Sunday, December 22, 2024
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अहिंसा के सबसे बड़े प्रवर्तक महात्मा गांधी की 75 वीं पुण्यतिथि पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – आज महात्मा गांधी की 75 वीं पुण्यतिथि है। इस मौके पर पूरा देश बापू को याद कर रहा है। 30 जनवरी को 1948 को नाथूराम गोडसे ने बापू को गोलियों से छलनी कर दिया। महात्मा गांधी आज भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके विचार आज भी हमें आगे बढ़ने और कुछ अच्छा करने की प्रेरणा देते हैं। इस दिन को शहीदी दिवस के तौर पर याद किया जाता है। 20 जनवरी 1948 को प्रार्थना सभा में अपने संबोधन में बापू आजादी और विभाजन के बाद शरणार्थियों की स्थिति और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल के बीच मतभेदों के बारे में चर्चा कर रहे थे। इस सभा में बापू ने कहा ‘अगर आप सरदार पटेल के बम्बई के बयान को सावधानी से देखें तो यह आपको यह पता चल जाएगा कि पंडित नेहरू और सरदार पटेल में कोई मतभेद नहीं था। वे अलग-अलग तरीके से बात करते हैं लेकिन उनका काम समान है।’ बहरहाल, अगर 20 जनवरी के हादसे को गंभीरता से लिया गया होता तो शायद बापू हमसे इस तरह बिदाई नहीं लेते।

महात्मा गांधी को ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और ‘राष्ट्रपिता’ माना जाता है। इनका पूरा नाम मोहनदास करमचंद गांधी था। महात्मा गांधी का जन्म 2 अक्टूबर 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचंद गांधी था। मोहनदास की माता का नाम पुतलीबाई था जो करमचंद गांधी जी की चौथी पत्नी थीं। मोहनदास अपने पिता की चौथी पत्नी की अंतिम संतान थे। गांधी की मां पुतलीबाई अत्यधिक धार्मिक थीं। उनकी दिनचर्या घर और मन्दिर में बंटी हुई थी। वह नियमित रूप से उपवास रखती थीं और परिवार में किसी के बीमार पड़ने पर उसकी सेवा सुश्रुषा में दिन-रात एक कर देती थीं। मोहनदास का लालन-पालन वैष्णव मत में रमे परिवार में हुआ और उन पर कठिन नीतियों वाले जैन धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। जिसके मुख्य सिद्धांत, अहिंसा एवं विश्व की सभी वस्तुओं को शाश्वत मानना है। इस प्रकार, उन्होंने स्वाभाविक रूप से अहिंसा, शाकाहार, आत्मशुद्धि के लिए उपवास और विभिन्न पंथों को मानने वालों के बीच परस्पर सहिष्णुता को अपनाया।

मोहनदास एक औसत विद्यार्थी थे, वह पढ़ाई व खेल, दोनों में ही तेज नहीं थे। बीमार पिता की सेवा करना, घरेलू कामों में मां का हाथ बंटाना और समय मिलने पर दूर तक अकेले सैर पर निकलना, उन्हें पसंद था। उन्हीं के शब्दों में उन्होंने ‘बड़ों की आज्ञा का पालन करना सीखा, उनमें मीनमेख निकालना नहीं।’ उनकी किशोरावस्था उनकी आयु-वर्ग के अधिकांश बच्चों से अधिक हलचल भरी नहीं थी। हर ऐसी नादानी के बाद वह स्वयं वादा करते ‘फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा’ और अपने वादे पर अटल रहते। उनमें आत्मसुधार की लौ जलती रहती थी, जिसके कारण उन्होंने सच्चाई और बलिदान के प्रतीक प्रह्लाद और हरिश्चंद्र जैसे पौराणिक हिन्दू नायकों को सजीव आदर्श के रूप में अपनाया।

गांधी जी जब केवल तेरह वर्ष के थे और स्कूल में पढ़ते थे उसी वक्त पोरबंदर के एक व्यापारी की पुत्री कस्तूरबा से उनका विवाह कर दिया गया। 1887 में मोहनदास ने जैसे-तैसे ‘बंबई यूनिवर्सिटी’ की मैट्रिक की परीक्षा पास की और भावनगर स्थित ‘सामलदास कॉलेज’ में दाखिल लिया। अचानक गुजराती से अंग्रेजी भाषा में जाने से उन्हें व्याख्यानों को समझने में कुछ दिक्कत होने लगी। इस बीच उनके परिवार में उनके भविष्य को लेकर चर्चा चल रही थी। अगर निर्णय उन पर छोड़ा जाता, तो वह डॉक्टर बनना चाहते थे।

लेकिन वैष्णव परिवार में चीरफाड़ की इजाजत नहीं थी। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि यदि उन्हें गुजरात के किसी राजघराने में उच्च पद प्राप्त करने की पारिवारिक परम्परा निभानी है तो उन्हें बैरिस्टर बनना पड़ेगा और ऐसे में गांधीजी को इंग्लैंड जाना पड़ा। यूं भी गांधी जी का मन उनके ‘सामलदास कॉलेज’ में कुछ खास नहीं लग रहा था, इसलिए उन्होंने इस प्रस्ताव को सहज ही स्वीकार कर लिया। उनके युवा मन में इंग्लैंड की छवि ‘दार्शनिकों और कवियों की भूमि, सम्पूर्ण सभ्यता के केन्द्र’ के रूप में थी। सितंबर 1888 में वह लंदन पहुंच गए। वहां पहुंचने के 10 दिन बाद वह लंदन के चार कानून महाविद्यालय में से एक ‘इनर टेंपल’ में दाखिल हो गए। 1906 में टांसवाल सरकार ने दक्षिण अफ्रीका की भारतीय जनता के पंजीकरण के लिए विशेष रूप से अपमानजनक अध्यादेश जारी किया।

भारतीयों ने सितंबर 1906 में जोहेन्सबर्ग में गांधी के नेतृत्व में एक विरोध जनसभा का आयोजन किया और इस अध्यादेश के उल्लंघन तथा इसके परिणामस्वरूप दंड भुगतने की शपथ ली। इस प्रकार सत्याग्रह का जन्म हुआ, जो वेदना पहुंचाने के बजाय उन्हें झेलने, विद्वेषहीन प्रतिरोध करने और बिना हिंसा किए उससे लड़ने की नई तकनीक थी। इसके बाद दक्षिण अफ्रीका में सात वर्ष से अधिक समय तक संघर्ष चला। इसमें उतार-चढ़ाव आते रहे, लेकिन गांधी के नेतृत्व में भारतीय अल्पसंख्यकों के छोटे से समुदाय ने अपने शक्तिशाली प्रतिपक्षियों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। सैकड़ों भारतीयों ने अपने स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाले इस कानून के सामने झुकने के बजाय अपनी आजीविका तथा स्वतंत्रता की बलि चढ़ाना ज्यादा पसंद किया। सन् 1914 में गांधी जी भारत लौट आए। देशवासियों ने उनका भव्य स्वागत किया और उन्हें महात्मा पुकारना शुरू कर दिया। उन्होंने अगले चार वर्ष भारतीय स्थिति का अध्ययन करने तथा उन लोगों को तैयार करने में बिताये जो सत्याग्रह के द्वारा भारत में प्रचलित सामाजिक व राजनीतिक बुराइयों को हटाने में उनका साथ दे सकें। फरवरी 1919 में अंग्रेजों के बनाए रॉलेट एक्ट कानून पर, जिसके तहत किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाए जेल भेजने का प्रावधान था, उन्होंने अंग्रेजों का विरोध किया।

फिर गांधी जी ने सत्याग्रह आन्दोलन की घोषणा कर दी। इसके परिणामस्वरूप एक ऐसा राजनीतिक भूचाल आया, जिसने 1919 के बसंत में समूचे उपमहाद्वीप को झकझोर दिया। इस सफलता से प्रेरणा लेकर महात्मार गांधी ने भारतीय स्वझतंत्रता के लिए किए जाने वाले अन्यक अभियानों में सत्या ग्रह और अहिंसा के विरोध जारी रखे, जैसे कि ‘असहयोग आंदोलन’, ‘नागरिक अवज्ञा आंदोलन’, ‘दांडी यात्रा’ तथा ‘भारत छोड़ो आंदोलन’। गांधी जी के इन सारे प्रयासों से भारत को 15 अगस्ता 1947 को स्वतंत्रता मिल गई। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। विश्व पटल पर महात्मा गांधी सिर्फ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक हैं। महात्मा गांधी के पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की के बारे में लोग जानते थे, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह, शांति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुए अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2007 से गांधी जयंती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाए जाने की घोषणा की है।

हमने गांधी को माना जरुर पर उनकी कही गई एक बात भी मानी। गांधी जी के शिक्षा प्रणाली से ही हम असली भारत का निर्माण कर सकते हैं। हम उस पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं जिसकी आज देश को ज़रूरत है। एक समय की बात है की गांधी जी इलाहाबाद में आनंद भवन में रुके हुए थे। सुबह का वक्त था, गांधी जी अपनी नीम की छोटी टहनी (दातौन) से दांत साफ कर रहे थे। उन्होंने पास में एक लोटे में पानी भर कर रखा हुआ था। तभी वहां से एक और व्यक्ति गुज़रा और गलती से उनका पैर पड़ने की वजह से गांधी जी के पास रखा हुआ लोटा लुढ़क गया। जब तक गांधी जी ने उसे उठाया उसमें से काफी पानी बह चुका था। फिर गांधी जी ने उतने ही पानी से अपना बाकी का काम निपटाया। जब नेहरू जी को ये बात पता चली तो वो गांधी जी के पास पहुंचे और उन्होंने उनसे कहा कि बापू आप प्रयाग के किनारे बैठे हो यहां पानी की कोई कमी नहीं है। नेहरू जी की बात पर गांधी जी ने जवाब देते हुए कहा कि लेकिन मेरे हिस्से का पानी तो गिर गया है ना। इसलिए अब मैं और पानी नहीं ले सकता हूं।

इसी तरह गांधी जी अपनी दातौन को दो भागों में काट कर दोनों तरफ से इस्तेमाल करते थे। और एक ही बार इस्तेमाल करके फेंकते नहीं थे बल्कि जब तक वो सूख नहीं जाती थी तब तक इस्तेमाल करते थे। और जब वो इस्तेमाल करने के लायक नहीं रह जाती थी वो उसे एक जगह पर इकट्ठा कर लिया करते थे ताकि सर्दी में वो आग सेंकने या दूसरे कामों में इस्तेमाल हो सके। उन्होंने अपने सभी साथियों में भी ये आदत डलवाई थी। देखा जाए तो ये एक छोटा सा प्रयास लग सकता है लेकिन इसके पीछे पर्यावरण के लिए जो गंभीरता है उसका अंदाजा लगाया जा सकता है। गांधी जी का मानना था कि प्रकृति को बचाने के लिए हमें उसे आचरण में लाना ज़रूरी है। गांधी जी दरअसल भारत की वो शिक्षा प्रणाली है जिसे आत्मसात करके ही हम असली भारत का निर्माण कर सकते हैं। हम उस पर्यावरण की रक्षा कर सकते हैं जिसकी आज देश को ज़रूरत है। गांधी जी पर्यावरण को लेकर कहते हैं कि ‘यदि एक मनुष्य आवश्यकता से अधिक उपभोग करता है तो दूसरे मनुष्य को भूखा सोना पड़ता है। प्रकृति मनुष्य को सुखी और संतुलित जीवन तो दे सकती है। लेकिन वह अनियंत्रित और असीमित इच्छाओं को सहन नहीं कर सकती है।

गांधी जी पर्यावरण को लेकर काफी सजग थे। उन्होंने कहा थ कि शरीर को तीन तरह के प्राकृतिक पोषण की जरूरत होती है हवा, पानी और भोजन। इसमें साफ हवा सबसे ज़रूरी है। उनका मानना था कि प्रकृति ने हमारी जरूरत के हिसाब से हमें पर्याप्त मुफ्त हवा दी है लेकिन विकास औऱ आधुनिक सभ्यता की बदौलत इसकी भी कीमत तय कर दी गई है। उनका कहना था कि अगर किसी व्यक्ति को साफ हवा के लिए घर से दूर जाना पड़ रहा है तो इसका मतलब है कि वो साफ हवा के लिए पैसे खर्च कर रहा है। आज से करीब 100 साल पहले ही, 1 जनवरी 1918 को उन्होंने अहमदाबाद की एक बैठक में कहा था कि भारत की आजादी को तीन मुख्य तत्वों वायु, जल और अनाज की आजादी के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिए।

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