Friday, July 11, 2025
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संत रविदास भारतीय सामाजिक एकता के प्रतिनिधि संत थे
●सामाजिक समरसता के प्रेरक संत रविदास
●सामाजिक मुक्ति का संदेश वाहक संत रविदास
●संत रविदास भारतीय सामाजिक एकता के प्रतिनिधि संत थे

राकेश बिहारी शर्मा – भारतीय संत परंपरा में अनेक बहूमूल्य संत हुए लेकिन भारतीय क्षितिज पर जिस तरह से संत रविदास चमकते हैं, उस तरह की चमक किसी और में खोजना मुश्किल है। संत रविदास जी का नाम भारतीय भक्ति आंदोलन के महान संतों में गिना जाता है। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी हमें प्रेरणा देती हैं। संत रविदास की जयंती न केवल उनके योगदान को याद करने का अवसर है, बल्कि यह हमें समाज में समानता, प्रेम और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने की प्रेरणा भी देती है। उनका जीवन हमसे यह सिखाता है कि समाज के हर वर्ग, जाति और धर्म से ऊपर उठकर एकता और प्यार में विश्वास करना चाहिए।

हमारे भारत देश की पावन भूमि पर अनेक साधु-संतों, ऋषि-मुनियों, योगियों-महर्षियों और महामानवों ने जन्म लिया है और अपने अलौकिक ज्ञान से समाज को अज्ञान, अधर्म एवं अंधविश्वास के अनंत अंधकार से निकालकर एक नई स्वर्णिम आभा प्रदान की है। चौदहवीं सदी के दौरान देश में जाति-पाति, धर्म, वर्ण, छूत-अछूत, पाखण्ड, अंधविश्वास का साम्राज्य स्थापित हो गया था। हिंदी साहित्यिक जगत में इस समय को मध्यकाल कहा जाता है। मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया। भक्तिकाल में कई बहुत बड़े संत एवं भक्त पैदा हुए, जिन्होंने समाज में फैली कुरीतियों एवं बुराइयों के खिलाफ न केवल बिगुल बजाया, बल्कि समाज को टूटने से भी बचाया। इन संतों में से एक थे, संत कुलभूषण रविदास, जिन्हें रैदास के नाम से भी जाना जाता है।

संत रविदास का जन्म सन् 1398 में माघ पूर्णिमा के दिन काशी के निकट माण्डूर नामक गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम संतोखदास (रग्घु) और माता का नाम कर्मा (घुरविनिया) था। संत कबीर उनके गुरु भाई थे, जिनके गुरु का नाम रामानंद था। संत रविदास बचपन से ही दयालु एवं परोपकारी प्रवृति के थे। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े के जूते बनाना था। लेकिन उन्होंने कभी भी अपने पैतृक व्यवसाय अथवा जाति को तुच्छ अथवा दूसरों से छोटा नहीं समझा।
संत रविदास अपने काम के प्रति हमेशा समर्पित रहते थे। वे बाहरी आडम्बरों में विश्वास नहीं करते थे। एक बार उनके पड़ौसी गंगा स्नान के लिए जा रहे थे तो उन्होंने संत रविदास को भी गंगा-स्नान के लिए चलने के लिए कहा। इस पर संत रविदास ने कहा कि मैं आपके साथ गंगा-स्नान के लिए जरूर चलता लेकिन मैंने आज शाम तक किसी को जूते बनाकर देने का वचन दिया है। अगर मैं तुम्हारे साथ गंगा-स्नान के लिए चलूंगा तो मेरा वचन तो झूठा होगा ही, साथ ही मेरा मन जूते बनाकर देने वाले वचन में लगा रहेगा। जब मेरा मन ही वहां नहीं होगा तो गंगा-स्नान करने का क्या मतलब। इसके बाद संत रविदास ने कहा कि यदि हमारा मन सच्चा है तो इस कठौती में भी गंगा होगी अर्थात् ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। उसने संत रविदास के चरण पकड़ लिए और उसका शिष्य बन गया। धीरे-धीरे संत रविदास की भक्ति की चर्चा दूर-दूर तक फैल गई और उनके भक्ति के भजन व ज्ञान की महिमा सुनने लोग जुटने लगे और उन्हें अपना आदर्श एवं गुरु मानने लगे।

संत रविदास समाज में फैली जाति-पाति, छुआछूत, धर्म-सम्प्रदाय, वर्ण विशेष जैसी भयंकर बुराइयों से बेहद दुखी थे। समाज से इन बुराइयों को जड़ से समाप्त करने के लिए संत रविदास ने अनेक मधुर व भक्तिमयी रसीली कालजयी रचनाओं का निर्माण किया और समाज के उद्धार के लिए समर्पित कर दिया। संत रविदास ने अपनी वाणी एवं सदुपदेशों के जरिए समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने लोगों को पाखण्ड एवं अंधविश्वास छोड़कर सच्चाई के पथ पर आगे बढऩे के लिए प्रेरित किया।

संत रविदास के अलौकिक ज्ञान ने लोगों को खूब प्रभावित किया, जिससे समाज में एक नई जागृति पैदा होने लगी। संत रविदास कहते थे कि राम, कृष्ण, करीम, राघव आदि सभी नाम परमेश्वर के ही हैं और वेद, कुरान, पुरान आदि सभी एक ही परमेश्वर का गुणगान करते हैं।
संत रविदास का अटूट विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परोपकार तथा सद्व्यवहार का पालन करना अति आवश्यक है। अभिमान त्यागकर दूसरों के साथ व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करके ही मनुष्य ईश्वर की सच्ची भक्ति कर सकता है। संत रविदास ने अपनी एक अनूठी रचना में इसी तरह के ज्ञान का बखान करते हुए लिखा है :

कह रैदास तेरी भगति दूरी है, भाग बड़े सो पावै। तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।
एक ऐतिहासिक उल्लेख के अनुसार, चित्तौड़ की कुलवधू राजरानी मीरा रविदास के दर्शन की अभिलाषा लेकर काशी आई थीं। सबसे पहले उन्होंने रविदास को अपनी भक्तमंडली के साथ चौक में देखा। मीरा ने रविदास से श्रद्धापूर्ण आग्रह किया कि वे कुछ समय चित्तौड़ में भी बिताएं। संत रविदास मीरा के आग्रह को ठुकरा नहीं पाए। वे चित्तौड़ में कुछ समय तक रहे और अपनी ज्ञानपूर्ण वाणी से वहां के निवासियों को भी अनुग्रहीत किया। संत रविदास की भक्तिमयी व रसीली रचनाओं से बेहद प्रभावित हुईं और वो उनकीं शिष्या बन गईं।

कुलभूषण संत रविदास ने सामाजिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय एकता के लिए भी समाज में जागृति पैदा की। संत रविदास ने लोगों को समझाया कि तीर्थों की यात्रा किए बिना भी हम अपने हृदय में सच्चे ईश्वर को उतार सकते हैं। संत रविदास ने जाति-पाति का घोर विरोध किया। संत रविदास ने जाति-पाति और वर्ण व्यवस्था को व्यर्थ करार दिया और कहा कि व्यक्ति जन्म के कारण ऊंच या नीच नहीं होता। रविदास जी ने कहा कि व्यक्ति के कर्म ही उसे ऊंच या नीच होता है।
रैदास जन्म के कारणों, होत न कोई नीच। नर को नीच करि डारि है, ओहे कर्म की कीच।।
इस प्रकार कुलभूषण संत रविदास ने समाज को हर बुराई, कुरीति, पाखंड एवं अंधविश्वास से मुक्ति दिलाने के लिए ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया और असंख्य मधुर भक्तिमयी कालजयी रचनाएं रचीं। उनकीं भक्ति, तप, साधना व सच्चे ज्ञान ने समाज को एक नई दिशा दी और उनके आदर्शों एवं शिक्षाओं का मानने वालों का बहुत बड़ा वर्ग खड़ा हो गया, जोकि ‘रविदासी’ कहलाते हैं।

संत रविदास द्वारा रचित ‘रविदास के पद’, ‘नारद भक्ति सूत्र’, ‘रविदास की वाणी’ आदि संग्रह भक्तिकाल की अनमोल कृतियों में गिनी जाती हैं। स्वामी रामानंद के ग्रंथ के आधार पर संत रविदास का जीवनकाल संवत् 1471 से 1597 है। उन्होंने यह 126 वर्ष का दीर्घकालीन जीवन अपनी अटूट योग और साधना के बल पर जीया।
संत रविदास जी का जीवन दर्शाता है कि शिक्षा का असली उद्देश्य केवल ज्ञान देना नहीं, बल्कि मानवता, समानता और भाईचारे की भावना का प्रसार करना है। उन्होंने अपने जीवन में देखा कि समाज में जातिवाद, ऊँच-नीच और भेदभाव था, और उन्होंने इसका विरोध किया। उनके उपदेशों में यह साफ था कि हर इंसान समान है, चाहे उसकी जाति या समाज का स्तर कुछ भी हो। संत रविदास जी का संदेश आज भी अत्यधिक प्रासंगिक है। हम आज भी जातिवाद, भेदभाव और असमानता से जूझ रहे हैं, और संत रविदास जी के विचार हमें इन बुराइयों से निपटने के लिए प्रेरित करते हैं। उन्होंने हमें यह सिखाया कि हम सभी के अंदर भगवान का निवास होता है, और हमें हर किसी से समान प्यार और सम्मान से पेश आना चाहिए। युवा पीढ़ी का यह कर्तव्य है कि हम संत रविदास जी के विचारों को अपनाकर एक ऐसा समाज बनाने की दिशा में काम करें, जहां भेदभाव, असमानता और नफरत की कोई जगह न हो। हमें उनके सिद्धांतों पर चलते हुए समाज में समरसता और भाईचारे को बढ़ावा देना है।

संत रविदास जी का सबसे बड़ा संदेश था- “जो लोग अपनी मेहनत और विश्वास से भगवान तक पहुँचते हैं, वही सच्चे भक्त होते हैं।” उन्होंने हमें यह सिखाया कि भक्ति का असली मतलब बाहरी पूजा-पाठ से नहीं, बल्कि अपने आचरण और विचारों से है। यह शिक्षा हमें अपने छात्रों को देने की आवश्यकता है, ताकि वे समाज में सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम हो सकें। संत रविदास जी ने समाज के प्रत्येक वर्ग को जागरूक किया कि वे अपनी मेहनत और ईमानदारी से ही अपने जीवन को बेहतर बना सकते हैं। उन्होंने न केवल भक्ति का संदेश दिया, बल्कि उन्होंने समाज में बदलाव लाने के लिए हर व्यक्ति को एकजुट करने का प्रयास किया। यह हमें यह समझने की आवश्यकता है कि सामाजिक संस्थाओं का असली उद्देश्य सिर्फ समाज सेवा करना नहीं, बल्कि हर व्यक्ति को समान अवसर और सम्मान देना भी है। संत रविदास जी का जीवन और उनके उपदेश यह दर्शाते हैं कि शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि यह विद्यार्थियों में मानवीय मूल्यों और समाज के प्रति जिम्मेदारी की भावना भी पैदा करनी चाहिए।
आइए, हम सभी संकल्प लें कि हम संत रविदास जी के जीवन और उनके उपदेशों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करेंगे। उनका जीवन और उनके कार्य हम सभी को यह सिखाते हैं कि सचमुच की भक्ति और मानवता का सही अर्थ क्या है।

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