गुरु गोविंद सिहं की 358 वाँ प्रकाश पर्व पर विशेष
●गुरु गोविंद सिहं धर्मात्मा और सदाचारी व्यक्ति थे
●गुरु गोबिंद सिंह अंधविश्वास के प्रबल विरोधी थे
●गुरु गोबिंद सिंह विद्वानों के संरक्षक थे
राकेश बिहारी शर्मा—-भारतीय धर्मों में सिक्ख धर्म का अपना विशेष योगदान रहा है। इस धर्म में ऐसे कई सम्प्रदाय और धर्मगुरु हुए हैं। जिनमें किसी सम्प्रदाय में गृहस्थ जीवन वर्जित था, तो किसी सम्प्रदाय में गृहस्थ जीवन कोई बाधक नहीं था। गृहस्थ जीवन का पालन करते हुए जिन लोगों ने अपने आदर्शों और विचारों से आध्यात्मिक उन्नति की, उनमें गुरु गोविंद सिहं का नाम सर्वोपरि है। वे सिक्खों के दसवें गुरु थे। गुरु गोविंद सिहं धर्मात्मा और सदाचारी व्यक्ति थे। उनका जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब देश में मुगलों का शासन था। सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक दृष्टि से मुगलों को छोड़ अन्य किसी जाति या धर्म को उतने अधिकार व स्वतंत्रता नहीं थी, जितनी कि मुगलों को थी। औरंगजेब तो अत्यंत निर्दयी, कट्टर तथा संकीर्णतावादी मुसलमान था। सभी धर्मों को मिटाकर वह मुसलमान बनाने पर तुला हुआ था। कई हिन्दुओं को तो उसने बलपूर्वक मुसलमान बना डाला था। धर्म की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहने वाले गुरु गोविंद सिंह जी ने दूसरों के जीवन में प्रकाश लाने और उनका कल्याण करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। गुरू गोबिंद सिंह की जयंती को विश्व भर में प्रकाश पर्व के नाम से भी जाना जाता है। प्रकाश पर्व पर सिख समुदाय के लोग भजन, कीर्तन, लंगर, अरदास आदि का आयोजन करते हैं।
गुरु गोबिंद सिंह का जन्म एवं पारिवारिक जीवन –
सिंखों के 10 वें गुरु गोबिंद सिंह का जन्म हिंदू पंचांग के अनुसार, पौष मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को हुआ था। इस वर्ष 2025 में पौष शुक्ल सप्तमी 6 जनवरी को पड़ रही है। गुरु गोबिंद सिंह का जन्म 22 दिसम्बर सन् 1866 में पटना बिहार में हुआ था। उनके पिता गुरु तेगबहादुर की जब शहादत हुई थी, तब वे दस वर्ष के थे। उन्होंने ही अपने पिता को कश्मीरी पण्डितों के लिए बलिदान हेतु प्रेरित किया था। पिता की मृत्यु के बाद उन्हें सिक्ख धर्म की गद्दी मिली। अपने धर्म की रक्षा के लिए उन्होंने सिक्ख धर्म को नये सिरे से संगठित करने का कार्य प्रारम्भ किया। वे स्वयं घुड़सवारी करते थे। तलवार भी चलाया करते थे। अत्यन्त वीर व साहसी थे। उन्होंने तो सिक्खों का एक सैनिक संगठन भी बना डाला। गुरु गोबिंद सिंह के अनुयायी तो अपने प्राणों का बलिदान देने के लिए हमेशा तत्पर रहते थे। उन्होंने हिन्दू धर्मशास्त्रों का भी गम्भीरतापूर्वक अध्ययन किया था। चण्डी चरित्र, चण्डी का वार आदि वीर रस से पूर्ण ग्रन्थ रचे । हिन्दू पुराणों की कथाओं को भी ओजपूर्ण भाषा में लिखा और सिक्ख धर्म की वाणी को भी जोशमय अभिव्यक्ति दी। निराशा से भरे हुए लोगों को आशा का सन्देश देने वाले उस गुरु ने विचित्र नाटक नामक पुस्तक भी लिखी, जिसमें उन्होंने यह लिखा कि- मैंने धर्मप्रचार हेतु संसार में जन्म लिया है।” उन्होंने धर्म प्रचार करते हुए जो शक्तिशाली पंथ चलाया, उसका नाम खालसा पंथ था, जिसका अर्थ होता है-शुद्ध। इस पथ के अनुयायियों को केश, कड़ा, कंधा, कच्छा व कृपाण इन पांचों को ग्रहण करना अत्यावश्यक माना गया है। इन्हें “ककार” भी कहा जाता है। इस पंथ के अनुयायी बहुत साहसी और बलिदानी रहते हैं। उनके पथ का सैनिक संगठन देखकर औरंगजेब घबरा गया। उसने गुरु गोबिंद सिंह पर आक्रमण की आज्ञा दी। कहा जाता है कि छह-सात साल तक तो उनके अनुयायी औरंगजेब का मुकाबला करते रहे, किन्तु एक युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह के दोनों पुत्र मारे गये। तथा दो पुत्रों को सूबेदार ने दीवार में चुनवा दिया। इसके बाद भी उनका साहस नहीं टूटा। उन्होंने औरंगजेब से कहा- ‘बच्चों को मारने से तुम्हें क्या मिला। मैं तो धर्म का प्रचार करता रहूंगा। तुम्हारी मौत कोई अच्छी मौत नहीं होगी।”
गुरु गोबिंद सिंह की शादी और पत्नियाँ
गुरु गोबिन्द सिंह की तीन पत्नियाँ हुई थीं। उनके विवाह के बारे में अलग अलग विचारधारा बताई गई है कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनकी पत्नी माता जीतो का ही नाम बदलकर माता सुंदरी रखा गया बल्कि कुछ इतिहासकारों के अनुसार उनकी तीनों शादियों का पता चलता है जिसके अनुसार उनकी पत्नी माता जीतो, माता सुंदरी तथा माता साहिब देवी थी। यही उनके बच्चों की बात करें तो उनके 4 पुत्र थे। माता जीतो से उनकी शादी बसंतगढ़ में 21 जून, 1677 को 10 साल की उम्र में हुई तथा उनके 3 पुत्र हुए जिनमें जोरावर सिंह, जुजार सिंह व फतेह सिंह। माता सुंदरी से उनका विवाह आनंदपुर में 1684 में हुआ तथा उनके एक पुत्र अजीत सिंह हुए। माता साहिब दीवान से भी आनंदपुरा में 1700 को विवाह किया तथा इनकी कोई संतान नहीं है।
गुरु गोबिंद सिंह का अंधविश्वास पर प्रहार
गुरु गोबिंद सिंह अंधविश्वास के प्रबल विरोधी थे। हिन्दू धर्म के अंधविश्वासों को दूर करने का उन्होंने सदैव प्रयास किया। इसी उदाहरण के रूप में एक घटना इस प्रकार है-एक पाखण्डी, अन्धविश्वासी पण्डित ने उन्हें सिक्खों की संगठन शक्ति बढ़ाने हेतु यज्ञ कराने को कहा, जिससे देवी प्रकट होकर आशीर्वाद देंगी। गुरु ने यज्ञ करवाया, किन्तु देवी प्रकट न हुईं, तो पाखण्डी पण्डित ने उन्हें बलि देने के लिए एक व्यक्ति को तैयार करने हेतु कहा। तो गुरु जी ने उससे कहा- “तुम्हारे जैसे पवित्र आदमी की पाकर तो देवी अवश्य ही प्रसन्न होंगी। तुम अपनी बलि दे दो।” पण्डित गिड़गिड़ाने लगा। गुरु ने उसे इस प्रकार की बलि हेतु प्रेरित करने से दूर रहने को कहा। देवी अच्छे कामों से प्रसन्न होती हैं न कि बलि देने जैसे घृणित कर्म से, यह उनका सन्देश था।
गुरु गोबिंद सिंह जी की शादियां और बच्चे
गुरु गोबिंद सिंह की तीन पत्नियां थी उनका पहला विवाह मात्र 10 साल की उम्र में माता जीतो के साथ हुआ यह विवाह 21 जून, 1677 को आनन्दपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में किया गया। गुरु गोविंद सिंह जी के चार बच्चे थे जो उनके जीवनकाल के दौरान ही मारे गए जिन्हें चार साहिबजादे नाम से पुकारा जाता है। इनके चार बेटों में अजीत सिंह, जोरावर सिंह, जुझार सिंह फतेह सिंह था। माता जीतो और गुरु गोबिंद सिंह जी के तीन पुत्र हुए जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फ़तेह सिंह। उनका दूसरा विवाह 17 साल की उम्र में माता सुंदरी से हुआ 4 अप्रैल 1684 को ये विवाह आनंदपुर में हुआ जिनसे उनको अजीत सिंह नाम का एक पुत्र हुआ। 15 अप्रैल 1700 को 33 वर्ष की आयु में उन्होंने माता साहिब देवन से विवाह किया और उनसे उनको कोई संतान नहीं हुई।
गुरु गोबिंद सिंह जी के प्रमुख आदर्श गुण
लोगों को नैतिकता के गुण सिखाना, साधारण मनुष्य में आध्यात्मिक आनंद को बांटना, डरे हुए व भयभीत लोगों को पराक्रमी व निडर बनाना यह सारे गुण प्रमुख रूप से गुरु गोविंद सिंह जी में विद्यमान थे। गुरु गोविंद सिंह जी को पंजाबी, संस्कृत, अरबी तथा फारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त था। वे सहनशीलता, क्षमा तथा शांति के प्रतिक मुरत है। गोविंद सिंह जी के पास एक नीला घोड़ा होने के कारण उन्हें नीले घोड़े वाला भी कहते थे। वे संगीत में विशेष रूचि रखते वे एक उत्कृष्ट कवि थे साथ ही लोगों का कहना है कि “ताऊस और दिलरुबा” वाद्य यंत्रों का आविष्कार भी उन्होंने ही किया। सभी सिख गुरुओं के उपदेशों का संग्रहण कर गुरु ग्रंथ साहिब नामक पुस्तक में जोड़कर उसे गोविंद सिंह जी ने ही पूर्ण किया।
गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा योद्धाओं के लिए ख़ास नियम बनाये थे। गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा योद्धाओं के लिए कुछ खास नियम बनाए थे। उन्होंने तम्बाकू, शराब, हलाल मांस से परहेज और अपने कर्तव्यों को पालन करते हुए निर्दोष व बेगुनाह लोगों को बचाने की बात कही थी।
गुरु गोविंद सिंह द्वारा लड़े गये प्रसिद्ध चमकोर युद्ध
गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंत की रक्षा के लिए अपने जीवनकाल में कई बार मुगलों का सामना किया था। गुरु गोविंद सिंह जी के सिर्फ 40 लड़ाकू सैनिकों ने मुगल शाही सेना के पूरे 10 लाख सैनिकों का सामना किया इस चमकौर के युद्ध में उनके दो पुत्र अजीत सिंह, जुझार सिंह दोनों शहीद हो गए उनकी माता का स्वर्गवास भी इसी समय हो गया तथा 1707 के इस चमकोर युद्ध के बाद इनके पुत्र जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह को जिंदा ही दीवार में चुनवा दिया गया।
गुरु गोविंद सिंह ने अपने जीवन में कई लड़ाइयां लड़ीं जिनमें- भांगानी की लड़ाई, नंदोन की लड़ाई, गुलेर की लड़ाई, आनंदपुर की प्रथम लड़ाई, आनंदपुर साहिब की लड़ाई, बसोली की लड़ाई, निर्मोहगढ़ की लड़ाई, सरसा की लड़ाई, आनंदपुर की लड़ाई, चमकोर युद्ध प्रमुख है।
गुरु गोबिंद सिंह जी विद्वानों के संरक्षक थे। इसलिए उन्हें ‘संत सिपाही’ भी कहा जाता था। उनके दरबार में हमेशा 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति रहती थी। गुरु गोबिंद सिंह स्वयं भी एक लेखक थे, अपने जीवन काल में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी। गुरु गोविंद सिंह की मुख्य रचनाओं में अकाल उस्तत, जाप साहिब, जफरनामा, खालसा महिमा, बचित्र नाटक, अंतिम जीवित गुरु।
गुरु गोविंद सिंह सिक्खों के दसवें तथा अंतिम जीवित गुरु थे जब गुरु गोविंद सिंह जी का अंतिम समय निकट आने लगा तब ही उन्होंने संगत बूलाई और सिख की धार्मिक पुस्तक गुरु ग्रंथ साहिब को सिखों के गुरु की गद्दी पर स्थापित कर दिया। उन्होंने सभी से कहा कि अब इस गद्दी पर कोई जीवित व्यक्ति नहीं बैठेगा और यह भी कहा कि आने वाले समय में गुरु ग्रंथ साहिब पुस्तक से ही सीख समाज को प्रेरणा तथा मार्गदर्शन लेना होगा।
गुरु गोबिंद सिंह की मृत्यु
औरंगजेब की मृत्यु के बाद बहादुर शाह हिंदुस्तान के नए बादशाह बन गए बहादुर शाह को यह गद्दी दिलाने में गुरु गोविंद सिंह जी ने पूर्ण रूप से सहायता प्रदान की इसी कारण से वे मित्रतापूर्ण व्यवहार करने लगे। गुरु गोविन्द सिंह जी तथा हिंदुस्तान के नए बादशाह के मैत्रीपूर्ण भाव से घबराकर सरहिंद के नवाब वजीर खान ने 1708 में अपने दो पठानों वासिल बेग व जमशेद खान को गोविंद सिंह जी की हत्या करने भेज दिया। उन्होने गोविन्द सिंह जी के दिल के नीचे एक घाव कर दिया जिसका कुछ समय इलाज भी चला परंतु नांदेड़ में 7 अक्टुबर 1708 को उनका निधन हो गया। गुरू गोविंद सिंह जी के एक हत्यारे को तो उन्होंने हि कटार से मार डाला और दूसरे हत्यारे को सिक्ख समाज ने मार डाला।
गुरु गोविन्दसिंह ने जिन पांच पुरुषों को बलि की परीक्षा हेतु तैयार किया था. वे उसमें सफल रहे, जो बाद में “पंचप्यारे” कहलाये। उन्होंने प्रत्येक सिक्ख को अपने नाम के साथ “सिंह” जोड़ने को कहा, ताकि सिंह के समान शक्ति का अहसास हो जाति-पांति से परे एक ऐसे समानतावादी धर्म की उन्होंने कल्पना की थी, जो सच्चा मानव धर्म कहलाये। गुरु गोविन्दसिंह ने कहा था-“मेरे बाद कोई गुरु नहीं होगा, क्योंकि ईश्वर ही सच्चा गुरु है।”