Sunday, December 22, 2024
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महर्षि दयानन्द सरस्वती की 199 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – उन्नीसवीं शताब्दी में अनेक महापुरुष हुए, और पुनर्जागरण काल का रूप प्रदान किया। इन महापुरुषों में दयानन्द जी भी एक थे। वे बाल ब्रह्मचारी एवं महान् योगी थे। संस्कृत, अरबी, हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान् तथा ओजस्वी वक्ता थे। जातिगत, धर्मगत भेदभाव को समाप्त कर वे एक राष्ट्रीय धर्म बनाना चाहते थे। स्वामी दयानन्द ने बौद्धिक पुनरोद्धार द्वारा सामाजिक सुधार के लिए एक शक्तिशाली आन्दोलन प्रारम्भ किया। उन्होंने भारत के राजनैतिक दर्शन तथा संस्कृति के विकास में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। उन्होंने आर्यसमाज का प्रवर्तन किया तथा हिन्दू समाज में प्रचलित अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों को दूर करने के लिए काफी प्रयास किया। भारतीय जीवन में नवचेतना का संचार करने के लिए अमृतमयी वाणी का प्रयोग किया। आर्यसमाज की शक्तिशाली संस्था के द्वारा समाज में नयी ऊर्जा का संचार किया। वे भारतीय राष्ट्र के महान् सेवक, देशभक्त व संस्कृति के उन्नायक थे।
आगामी वर्ष महर्षि दयानंद सरस्वती की जयंती को 200 वर्ष पूरे हो रहे हैं। उन्हें सिर्फ उनकी जन्म जयंती पर स्मरण करना काफी नहीं है बल्कि वर्तमान में उनके दिखाए मार्ग को जीवन में आत्मसात कर ही देश और समाज को प्रगति पथ पर बढ़ाया जा सकता है।

स्वामी दयानन्द जी का जन्म एवं पारिवारिक जीवन

दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी, 1824 ई. को गुजरात के काठियावाड़ जिले के टंकारा ग्राम के एक समृद्ध ब्राह्मणकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम अंबा शंकर तिवारी और माता का नाम श्रीमती अमृत बाई (यशोदाबाई) था। इनका बचपन का नाम मूलशंकर तिवारी था। वे जाति से एक कुलीन ब्राह्मण थे और इन्होने शब्द ब्राह्मण को अपने कर्मो से परिभाषित किया। ब्राह्मण वही होता हैं जो ज्ञान का उपासक हो और अज्ञानी को ज्ञान देने वाला दानी। दयानन्द जी बचपन से ही कुशाग्रबुद्धि के बालक थे। उन्होंने बाल्यकाल में ही यजुर्वेद व अन्यान्य शास्त्रों को कंठस्थ कर लिया था। माता श्रीमती अमृत बाई बेहद धर्म परायण व करुणामयी महिला थी। स्वामी दयानन्द जी ने मूर्ति पूजा को व्यर्थ बताया। निराकार ओंकार में भगवान का अस्तित्व बताया है, हिंदी एवं संस्कृत साहित्य के पुरोधा और भारतीय संस्कृति के शलाका-पुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती भारत के हीं नही, विश्व साहित्य- संस्कृति के गौरव-स्तम्भ थे। वे संस्कृत और हिंदी के मूर्द्धन्य विद्वान तो थे हीं साहित्य और देशभक्त व संस्कृति के भी बड़े तपस्वी साधक थे। एक दिन महाशिवरात्रि के दिन उन्होंने मंदिर में भगवान शंकर की मूर्ति पर चूहे को उछल-कूद मचाते देखा। इस घटना ने उन्हें मूर्तिपूजा का प्रबल विरोधी बना दिया।

मूलशंकर तिवारी का ज्ञान की खोज में संन्यासी बनना

मूलशंकर तिवारी ज्ञान की खोज में संन्यासी बनकर मठों एवं आश्रमों का भ्रमण करने निकल पड़े। 24 वर्ष की आयु में संन्यासी की दीक्षा ग्रहण करने के बाद वे दयानन्द सरस्वती कहलाने लगे। उन्होंने अज्ञान, अन्धविश्वास एवं जातीय व्यवस्था की दूषित अवधारणा से ग्रसित समाज को नवीन ज्ञान ज्योति प्रदान करने हेतु संकल्पित किया तथा सत्यार्थ प्रकाश की रचना की। वैदिक साहित्य को महत्त्व देते हुए उन्होंने लिखा कि- “वेद विश्व की सर्वाधिक प्राचीन धरोहर है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती अंधविश्वास के घोर विरोधी थे

स्वामी दयानन्द सरस्वती जी उत्तम वक्ता, महान् तत्वज्ञ, प्रकांड तर्कशास्त्री, समाज सुधारक, राष्ट्रभक्त, लोकहितैषी, संत और सशस्त्र क्रांतिकारी थे। जिस व्यक्ति में इतने सारे गुण एक साथ हो तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व निःसंदेह प्रभावशाली तो होगा ही। ऐसी महान् विभूतियाँ जिस देश में जन्मे वह देश प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी तो होगा ही। ईश्वर क्या है ? ऐसा जानने की प्रबल इच्छा उसके नन्हें मन में घर कर गई। समय बीतता गया और इच्छा प्रबल होती गई। अंततः 21 वर्ष की आयु में ‘मूलशंकर’ ने अपनी शंकाओं को शांत करने हेतु गृह त्याग दिया और एक उत्तम गुरु की खोज में निकल पड़े। एक लंबी खोज के बाद “गुरु विरजानंदजी” की शरण में पहुँचकर मूलशंकर को ऐसा आभास हुआ कि उन्हें एक उत्तम मार्गदर्शक मिल गए हैं। गुरु के प्रति अपनी अटूट आस्था और निष्ठा के साथ उन्होंने शिक्षा प्राप्त की और अंततः अपने भारतीय समाज संस्कृति के उद्धारक और आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती एक महान देशभक्त और भारत माता के सच्चे सपूत है। स्वामी दयानंद अपना सर्वस्व जीवन राष्ट्रहित के उत्थान, समाज में प्रचलित अंधविश्वासों और कुरीतियों को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। स्वामी जी ने अपनी ओजस्वी विचारों से समाज में नव चेतना का संचार जागृत किया। स्वामी दयानंद सरस्वती वैदिक थे जरुर, लेकिन अंधविश्वास के घोर विरोधी भी थे। उन्होंने राष्ट्र में व्याप्त कुरीतियों एवम अंधविश्वासों का सदैव विरोध किया। इन्होने अपने विचारों से समाज को धार्मिक आडम्बर से दूर करने का प्रयास जीवन भर किया। स्वामी दयानन्द ने राज्यों को समुदायों का समुदाय बताया है। वे राज्य को सामाजिक संस्था न मानकर तीन समुदाय मानते हैं- पहला राजनीतिक, दूसरा कला एवं विज्ञान सम्बन्धी समुदाय। तीसरा धर्म एवं नैतिकता सम्बन्धी समुदाय। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1905 के बंगाली राष्ट्रवादी आन्दोलन के मार्ग को प्रशस्त किया।

नव जागरण के अग्रदूत महर्षि दयानन्द सरस्वती

धार्मिक और सांस्कृतिक नव जागरण के अग्रदूत महर्षि दयानन्द सरस्वती के सामाजिक विचारों में प्रमुख यह है कि वे हिन्दू समाज को सामाजिक कुरीतियों, अन्धविश्वासों एवं कुप्रथाओं से मुक्त कराना चाहते थे। वे यह मानते थे कि हिन्दू समाज कुरीतियों एवं सामाजिक बुराइयों, धार्मिक अन्धविश्वासों में डूबा हुआ है। इसे में उन बुराइयों से मुक्त करने की आवश्यकता है। उन्होंने जातिप्रथा का घोर विरोध किया। सारा हिन्दू समाज इसी प्रथा के कारण छिन्न-भिन्न हो रहा है। वे न तो मन्दिरों में प्रवेश पा सकते हैं और न ही वेदों का अध्ययन कर सकते हैं। समाज को जातिप्रथा एवं अस्पृश्यता से मुक्त करने के लिए समाज को उन्नत व सशक्त बनाने की आवश्यकता है। उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था को कर्म पर आधारित माना है न कि जन्म पर उन्होंने बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी प्रथाओं का विरोध किया है।

बाल विवाह एवं दहेज प्रथा का विरोधी थे दयानन्द सरस्वती

जब भारतवर्ष में स्त्री जाति का अपमान होता था। जब भारत वर्ष में स्त्री को पैर की जूती के समान माना जाता था। जब विधवा स्त्री विवाह नहीं कर सकती थी। ऐसे समय में समाज का उद्धार करने के लिए भारत माता को गुलामी के जंजीरों से मुक्त कराने के लिए दयानन्द सरस्वती आगे आये। दयानन्द सरस्वती ने सर्वप्रथम बाल विवाह के विरोध में विवाह के लिए लड़कों की आयु 25 वर्ष और लड़कियों की आयु 16 वर्ष निश्चित की। दहेज प्रथा को समाज का अभिशाप बताते हुए उसके उन्मूलन हेतु प्रयास किया। विधवाओं के पुनर्विवाह हेतु उन्होंने सार्थक व सक्रिय प्रयास किये। मुसलमानों द्वारा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन को शुद्धिकरण के माध्यम से पुनर्गठित किया। हिन्दू धर्म में वापसी के लिए धर्म शुद्धि आन्दोलन चलाया। स्वामीजी ने ऐसे सहस्त्र लोगों को ईसाई धर्म से हिन्दू धर्म में प्रविष्ट कराया। दयानन्दजी ने नारी शिक्षा तथा उनके अधिकारों का समर्थन किया। उन्होंने पर्दा प्रथा तथा नारी शिक्षा की उपेक्षा का घोर विरोध किया। आर्यसमाज के माध्यम से कन्या स्कूल खोलने तथा स्त्री शिक्षा के प्रचार का कार्य किया। बाल विवाह, दहेज प्रथा आदि के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक विचार स्वामी दयानन्द संन्यासी एवं कर्मयोगी थे। वे भारतीय राष्ट्रवाद के प्रबल समर्थक थे। वे ऐसा बौद्धिक जागरण चाहते थे, जो आधुनिक युग के अनुरूप गुलाम भारतीयता को सब बन्धनों से मुक्त कराये। उन्होंने स्वराज्य, लोकतन्त्र की मांग की। राष्ट्रीयता को प्रोत्साहित करते हुए राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया। आर्थिक स्वतन्त्रता हेतु स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज की स्थापना की

स्वामी दयानन्द सरस्वती 10 अप्रैल 1875 को आर्यसमाज की स्थापना कर राष्ट्रीय पुनर्जागरण का कार्य किया। मानवता के लिए किये गये उनके कार्य निःसन्देह महान् थे। लोकमान्य तिलक जैसे नेता समाजसेवी ने उनके विषय में लिखा है- “ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे, जो भारतीय आकाश पर अलौकिक आभा में चमके और गहरी निद्रा में सोये हुए भारत को जागृत कर गये। वे स्वराज्य के प्रथम उद्घोषक एवं मानवता के उपासक थे।” स्वामी दयानन्द सरस्वती जो कि आर्य समाज के संस्थापक के रूप में पूज्यनीय हैं। यह एक महान देशभक्त एवं सशक्त मार्गदर्शक थे, जिन्होंने अपने कार्यो से समाज को नयी दिशा एवं उर्जा दी।

महर्षि दयानन्द सरस्वती का निधन

धार्मिक और सांस्कृतिक नव जागरण के अग्रदूत महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 1857 की क्रांति में भी अपना अमूल्य योगदान दिया। अंग्रेजी हुकूमत से जमकर लौहा लिया और उनके खिलाफ एक षड्यंत्र के चलते दीपावली के दिन 30 अक्टूबर 1883 को संध्या पहर में उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने अपने कार्यो से समाज को नयी दिशा एवं उर्जा दी। महात्मा गाँधी जैसे कई वीर स्वतंत्रता सेनानी ने दयानन्द सरस्वती के विचारों से प्रभावित थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने बाल विवाह, सती प्रथा जैसी अनेकों कुरीतियों को दूर करने में अपना खास योगदान दिया। इसके आलावा उन्होने दलित उद्धार और स्त्रियों की शिक्षा के लिए कई तरह के आंदोलन किए।

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