Tuesday, September 17, 2024
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बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम जी की 90 वीं जयंती पर विशेष

 राकेश बिहारी शर्मा – कांशीराम की गिनती देश के कद्दावर दलित नेताओं में होती है। भारत की राजनीति में दलितों की हक की आवाज उठाने का श्रेय कांशीराम को जाता है। कांशीराम को दलित राजनीति का मास्टरमाइंड भी कहा जाता है। कांशीराम में हमेशा अल्पसंख्यकों और दलितों की आवाज उठाई। कांशीराम वास्तव में बहुजन आंदोलन के महानायक थे।
भारतीय राजनीति की जब भी चर्चा होगी, कांशीराम का नाम जरूर सामने आएगा। भारत में सबसे पहले भले ही बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने दलितों व बहुजनों के उत्थान की बात की थी। उनके लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों के लिए वकालत की थी, पर उनके बाद जिस दलित नेता ने बाबा साहेब की विचारधारा को आगे बढ़ाने में अहम भूमिका निभाई वह कांशीराम ही थे। जिस समाज में गैर-राजनीतिक जड़ें मजबूत नहीं हैं, वह अपनी राजनीतिक आकांक्षाओं में भी असफल हो जाता है। कांशीराम भारतीय राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे। उन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था में बहुजनों के राजनीतिक एकीकरण तथा उत्थान के लिए कार्य किया।

बहुजन नायक मान्यवर साहब कांशीराम जी की 90 वीं जयंती पर विशेष

काशीराम का जन्म, शिक्षा और पारिवारिक जीवन – कांशीराम भारतीय राजनीतिज्ञ और समाज सुधारक थे। उन्होंने भारतीय वर्ण व्यवस्था में बहुजनों के राजनीतिक एकीकरण तथा उत्थान के लिए कार्य किया। कांशीराम जी का जन्म 15 मार्च 1934 में पंजाब के रूपनगर जिले में हुआ था। वो सिख रामदासिया समुदाय से आते हैं जिसे अछूत माना जाता था। उनके पिता का नाम हरि सिंह था। वे सात भाइयों में सबसे बड़े थे। उनके माता जी का नाम बिशन कौर था। बिशन कौर एक धार्मिक महिला थी। दलित परिवार (चमार जाति) से आने के बावजूद भी कांशीराम का परिवार खुशहाल और समृद्ध था। कांशीराम के दादा ढेलो राम आर्मी के रिटायर्ड जवान थे। स्थानीय विद्यालयों से स्कूली शिक्षा लेने के बाद कांशीराम ने रूपनगर गवर्नमेंट कॉलेज से 1956 में बीएससी डिग्री लिया। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे पुणे चले गए, जहां उन्होंने एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डेवलपमेंट लेबोरेटरी में काम करना शुरू किया। यह नौकरी उन्हें भारत सरकार के आरक्षण नीति के तहत मिली थी। स्नातक (रोपड़ राजकीय कालेज, पंजाब विश्वविद्यालय) से हुआ तथा नौकरी डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट आर्गेनाइजेशन (डीआरडीओ) में किया। बीएससी (B.SC) की पढ़ाई पूरी करने के बाद कांशीराम को सर्वे ऑफ इंडिया में पहली सरकारी नौकरी मिली थी। लेकिन, उन्होंने यह नौकरी नहीं की और बॉन्ड साइन नहीं किया। इसके बाद वह साल 1958 में एक्सप्लोसिव रिसर्च एंड डिवेलपमेंट लैबोरेटरी में बतौर रिसर्च असिस्टेंट जॉइन किया, जिसके लिए उन्हे पुना आना पड़ा। इस दौरान कांशीराम अंबेडकर और ज्योतिबा फुले के लेखन के संपर्क में आए और यहीं से उनके कायांतरण की शुरुआत हुई।

कांशीराम को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा – पुणे में पहली बार कांशीराम को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। इस घटना का उनके मन पर काफी प्रभाव पड़ा। वे 1964 में शोषित अछूतों, दलितों और बहुजन समाज को उनका हक़ दिलाने के लिए कर्मठ कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) बन गए।

कांशीराम और आंबेडकर जयंती – कांशीराम ने दलितों से जुड़े सवाल और अंबेडकर जयंती के दिन अवकाश घोषित करने की मांग उठाई। अंबेडकर के जन्मदिन के दिन 14 अप्रैल 1973 को ऑल इंडिया बैकवर्ड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉईज फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया। इसके बाद देश भ्रमण के लिए कांशीराम निकल गए। इस दौरान उन्हें सबसे ज्यादा गुंजाइश उत्तर प्रदेश में समझ आई। 1984 में बीएसपी के गठन के साथ ही कांशीराम चुनावी राजनीति में कूद पड़े।

देश में दलित नेता की जरूरत –1992 में राम मंदिर आंदोलन के समय बीजेपी जहां हिंदुत्व कार्ड खेल रही थी, कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी बहुत खुरदुरे तरीके से दलितों को समझा रही थी कि उसकी अपनी बिरादरी से भी कोई मुख्यमंत्री बन सकता है, ऐसा मुख्यमंत्री जो किसी बड़े पावर ग्रुप का नाम मात्र चेहरा न हो अपनी ताकत और तेवर दिखाने वाला दलित नेता हो।

कांशीराम बहुजनों के सामाजिक प्रेरणा स्रोत – नौकरी के दौरान जातिगत भेदभाव से आहत होकर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर, ज्योतिबा फुले और पेरियार के दर्शन को गहनता से पढ़कर दलितों को एकजुट करने में जुटे। पंजाब के एक चर्चित विधायक की बेटी का रिश्ता आया लेकिन दलित आंदोलन के हित में उसे ठुकरा दिया।

कांशीराम जी ने बुद्धिस्ट रिसर्च सेंटर की स्थापना की – कांशीराम जी की पहली ऐतिहासिक किताब ‘द चमचा ऐज’ (अंग्रेजी) 24 सितंबर 1982 को प्रकाशित हुआ। कांशीराम जी ने पे बैक टू सोसाइटी के सिद्धांत के तहत दलित कर्मचारियों को अपने वेतन का 10वां हिस्सा समाज को लौटाने का आह्वान किया। कांशीराम जी सबसे पहले बाबा साहेब द्वारा स्थापित पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के सक्रिए सदस्य बनें। 1971 में पूना में आरपीआई और कांग्रेस के बीच गैरबराबरी के समझौते और नेताओं के आपसी कलह से आहत होकर पार्टी से इस्तीफा दे दिया था।

कांशीराम ने ‘बामसेफ’ का गठन किया – कांशीराम ने 6 दिसंबर 1978 को ‘बामसेफ’ का गठन किया. कांशीराम का मानना था कि आरक्षण का लाभ लेकर सरकारी नौकरी में पहुंचा वर्ग ही शोषितों का थिंक, इंटलैक्चुअल और कैपिटल बैंक यही कर्मचारी तबका है। दलितों की राजनीतिक ताकत तैयार करने में बामसेफ काफी मददगार साबित हुआ। कांशीराम ने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक, आर्थिक, राजनितिक रूप से पिछडे(OBC) व इन समुदायों के धर्मांतरित अल्प संख्यईकों के कर्मचारियों का अखिल भारतीय संगठन को बामसेफ का नाम दिया। इस संगठन का निर्माण 1978 में सर्वप्रथम जब मान्यवर कांशीराम जी द्वारा किया गया तब उनके सहयोगी संस्थापक थे दिना भाना जी और खापर्डे जी भी साथ थे। बामसेफ मनुवाद को अपना मुख्यम शत्रु मानते हुए महात्माग ज्योतिबा फुले और बाबासाहब अंबेडकर समस्त मुलनिवासी बहुजन महापुरुषों को अपना आदर्श मानती है। बामसेफ के अनुसार समानताविरोधी शक्तियों से लडने के लिए सामाजिक बदलाव के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी आवश्येक है। बामसेफ का विश्वाकस है कि सत्ता धारी जातियों और शोषित जातियों के स्पसष्ट विभाजन को समझते हुए बामसेफ के अन्तर्गत शोषित जातियों को संगठित कर शोषण का प्रतिकार करना है।

कांशीराम ने राजनितिक मुहीम की सुरुआत की – दलितों को एकजुट करने और राजनीतिक ताकत बनाने का अभियान 1970 के दशक में शुरू किया। दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदाय को जोड़ने के लिए उन्होंने डीएस-4 का गठन किया। इसकी स्थापना 6 दिसंबर 1981 को की गई। डीएस-4 के जरिए सामाजिक, आर्थिक बराबरी का आंदोलन आम झुग्गी-झोपड़ी तक पहुंचाने में काफी मदद मिली। इसको सुचारु रूप से चलाने के लिए महिला और छात्र विंग में भी बांटा गया। जाति के आधार पर उत्पीड़न, गैर-बराबरी जैसे समाजिक मुद्दों पर लोगों के बीच जागरूकता और बुराइयों के खिलाफ आंदोलन करना डीएस-4 के एजेंडे में रहे। डीएस-4 के जरिए ही देश भर में साइकिल रैली निकाली गई थी। मान्यवर कांशीराम जी ने 1982 में एक पुस्तक लिखी जिसका नाम था ‘द चमचा एज’। इस किताब में उन्होंने दलित नेताओं जैसे जगजीवन राम और रामविलास पासवान को चमचा कहा था। तर्क देते हुए उन्होंने कहा कि दलितों को राजनीति अपने हितों के रक्षा के लिए करनी चाहिए ना कि उन्हें दूसरे दलों के साथ काम करके दलित हितों के साथ समझौता करना चाहिए।
बहुजन समाज पार्टी की स्थापना के बाद कांशीराम ने कहा कि उनकी पार्टी पहला चुनाव हारने के लिए लड़ेगी, दूसरा चुनाव लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए और तीसरा चुनाव जीतने के लिए लड़ेगी। कांशीराम 1988 में इलाहाबाद सीट से भारत के भविष्य के प्रधानमंत्री वीपी सिंह के खिलाफ चुनाव लड़े। उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन 70000 वोटों से हार गए। 1989 में वे दिल्ली ईस्ट लोकसभा चुनाव क्षेत्र से चुनाव लड़े और चौथे नंबर पर आये। 1996 में वो होशियारपुर सीट से 11वीं लोकसभा के लिए चुने गए।

कांशीराम जी का महापरिनिर्वान – सामाजिक न्याय और स्वतंत्रता के प्रबल पुरोधा, बेआवाज़ की आवाज़, कमज़ोरों की तरक्की के पैरोकार, बहुजन समाज की लड़ाई का आजीवन नेतृत्व करने वाले मान्यवर कांशीराम जी को डायबिटीज की बीमारी थी। उन्हें 1994 में हार्ट अटैक भी हुआ था। 2003 में उन्हें पैरालिटिक स्ट्रोक हुआ। बुढ़ापे और बीमारी के कारण वो काफी कमज़ोर हो गए थे। जीवन के अंतिम 2-3 साल वो बिस्तर पर ही रहे। 9 अक्टूबर 2006 को 72 साल की आयु में घातक दिल का दौरा पड़ने के कारण उनकी मृत्यु हो गई। उनके इच्छा के अनुरूप बौद्ध रीति रिवाज से उनकी अंत्येष्टि की गई। लेकिन उनकी बौद्ध धर्म ग्रहण करने की मंशा अधूरी रह गयी। चिता को अग्नि दिया था उनके उत्तराधिकारी मायावतीजी ने।

कांशीराम जी का साहित्यक योगदान – कांशीराम ने बहुजनों के हितों के लिए कई पत्र-पत्रिकाएं शुरू की। जैसेः अनटचेबल इंडिया (अंग्रेजी), बामसेफ बुलेटिन (अंग्रेजी), आप्रेस्ड इंडियन (अंग्रेजी), बहुजन संगठनक (हिन्दी), बहुजन नायक (मराठी एवं बंग्ला), श्रमिक साहित्य, शोषित साहित्य, दलित आर्थिक उत्थान, इकोनोमिक अपसर्ज (अंग्रेजी), बहुजन टाइम्स दैनिक, बहुजन एकता शुरू किया था। कांशीराम जी पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिसने शोषित समाज की निष्क्रिय रही राजनितिक चेतना को जागृत किया था। बाबा साहब आंबेडकर ने संविधान के माध्यम से शोषित समाज के लिए विकास के लिए बंद दरवाजे खोल दिए थे, लेकिन इस विकास रूपी दरवाजे के पार पहुचाने का कार्य मान्यवर ‘कांशीराम’ जी ने किया। बाबा साहब ने दलितों को मनोबल प्राप्त करने का आह्वान किया, कांशीराम जी ने समाज को ‘मनोबल’ प्राप्त करने के लिए मजबूर किया। कांशीराम जी उन महान पुरषों में से है जिन्होंने व्यक्तिगत ‘स्वार्थ’ की जगह समाज के लिए कार्य किया, अपनी माँ को लिखी चिठ्ठी में ‘मान्यवर कांशीराम’ जी ने ‘शोषित समाज’ को ही अपना परिवार बताया। वर्तमान में समाज को ‘कांशीराम’ जी जैसे महापुरषो की अत्यंत आवश्यकता है।

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