राकेश बिहारी शर्मा – मगध साम्राज्य का इतिहास, भारत का स्वर्णिम इतिहास रहा है। भारतवर्ष का राष्ट्रनायक, वसुधैव कुटुम्बकम् के जनक, महान मानवतावादी, जनमानस के दिलों में राज करने वाले विश्व विजेता चक्रवर्ती सम्राट अशोक, मौर्य वंश का लोकप्रिय शासक था। जिसका युद्ध के बाद हृदय परिवर्तन हुआ और युद्ध छोड़, शांति का रास्ता अर्थात बुद्ध को अपनाया। इसके बाद उसने अपने साम्राज्य के हर कोने में शिलालेखों, स्तंभलेखों सहित अन्य अभिलेखों के माध्यम से सामान्य जनों को नैतिक के अलावे जीवन की बेहतरी की शिक्षा दी। मुख्य मार्ग व अन्य प्रमुख जगहों पर अभिलेख उत्कीर्ण मिले हैं। यही नहीं सामान्य जनों को दी जाने वाली सुविधाओं की भी जानकारी दी। उसके अभिलेखों से राजपद की मर्यादा, आदर्श और विदेश नीति की भी जानकारी मिलती है।
सम्राट अशोक का जीवन एवं उपलब्धियां
सम्राट अशोक प्राचीन भारत के मौर्य सम्राट बिंदुसार का पुत्र और चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र था। जिसका जन्म लगभग 304 ई. पूर्व में चैत्र शुक्ल पक्ष अष्टमी को माना जाता है। उसकी माता का नाम शुभ्रदांगी था। उसके सौतेले भाई का नाम सुसीम था, जो अशोक से बड़ा था। अन्य भाइयों में अशोक ही सबसे बड़ा था। उसके सगे भाई का नाम विगतशोक तथा छोटे भाई का नाम तिष्य था। राजा बिन्दुसार की 16 रानियां और उनसे 101 पुत्र थे। बिन्दुसार की मृत्यु के बाद अशोक शासक बना। जैन जनश्रुति के अनुसार- अशोक ने बिन्दुसार की इच्छा के विरुद्ध मगध के शासन पर अधिकार कर लिया था। अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई० पू० हुआ। राज्याभिषेक से पहले अशोक उज्जैन का राज्यपाल था। अशोक की अनेक पत्नियां थीं। उनमें से एक विदिशा के एक श्रेष्ठि देव की कन्या महादेवी थी। वह शाक्य वंशीय थी। महेन्द्र और संघमित्रा इसी पत्नी से उत्पन्न हुए थे। जिन्होंने सिंहलद्वीप में बौद्ध धर्म के प्रचार में अशोक की सहायता की थी।
अशोक की दूसरी पटरानी का नाम राजकुमारी असंधिमित्रा था। उसकी मृत्यु के 4 वर्षों बाद तिष्यरक्षिता अशोक की पटरानी बनी। अशोक का एक पुत्र कुणाल पद्मावती नामक पत्नी का पुत्र था। अशोक की अन्य पत्नी कालूवाकि से तिवर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। अशोक बचपन से अत्यन्त उद्दण्ड और कुरूप था। अपने पिता का कभी भी वह स्नेहभाजन नहीं बन सका। बिन्दुसार का समस्त स्नेह ज्येष्ठ एवं रूपवान पुत्र सुसीम पर था। बिन्दुसार ने सभी पुत्रों के लिए उचित शिक्षा की व्यवस्था की थी। अशोक अपने सभी भाइयों में योग्य, प्रतिभाशाली तथा महत्त्वाकांक्षी था। शासन तथा सैनिक शिक्षा में वह बहुत ही प्रवीण था। पिता के जीवनकाल में ही वह तक्षशिला और उज्जैन का शासक था। अशोक की योग्यता के कारण उसका भाई सुसीम उसके प्रति ईर्ष्या भाव रखा करता था। अशोक ने मन्त्री खल्लाटक को अपने पक्ष में कर लिया था, क्योंकि वह भी सुसीम का विरोधी था। खल्लाटक ने जब 500 अमात्यों के साथ तक्षशिला में विद्रोह करवा दिया, तब बिन्दुसार ने इसके दमन के लिए सुसीम को वहां भेजा। सुसीम की असफलता के बाद अशोक को वहां भेजा गया, किन्तु अशोक झूठी बीमारी का बहाना बनाकर पाटलिपुत्र में ही रमा रहा। इसी बीच अस्वस्थ बिन्दुसार की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के उपरान्त अमात्यों ने अशोक को सम्राट स्वीकार कर लिया और राधागुप्त को प्रधानमंत्री बना दिया। पिता की मृत्यु और अशोक के सिंहासन प्राप्ति का समाचार पाकर सुसीम राजधानी आया, परन्तु अशोक द्वारा नियोजित अग्निगर्भा खाई में गिरने की वजह से उसकी मृत्यु हो गयी।
सम्राट अशोक के शासन का महत्वपूर्ण विभाग सेना विभाग था
अशोक के शासन का एक महत्वपूर्ण विभाग सेना विभाग था, जो 6 समितियों 5 विभागों के आधीन था। उसकी स्थायी सेना में पैदल, रथ, अश्व, हाथी, नौ सेना के साथ-साथ युद्ध सामग्री यातायात हेतु एक समिति हुआ करती थी।
सेनापति सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। सम्राट न्याय-प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी था। न्याय के लिए अनेक न्यायालय हुआ करते थे, जिसमें नीचे स्तर पर ग्राम न्यायालय, जहां ग्रामीणी तथा ग्राम वृद्ध निर्णय देकर अपराधियों से जुर्माना वसूलते थे।
नगरीय स्तर पर नगराध्यक्ष हुआ करते थे। पाटलिपुत्र केन्द्रीय न्यायालय हुआ करता था। अशोक ने सोने, चांदी तथा तांबों के सिक्कों का प्रचलन करवाया था। अशोककालीन वास्तुकला और मूर्तिकला के उदाहरण कम मिलते हैं। अशोक ने स्तूप निर्माण को विशेष प्रोत्साहन दिया। उसने 84 हजार स्तूप बनवाये थे। सांची और भरहुत के स्तूपों का निर्माण भी उसने ही करवाया। उस काल में स्तम्भों पर सिंह व बैल की आकृति के साथ-साथ चमकीली पॉलिश का काम देखने को मिलता है। स्तम्भ एक ही पत्थरों से निर्मित है, जिस पर इरानी और यूनानी कला का प्रभाव देखने को मिलता है। सारनाथ के स्तम्भ में धर्म-चक्र की कल्पना भारतीय है।
सम्राट अशोक का साम्राज्य बहुत विशाल था
सम्राट अशोक का साम्राज्य उत्तर-पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत तक, उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण-पूर्व में कलिंग तक फैला हुआ था। यह उस समय तक का सबसे बड़ा भारतीय साम्राज्य था। सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। अशोक ने राज्याभिषेक के 8वें वर्ष में कलिंग विजय की थी तथा 9वें वर्ष में बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। इसके बाद उसने बौद्ध धर्म के प्रचार हेतु धर्म-यात्राएं प्रारम्भ की। धार्मिक प्रदर्शन, धार्मिक उपदेश के साथ-साथ धर्म-विभाग की स्थापना की। अहिंसा का प्रचार करते हुए पशु-पक्षियों की हत्या पर प्रतिबन्ध लगवा दिया। पशुओं के लिए चिकित्सालय बनवाने वाला वह पहला सम्राट था। अशोक ने धर्म-विभाग की स्थापना की। दान-व्यवस्था, रोगी तथा दीन दुखियों के लिए कायम की। धर्म सम्बन्धी उपदेश अभिलेख तथा लिपियों में शिलाओं, गुफाओं तथा स्तम्भों पर अंकित करवाये।
सम्राट अशोक का व्यक्तित्व लोकहितकारी एवं आदर्श था
अशोक का व्यक्तित्व मानवीय गुणों से युक्त, उदार, लोकहितकारी, धर्म सहिष्णु, कर्तव्यनिष्ठ, अहिंसावादी आदर्शों से युक्त था। महान् योद्धा व महान् विजेता होते हुए वह एक सहृदय सम्राट था। बौद्ध धर्म ग्रहण करते ही उसके साम्राज्य का पतन, प्रान्तीय गवर्नरों के अत्याचार, प्रजा के विद्रोह, उसकी अहिंसात्मक नीति, केन्द्रीय शासन के दुर्बल होने, निर्बल एवं अयोग्य उत्तराधिकारियों के होने, दरबारी षड्यन्त्रों के कारण होता चला गया। अशोक धर्म प्रचार में ही लगा रहा। इधर शकों का आक्रमण भी हुआ। 232 ई० पूर्व में अशोक की मृत्यु के बाद उसके पुत्र कुणाल ने 8 वर्ष बाद तक शासन किया।
कुणाल के पश्चात् दशरथ ने 8 वर्ष तक शासन किया। दशरथ के पश्चात सम्प्रति, शालिशुक, देववर्मन व शतधनुष शासक हुए। उनके पश्चात् वृहद्रथ शासक बना, जो मौर्य साम्राज्य का अन्तिम शासक था। बृहद्रथ के सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने उसकी दुर्बलता का लाभ उठाकर 184 ई० पू० में उसकी हत्या कर दी तथा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया।
सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म प्रचार के लिए धर्म-विजय आयोजन किया
बौद्ध धर्म प्रचार के लिए सम्राट अशोक ने धर्म-विजय का आयोजन किया। उसने इसका प्रचार एशिया, यूरोप, अफ्रीका के द्वीपों के साथ-साथ भारत के भीतर तथा उसके सीमावर्ती देशों में किया। और बौद्ध धर्म की ध्वजा राजकुमार महेन्द्र तथा राजकुमारी संघमित्रा ने भिक्षु और भिक्षुणी के रूप में फहरायी। उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकारते हुए हजारों महाविहार बनवाया। अशोक ने जनहितार्थ अनेक कार्य किये, जिनमें-पक्की सड़कों का निर्माण, छायादार वृक्ष, विश्रामगृह, कुएं खुदवाए, दान-शालाएं खुलवायीं। पशु-वध पर रोक, आम, वट के वृक्षों के साथ-साथ जड़ी-बूटियों और ओषधियों के वृक्ष लगवाये।
बिहार में मिले हैं कई अभिलेख
अशोक के दो लघु शिलालेख, 14 वृहद शिलालेख, 07 स्तंभ लेख, तीन गुफा लेख, चार लघु सतंभलेख, दो स्मारक स्तंभ लेख मिले हैं। इन अभिलेखों के कई संस्करण अलग-अलग जगहों पर उत्कीर्ण करवाए गए हैं। उसके शिलालेख ब्राह्मी लिपि में लिपिबद्ध हैं, जो पाकिस्तान के शाहबाजगढ़ी एवं मानसहरा के अभिलेख हैं। उसकी लिपि खरोष्ठी है।
तीन गुफा अभिलेख बराबर की पहाड़ियों में आजीवक संप्रदाय के साधुओं के वर्षावास को दान का उल्लेख है। स्तंभ लेख लौरिया नंदनगढ़, लौरिया अरेराज व रामपुरवा में, लघु शिलालेख सासाराम में मिली है। सासाराम के अभिलेख में सम्राट अशोक के जीवन में बदलाव अर्थात बौद्ध धर्म स्वीकारने की जानकारी दी गई है। बिहार के स्तंभ अभिलेख मगध-नेपाल राजकीय मुख्य मार्ग पर लगाए गए थे।
शिलालेख में राजपद के आदर्श है
सम्राट अशोक ने अपने छठे शिलालेख में कहा है- चाहे मैं भोजन करूं, सो रहा हूं, उद्यान में रहूं, मेरे राज्य के अधिकारी जनता की बात मुझ तक हर समय पहुंचा सके, ऐसी व्यवस्था का निर्णय लिया है। जनता की सेवा को हर क्षण तैयार हूं। मुझे जनता के हित के कार्य प्रयत्नपूर्वक करना है, तभी ऋण से मुक्ति संभव है। कलिंग शिलालेख में कहा है- जैसे मैं चाहता हूं कि मेरी संतान सुख-वैभव भोगे, वैसे ही मेरी कामना है कि सभी लोग सुख और आनंद उठाएं। जिन लोगों के अपराध ज्यादा नहीं हैं, उनके दंड को कम करो।
सम्राट अशोक ने शिलालेख के माध्यम से नैतिक मूल्यों को बढ़ाया
सम्राट अशोक ने दूसरे शिलालेख में कहा है- माता-पिता की आज्ञा अवश्य मानना चाहिए, जीव मात्र का सम्मान होना चाहिए, सत्य बोलना चाहिए, गुरूजनों का सम्मान होना चाहिए और संबंधियों के प्रति सहानुभूति होना चाहिए। सातवें शिलालेख में कहा गया है- इंद्रिय संयम जरूरी है, कृतज्ञता, दृढ़ भक्ति और मन की पवित्रता जरूरी है। 13वें शिलालेख में कहा है- माता-पिता और वयोवृद्धों व गुरूओं की ओर ध्यान देना चाहिए। मित्र, साथी, परिचित संबंधी, दास और नौकर सभी के प्रति दृढ़ भक्ति और उचित व्यवहार जरूरी है।
सम्राट अशोक का निधन
इस बात का विवरण सही-सही नहीं मिलता है कि अशोक के कर्मठ जीवन का अंत कब, कैसे और कहाँ हुआ। लेकिन इतना प्रमाण मिलता है की अशोक अपने अंतिम शासनकाल में बीमार थे और पाटलिपुत्र, अब पटना में 72 वर्ष की आयु में एक सम्राट की तरह मृत्यु हो गई, जिसने बौद्ध धर्म के माध्यम से दान और कई परोपकारी कार्यों से लोगों के जीवन में बदलाव किया। तिब्बती परम्परा के अनुसार उसका देहावसान तक्षशिला में हुआ। सिंहली इतिहास ग्रंथों के अनुसार तीसरी संगीति अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में हुई थी। वह चाहते थे कि उनका बेटा महिंदा उनका उत्तराधिकारी बने लेकिन उन्होंने बौद्ध धर्म के मार्ग पर चलने और एक भिक्षु के रूप में जीवन जीने के लिए इसे अस्वीकार कर दिया। और उनकी पत्नी कमला का पुत्र संप्रति, ताज के लिए बहुत छोटा था। यह अशोक के पोते दशरथ मौर्य थे जो उनके उत्तराधिकारी बने।
सम्राट अशोक भारत का आदर्श शासक था
सम्राट अशोक भारत का एक ऐसा शासक था, जिसने अपने राजनैतिक आदर्शों का जीवन-भर पालन किया। भारत के इतिहास में उसका नाम लब्धप्रतिष्ठित सम्राटों में अग्रगण्य है। वह एक महान् विजेता, महान् धर्मतत्ववेत्ता, राष्ट्रनिर्माता, आदर्शवादी, कला तथा साहित्य का महान् उन्नायक, भावुक एवं पश्चातापी महान् शासक था। अपने सुसंगठित, राजनैतिक शासन प्रबन्ध के कारण वह चक्रवर्ती सम्राट के रूप में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। अपनी धार्मिक नीति में धर्म सहिष्णुता, उदारता एवं लोकहित में किये गये कार्यों के कारण वह इतिहास का लोकप्रिय सम्राट था। एच०जी० वेल्स ने लिखा है- “इतिहास के पृष्ठों को रंगीन बनाने वाले सहस्त्रों राजाओं के नाम के मध्य अशोक का नाम सर्वोपरि नक्षत्र के समान दैदीप्यमान रहेगा।”
सम्राट अशोक ने जीवन में बुद्ध के सिद्धांतों और जीवाधिकार को लागू किया
लेनिन ने राजनीति में मार्क्स के सिद्धान्तों को लागू किया और सम्राट अशोक ने राजनीति में बुद्ध के सिद्धांतों को लागू किया। मानवाधिकार की बात छोड़िए, जीवाधिकार की बात चलाइए तो पशुओं के लिए स्वतंत्र चिकित्सालय बनवाने का श्रेय सम्राट अशोक को ही जाता है। श्रमणों की जिंदगी को मौत के पंजों से मुक्तकर उसे अमर बनाने के लिए सम्राट अशोक ने पहाड़ की छाती को चीरकर वास्तुकला के इतिहास में गुहा-निर्माण की नई शैली का आविष्कार किया था। जिस दार्शनिक की खोज में सम्राट अशोक के पिता बिंदुसार ने यूनान तक अपनी आँखों को गड़ाए हुए थे, वहीं सम्राट अशोक की आंखों ने वो दार्शनिक भारत में ही खोज निकाले थे और वो बुद्ध थे। विश्व इतिहास की झलक में नेहरू जी ने स्वतंत्र अध्याय लिखने के लिए प्राचीन काल के जिन तीन राजाओं को चुना, उनमें एक चक्रवर्ती सम्राट अशोक और दूसरे उनके दादा चंद्रगुप्त मौर्य हैं एवं भारत के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट महापद्मनंद। सही अर्थों में सम्राट अशोक ने पूरे राष्ट्र को एक भाषा और एक लिपि देकर भारत को एकता के सूत्र में बांधने का काम किया। स्वतंत्र भारत ने सारनाथ स्तंभ के सिंह-शीर्ष को अपने राजचिह्न के रूप में ग्रहण कर मानवता के इस महान नायक के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित की है।