलसिला लगभग प्रतिदिन का था। लेखन के समय उनके चेहरे पर कोई प्रशासनिक अधिकारी या प्रशिक्षक की रेखा नहीं झलकती थी, वे सिर्फ शिष्य के नजर में आते थे। डॉ. चतुर्भुज जी पारसी नाटकों से यात्रा प्रारम्भ कर, हिन्दी नाटक, नुक्कड़ और टेरिस थियेटर के उतार-चढ़ाव को काफी निकट से देखा। अभिनेताओं, आयोजकों और निर्देशकों की समस्याओं को महसूसा था। उनका कहना था की नाटक एक ऐसा नशा है जिससे जीवनभर मुक्ति मिल पाना कठिन है। उनके जीवन में नाटक एक संजीवनी की तरह मार्गदर्शक बना रहा। वे कहते थे नाटक और रंगमंच एक ऐसी विद्या है जिसमें टेलरिंग, कास्ठकला, कारपेन्टरी, लाईटिंग, मेकअप, सेटनिर्माण, जन-संपर्क आदि सारी कलाएं सन्निहित हैं। जिस तरह गर्भधरिणी माँ अनभिज्ञ होती है कि जन्म लेने वाली उसकी संतान समाज सुधारक होगा या विघ्वंसक, ठीक उसी तरह लेखक की स्थिति होती है। डॉ. चतुर्भुज बताते थे- नाटक के चरित्र लेखक के मस्तिष्क में बनते हैं- पुष्टता के बाद वह चरित्र कलम के माध्यम से कागज के पन्नों पर जन्म लेता है। संवाद के माध्यम से लेखक उस चरित्र का लालन-पालन करता है। लेकिन कभी-कभी लेखक वहाँ असमर्थ हो जाता है कि जिस चरित्र को उसने उभारने का प्रयास किया, वह चरित्र संवाद के माध्यम से उभर न सका और दूसरा चरित्र संवाद में उभर गया। ‘कुँवर सिंह’ नाटक की रचना उन्होंने 1953 में की थी। नाटक के पहले दृश्य में 1857 के पटना के क्रांतिकारी पीरअली के चरित्र को रखा है जिसकी चर्चा तत्कालीन इतिहासकारों ने चार-छह लाईन से अधिक नहीं की है। कालान्तर में स्थिति ऐसी बनी कि उन्हें पीरअली पर एक स्वतन्त्रा नाटक की रचना करनी पड़ी। एक वेदना उनके जीवन के अन्तिम क्षण तक बनी रही। वे चाहते थे कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम पर एक पूर्णकालिक नाटक लिखना। काफी अध्ययन के बाद जब उन्होंने लिखा, तब वह मर्यादा पुरुषोत्तम राम न होकर ‘मेघनाद’ बन गया। कई वर्षों बाद 1980 के आस-पास जब वे फिर से विभिन्न भाषा के रामायणों का अध्ययन कर लिखा, तब उस नाटक का हीरो ‘पुरुषोत्तम राम’ न बन सका, और हो गया मुख्य नायक ‘रावण’। नयी पीढ़ी को नाटक / रंगमंच से जोड़ कर, उन्हें अनुशासित करना, उन्हें उचित सम्मान दिलाना डॉ. चतुर्भुज का लक्ष्य रहता था। 1952 ई. में रेल कर्मचारियों के सहयोग से बख्तियारपुर में स्थापित नाट्य संस्था मगध आर्टिस्ट्स (मगध् कलाकार) का स्थायी मंच डॉ. चतुर्भुज की प्रयोगशाला रही थी। कलाकारों को सामने रखकर नाट्य लेखन के बाद वे संस्था के कलाकारों को लेकर नाट्य प्रदर्शन करते थे। प्रदर्शन में झलकी त्रुटियों का संशोधन कर ही नाटकों का प्रकाशन कराते थे। डॉ. चतुर्भुज का बड़प्पन ही माना जाएगा कि संस्था के दूसरे कनिष्ठ रंगकर्मी को निर्देशन का दायित्व सौंपकर उसकी निगरानी करते रहते। भगवान प्रसाद, भागवत प्रसाद श्रीवास्तव, अनन्त कुमार (डॉ, चतुर्भुज के छोटे भाई) , डॉ. अशोक प्रियदर्शी (डॉ. चतुर्भुज जी के बड़े पुत्र), हंसराज सिंह (कलाकार) , जावेद रहमान आदि ऐसे ही निर्देशक रहे हैं जिनके निर्देशन में डॉ. चतुर्भुज जैसे नाटककार ने ईमानदारी से भूमिकाएं की। उनका कथन था कि एक ही नाटक एक निर्देशक अपनी तरह से नाट्य-प्रस्तुति करता है तो दूसरा निर्देशक उसी नाटक का निर्देशन अलग दृष्टि से करेगा। निर्देशक के मन के अनुकूल ही चरित्र निर्वहन कर कलाकार अपनी पहचान बना सकता है। नाटक को रोजी-रोटी से जोड़ने के लिए डॉ. चतुर्भुज सदैव संघर्षशील रहे। आकाशवाणी दरभंगा में रहते हुए जब एक समारोह में उनकी भेंट ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलपति, डॉ. सी. डी. सिंह से हुई, तब उन्होंने उपकुलपति को मगध कलाकार के पैड पर एक प्रस्ताव दिया-विश्वविद्यालय में नाट्यशास्त्र विषय की स्वतन्त्र पढ़ाई शुरू की जाए। डॉ. चतुर्भुज की लेखनी और नाट्य संस्था मगध कलाकार से वे पूर्व परिचित थे। ल.ना. मिथिला विश्वविद्यालय के उपकुलपति ने तुरत उसी वर्ष से एम.ए. स्तर तक नाट्यशास्त्र के पढ़ाई की स्वीकृति दे दी और सीनेट से पास भी करा लिया। उस समय तक विश्वविद्यालय स्तर पर नाट्यशास्त्र पर कहीं से कोई डिग्री देने की परम्परा नहीं थी। जहाँ नाट्यशास्त्र की पढ़ाई भी होती थी, वहाँ से डिप्लोमा दी जाती थी। सेवानिवृत होने के बाद लगभग ढाई वर्षों तक डॉ. चतुर्भुज वहाँ प्रथम नाट्य शिक्षक बन कर रहे। इसी की प्रेरणा से बी.एन. मंडल विश्वविद्यालय में नाट्यशास्त्र की स्वतन्त्र पढ़ाई शुरू की गयी। इन्टरमीडिएट कॉउन्सिल में भी नाट्यशास्त्र एक विषय के रूप में स्वीकृत किया गया। शिक्षण कार्य के बाद जब वे पटना आए तब एक बात उनके हृदय को बराबर आन्दोलित करता रहा कि जितना नाट्य विद्यार्थियों को उन्होंने लिखाया था उससे अध्कि की जानकारी तो छात्रों को मिल नहीं पाएगी! क्योंकि हिन्दी में कोई ऐसी पुस्तक नहीं है। रंगकर्मियों को ध्यान में रख कर डॉ. चतुर्भुज दो पुस्तकें लिख कर, उन्हें देना चाहते थे। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय की ओर से उन्हें सीनियर फेलोशिप दिया गया और उन्होंने पहली पुस्तक लिखी- ‘भारतीय और विदेशी भाषाओं के नाटकों का इतिहास’। मेहनत करने वालों को भगवान भी मार्ग प्रशस्त करते है। जब लेखन पूरा हो गया । तो पाण्डुलिपि संस्कृति मंत्रालय भेजी गयी जिसके बाद वहां से स्वीकृति भी प्राप्त हुई। अन्य रंगकर्मियों और शोधार्थी उस लेखनी का लाभ लेने से वंचित ही थे। डॉ. चतुर्भुज चिन्तन करते रहे। कालान्तर में उन्होंने उस पाण्डुलिपि में कुछ और चैप्टरजोड़ कर पाण्डुलिपि दिल्ली के प्रकाशक के पास भेजने की तैयारी की । ए.एन. कॉलेज, पटना के विभागाध्यक्ष डॉ. कपिलदेव सिंह की नजर इस पाण्डुलिपि पर पड़ी। उन्होंने परामर्श दिया कि इसी विषय पर आप पी-एचडी की डिग्री ले लें। परिणामतः ‘प्रमुख भारतीय भाषाओं के नाटक और प्राचीन यूनानी नाटक: एक अध्ययन’ विषय पर डॉ. चतुर्भुज को 1996 ई. में पी-एचडी. की डिग्री मिली। रंगकर्मियों के लिए दूसरी पुस्तक वे लिख रहे थे-‘नाट्य शिल्प विज्ञान’ जिसमें उन्होंने अपने अनुभव के आधार पर नाटकों का चयन, चरित्र के अनुसार कलाकारों का चयन, निर्देशन, सेट निर्माण, लाईटिंग की महत्ता, मेकअप, ड्रेस डिजायनिंग, दर्शकों तक नाटकों का प्रचार-प्रसार, जन सम्पर्क, नाटकों की समीक्षा आदि का समावेश कर रहे थे। लगभग डेढ़ सौ पृष्ठों में कई चैप्टर उन्होंने लिखा भी लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके। मगध कलाकार और डॉ. चतुर्भुज की लेखनी ही मानी जाएगी कि कर्पूरी ठाकुर के मुख्य मंत्रित्वकाल में उन्होंने नाट्य रंगमंच को मनोरंजन कर से मुक्ति दिलायी, गाँधी मैदान, पटना में गणतन्त्र दिवस के अवसर पर झंडोत्तोलन और परेड के साथ 1979 से झांकियों का प्रदर्शन प्रारम्भ किया गया। नाटक को रोजी-रोटी से जोड़ने के लिए एम.ए. स्तर पर नाट्यशास्त्र की पढ़ाई प्रारम्भ करायी। डॉ. चतुर्भुज ने अपनी प्रयोगशाला मगध कलाकार से जितने भी प्रदर्शन किए उनमें अधिकांश प्रदर्शन किसी न किसी कल्याणकारी कार्य के लिए ही किए गये-उनमें प्रमुख हैं-नेशनल डिफेन्सप फंड (18 जनवरी, 1966 रेलवे सिनेमा हॉल, खगौल), श्रीचन्द उदासीन महाविद्यालय, हिलसा के सहायतार्थ (कॉलेज परिसर,में 22, 23 फरवरी, 1970), राँची समाज कल्याण समिति के सहायतार्थ, (संत जेवियर स्कूल, डोराण्डा हॉल में 12, 13 जुलाई, 1971), जमुई स्टेडियम के सहायतार्थ, मुख्यमंत्री – बाढ़ राहत कोष (झुमरी तिलैया, रामगढ़, हजारीबाग सिनेमा हॉल, नवम्बर, 1970), महिला महाविद्यालय, खगोल के सहायतार्थ, द्वितीय कांफ्रेंस इंटरनेशनल एसोसिएशन आफ बुद्धिस्ट स्टडीज , नालंदा (19 जनवरी ‘1980 ) , नव नालंदा महाविहार में दीक्षांत समारोह के मौके पर (6 फरवरी 1977) को, आदि उनके कल्याणकारी कार्य की महत्वपूर्ण बानगी है। नाट्य प्रस्तुति एक टीम वर्क है। कोई भी कलाकार किसी कारण से हट गया तो आपका नाटक कभी सफल नहीं होगा। डॉ. चतुर्भुज सदैव अनुशासन प्रिय, समय के पाबन्द और शराब सेवन के विरोधी रहे। डॉ. चतुर्भुज संयुक्त परिवार के पोषक थे। उनकी मान्यता थी-संयुक्त परिवार खुशियों का खजाना है, दुख कम, और उसे बर्दाश्त करने की क्षमता प्रदान करता है। लेकिन, एकल परिवार में खुशियाँ कम और दुख झेलने में नदी का किनारा भी ओझल प्रतीत होता है। उनके साथ मिल-बैठ कर कभी बातों का सिलसिला चलता था तब कभी ठहाकों की गूँज उठती थी और कभी गम्भीरता की छाया फैल जाती थी । मैंने महसूस किया कि उनके संस्मरण अन्य रंगकर्मियों, साहित्यकारों तक भी प्रेरणा स्वरूप पहुँचनी चाहिए । महान नाटककार डॉ. चतुर्भुज के प्रमुख नाटक हैं-पाटलिपुत्रा का राजकुमार, कलिंग-विजय, सिकन्दर-पोरस, कालसर्पिणी, टीपू सुल्तान, रावण, मेघनाद, कंसवध्, श्रीकृष्ण, कर्ण, भीष्म-प्रतिज्ञा, बन्दकमरे की आत्मा, नदी का पानी, भगवान बुद्ध , बाबू विरंची लाल, मुद्राराक्षस, अरावली का शेर, नूरजहां, शिवाजी, सिराजुद्दौला, मीरकासिम, कृष्णकुमारी, पीरअली, झांसी की रानी, कुंवर सिंह, मोर्चे-पर, बहादुरशाह, शाहीअमानत, विजय के क्षण, बादल का बेटा, महिषासुर वध, कारागार, चतुर्भुजर चनावली (तीन खंडों में) है। डॉ. चतुर्भुज को बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् ने इन्हें वयोवृद्ध साहित्यकार के रूप में सम्मानित किया और दिल्ली में आयोजित शताब्दी विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी सेवा के लिए इन्हें सम्मानित किया गया है। इनके अलावा कई साहित्यिक, सांस्कृतिक संस्थाओं की ओर से डॉ. चतुर्भुज को सम्मान, पुरस्कार दिया जाता रहा। मीरकासिम नाटक पर डॉ. चतुर्भुज को उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत किया गया है। केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी, राजस्थान सरकार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय; संस्कृति मंत्रालय, बिहार राजभाषा विभाग आदि ने इनके हिन्दी नाटकों के प्रकाशन के लिए समय-समय पर आर्थिक अनुदान देता रहा है। ऐसे महान नाटककार डॉ. चतुर्भुज जी 11 अगस्त 2009 को अपनी अस्वस्थता के कारण पटना के एक निजी अस्पताल में अंतिम सांस ली।