Friday, August 8, 2025
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● भारत के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी तिलका मांझी थे प्रस्तुति :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव साहित्यिक मंडली शंखनाद वैसे तो दुनिया का पहला आदिवासी-विद्रोही रोम के पूर्वज आदिवासी लड़ाका ‘स्पार्टाकस’ को माना जाता है। भारत के औपनिवेशिक युद्धों के इतिहास में पहला आदि-विद्रोही होने का श्रेय पहाड़िया आदिम आदिवासी समुदाय के लड़ाकों को जाता हैं जिन्होंने राजमहल, झारखंड की पहाड़ियों पर अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लिया। इन पहाड़ी लड़ाकों में सबसे लोकप्रिय आदिविद्रोही जबरा या जौराह पहाड़िया उर्फ़ ‘तिलका मांझी’ हैं। इन्होंने अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध एक लम्बी लड़ाई छेड़ी थी।भारत की धरती से आजादी के कई परवाने पैदा हुए हैं, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपनी जिंदगियां दाव पर लगा दीं। उनमें से एक हैं तिलका मांझी। आजादी के रणबांकुरों की लड़ाई और प्रथम स्वाधीनता संग्राम की बात करें तो हमारे जेहन 1857 का गदर, रानी लक्ष्मीबाई, मंगल पांडे और तात्याटोपे का बलिदान आकार लेने लगता है, लेकिन आज के जमाने में कम लोग ही जानते होंगे कि भारत भूमि के इस पावन माटी से अंग्रेजों को खदेड़ देने का अभियान इससे भी कई साल पहले शुरू हो चुका था।भारत की आजादी की कहानी जब-जब सुनी और पढ़ी जाएगी, तो इसमें तिलका मांझी का भी जिक्र जरूर आएगा। तिलका मांझी उन रणबांकुरों में शामिल हैं जिन्होंने उस समय स्वाधीनता संग्राम की शुरुआत की जब लोगों को अहसास ही नहीं था कि वे गुलामी की किस दलदल में फंसते जा रहे हैं। स्वतंत्रता संघर्ष के बीज सबसे पहले वीर तिलका ने ही बोये थे। जिस समय ब्रिटिश सल्तनत, साम-दाम, दंड भेद की नीति अपनाकर भारत के चप्पे-चप्पे पर अपना व्यापारिक राज्य बढ़ा रही थी। उस समय बिहार के जंगलों में कोई था जो उनके खिलाफ आंधी बहा रहा था।साहित्यिक मंडली शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार व साहित्यकार डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह के अनुसार इतिहास में तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी के रूप में स्थान मिलना चाहिए था। उनकी भूमिका का सही मूल्यांकन नहीं किया है। भारत के प्रथम महान स्वतंत्रता सेनानी वीर क्रांतिकारी तिलका मांझी के बारे में बताते हुए कहा कि क्रांतिकारी तिलका मांझी का जन्म 11 फरवरी, 1750 को बिहार के सुल्तानगंज के ‘तिलकपुर’ नामक गांव में एक संथाल परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ‘सुंदरा मुर्मू’ था। तिलका मांझी का असली नाम जबरा पहाड़िया था। तिलका मांझी नाम तो उन्हें ब्रिटिश सरकार ने दिया था। पहाड़िया भाषा में तिलका का अर्थ है गुस्सैल यानी लाल-लाल आंखों वाला व्यक्ति। चूंकि वे ग्राम प्रधान थे और पहाड़िया समुदाय में ग्राम प्रधान को मांझी कहकर पुकारने की प्रथा है। उनका ज्यादा जीवन गांवों और जंगलों में कटा था। वो धनुष-बाण चलाने और जंगली जानवरों का शिकार में प्रवीण थे। कसरत-कुश्ती, बड़े-बड़े पेड़ों पर चढ़ना-उतरना, जंगलों में बेधड़क घूमना उनका रोजाना का काम था। वो निडर और वीर थे। वे जब युवा हुए तो उन्होंने परिवार तथा जाति पर अंग्रेज़ी सत्ता का अत्याचार होते देखा। वहां पर बसे पर्वतीय सरदार अपनी जमीन और खेती को बचाने के लिए अंग्रेजों से लड़ते रहते थे। ज़मींदार अंग्रेज़ी सरकार के साथ मिले हुए थे।आखिरकार जब तिलका मांझी को लगा कि अंग्रेजों का अत्याचार कुछ ज्यादा ही हो गया है तो उन्होंने “बनैचारी जोर” नाम की जगह उनके खिलाफ विद्रोह शुरू किया। धीरे-धीरे आदिवासी विद्रोही फैलने लगा। अंग्रेजों ने क्लीव लैंड को मजिस्ट्रेट बनाकर वहां हालात को काबू करने भेजा। गरीब आदिवासियों की जल जंगल और जमीन पर अंग्रेज़ी शासक अपना अधिकार किये हुए थे। तिलका मांझी अपने समर्थकों के साथ मिलकर अंग्रेजों से लगातार संघर्ष करते हुए लड़ाई लड़ते रहे।तिलका मांझी जंगल, तराई और गंगा, ब्रह्मी और अन्य नदियों की घाटियों में अपने लोगों के साथ अंग्रेज़ी सरकार के सैनिक अफसरों के साथ संघर्ष करते रहे। ये लड़ाई मुंगेर से लेकर भागलपुर और संथाल तक फैली हुई थी। जगह जगह छिपकर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध लड़ा जा रहा था। लड़ाई के साथ तिलका अपनी जगह भी बदल रहे थे। वर्ष 1771 से 1784 तक तिलका मॉझी ने अंग्रेजों के हर उस प्रयास को विफल किया जिसमें अंग्रेज किसी न किसी तरह बस भागलपुर और राजमहल पर पुर्णरुपेण कब्जा चाहते थे और इसी चाहत में एक तरफ अंग्रेजों के जुल्मोसितम बढ़ते गये तो दुसरे तरफ तिलका मॉझी की अंग्रेजी सेनाओं द्वारा की जा रही बर्बरता के खिलाफ लड़ाई लड़ीं। क्रांतिकारी तिलका मांझी ने प्रसिद्ध ‘आदिवासी विद्रोह’ का नेतृत्त्व करते हुए अंग्रेजों से लम्बी लड़ाई लड़ी तथा 1778 ई. में पहाडिय़ा सरदारों से मिलकर रामगढ़ कैंप को अंग्रेजों से मुक्त कराया। अंग्रेजों के फौज तोपों और बंदूकों से लैस थी, जबकि तिलका मांझी की सेना के हथियार के मात्र तीर-धनुष ही थे, फिर भी ब्रिटिश सेना को मुंह की खानी पड़ी। फिर भी 1784 में तिलकामांझी ने राजमहल के मजिस्ट्रेट क्लीवलैंड को मार डाला। इसके बाद आयरकुट के नेतृत्व में तिलकामांझी की गुरिल्ला सेना पर जबरदस्त हमला हुआ, जिसमें उनके कई लड़ाके मारे गए।हमारे भारत मे विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध यदि हमारे वीर तिलका जैसे हजारों यौद्धाओं की गाथाएँ भरी पड़ी है तो जयचंदों की भी कमी नहीं रही। तिलका मांझी की वीर गाथा मे भी एक जयचंद आता है जिसका नाम था सरदार जाऊदाह। एक रात तिलका माँझी और उनके क्रांतिकारी साथी जब एक पारंपरिक उत्सव में नृत्या-गान कर रहे थे, तभी अचानक इस गद्दार सरदार जाउदाह ने अंग्रेजों के साथ आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए आक्रमण से तिलका माँझी तो बच गये, किन्तु उनके अनेक देशभक्त साथी वीरगति को प्राप्तर हुए व कई क्रांतिकारियों को बन्दी बना लिया गया। वीर तिलका माँझी वहां से वीरतापूर्वक संघर्ष करके बच निकले व भागकर सुल्तानगंज के पर्वतीय अंचल में शरण ली। भागलपुर से लेकर सुल्तानगंज व उसके आसपास के पर्वतीय इलाकों में अंग्रेजी सेना ने उन्हें पकड़ने के लिए जाल बिछा दिया। मैदानी क्षेत्रों मे संघर्ष की अभ्यस्त रही वीर तिलका की सेना को पर्वतीय क्षेत्र मे संघर्ष का अभ्यास ही नहीं था। फलस्वरूप उसे अपार कष्ट व अनेकों प्रकार की हानि होने लगी। पर्वतीय क्षेत्र मे अन्न व अन्य संसाधनों का भी अभाव होने लगा। इस परिस्थिति मे वीर तिलका छापामार पद्धति से अंग्रेजों को छ्काते परेशान करते रहे थे। अत्यंत कष्टपूर्ण परिस्थितियों मे व अत्यल्प संसाधनों से इस प्रकार दीर्घ समय तक संघर्ष संभव ही नहीं था। इसी प्रकार के एक संघर्ष मे जब उन्होने वारेन हेस्टिंग्ज़ की सेना पर अपनी संथाल जाति के बंधुओं के साथ प्रत्यक्ष हमला किया। इस संघर्ष मे वारेन हेस्टिंग्ज़ की विशाल व साधन सम्पन्न सेना के सामने वीर तिलका के मुट्ठी भर साधनहीन संथाल बंधु टिक नहीं पाये व पकड़ लिए गए। अंग्रेजों का घेराव बढ़ते जाने से दिक्कतें बढ़ने लगीं। उनकी सेना के लोगों को भूखों मरने की नौबत आने लगी। इसके बाद उनके हौसले कम नहीं हुए। जब उन्होंने एक जगह अंग्रेज़ी सेना पर छापामार हमला बोला तो उन्हें घेर लिया गया। वो पकड़े गए।वो पहले शख्स थे, जिन्होंने भारत को ग़ुलामी से मुक्त कराने के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाई। भले ही आपको आजाद भारत के इतिहास में तिलका मांझी के योगदान का कोई ख़ास उल्लेख न मिले, पर समय समय पर कई इतिहासकारों व साहित्यकारों ने उन्हें ‘प्रथम स्वतंत्रता सेनानी’ होने का सम्मान दिया है। वर्ष 1784 में अंग्रेजो के चंगुल से भागलपुर को आजाद कराने के लिये तिलका मॉझी ने भागलपुर पर हमला कर दिया और इलाके में पाये जाने वाले ताड़ के पेड़ पर चढ़कर घोड़े पर सवार भागलपुर के अंग्रेज कलेक्टर को मार गिराया था। अब तक के किसी भारतीय द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ इस तरह के सबसे बड़े दुस्साहस से सन्न पड़ी ब्रिटिश हुकुमत ने तिलका मॉझी को जिंदा या मुर्दा किसी भी हालत में लाने का फरमान सुनाया। इसके बाद ब्रिटिश सरकार तिलमिला गई। उसने एक बड़ी फौज लेकर भागलपुर की उस पहाड़ी को घेर लिया, जहां तिलका मांझी साथियों के साथ अंग्रेजों से युद्ध की योजनाएं बनाया करते थे। तिलका मांझी और उनके साथियों ने ब्रिटिश सेना से जमकर संघर्ष किया। इस लड़ाई में लगभग 300 वनवासी शहीद हो गए, जिनमें तिलका के परिवार के लोग भी थे। अंत में ब्रिटिश फौज ने तिलका मांझी को धोखे से गिरफ्तार कर लिया और उन्हें यातनाएं दीं। इस विषमता भरे युद्ध मे भी अंग्रेज़ वीर तिलका को धोखे व छल से ही पकड़ पाये थे। वीर तिलका को पकड़कर उन्हे अमानवीय यातनाएं देना प्रारंभ की गई। वीर योद्धा तिलका मांझी को कैद कर लिया और उन्हें अंग्रेजों ने एक दो नहीं बल्कि चार-चार घोड़े से बॉधकर पहाड़ियों से घसीटकर भागलपुर शहर के बीचोबीच चौराहे पर स्थित एक विशाल बरगद के पेड़ से लटका कर 13 जनवरी 1785 को फांसी दे दी। आज वह चौक तिलका मॉझी चौक कहलाता है और उसी बरगद के पेड़ के पास क्रातिकारी शहीद तिलका मांझी की आदमकद प्रतिमा लगी है लेकिन हम याद भी उन्हे सिर्फ या तो उनके पुण्य तिथि को या जन्म दिन के ही दिन करते हैं। मेरे लिये खुशी और गर्व की बात है कि हम वीर क्रांतिकारी तिलका मांझी की मिट्टी बिहार के हैं। तिलका मांझी इतिहास की किताबों से भले ही ग़ुम हैं लेकिन आदिवासी समाज में आज भी क़ायम हैं. आदिवासी समुदाय में उन पर कहानियां कही जाती हैं, संथाल उन पर गीत गाते हैं। 1831 का सिंगभूम विद्रोह, 1855 का संथाल विद्रोह सब तिलका की जलाई मशाल का ही असर है। 1857 के सिपाही विद्रोह से लगभग डेढ़ सौ साल पहले आंदोलन का बिगूल फूंकने वाले तिलका मांझी को इतिहास में स्थान नहीं दी गई।
तिलका मांझी ने फांसी पर चढ़ने से पहले गीत गाया था “हांसी हांसी चढ़बो फांसी”। यह आने वाले कई आंदोलनों के लिए प्रतीक बन कर उभरा। आज भी देश की एक बड़ी आबादी तिलका और उसके योगदान से परिचित नहीं है। अधिकांश पाठ्यक्रमों में इनका उल्लेख भी नहीं मिलता। तिलका की उपेक्षा के पीछे सबसे बड़ा कारण यह माना जा सकता है कि उनका विद्रोह अंग्रेज़ों के साथ ही साथ उनके साथ मिलकर आदिवासियों के प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने में जुटे हुए देसी महाजनों और जमींदारों के विरुद्ध भी था। ऐसे में सत्ता पर काबिज दोनो ही वर्गों ने तिलका के बलिदान को पुस्तकों में नहीं आने दिया।

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