शिक्षा क्रांति के जनक महात्मा ज्योतिबा फूले की 197 वीं जयंती पर विशेष: ●महात्मा ज्योतिबा फूले शोषितों और निराश्रितो के मसीहा ●सामाजिक क्रांति के जनक थे ज्योतिबा फूले लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
भारतीय सामाजिक क्रांति एवं शिक्षा क्रांति के जनक कहे जाने वाले महान सामाजिक सचेतक ज्योतिराव गोविंदराव फुले 19 वीं सदी के एक महान भारतीय प्रखर विचारक, सुविख्यात समाजसेवी, लेखक, महान दार्शनिक तथा एक महान सामाजिक क्रांतिकारी कार्यकर्ता एवं समता के संदेशवाहक थे। ऐतिहासिक धर्म ग्रन्थों से यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल से स्त्री को मात्र वस्तु समझा गया है। स्त्री को शिक्षा पाने का कोई अधिकार नहीं था, क्योंकि भारतीय समाज ने स्त्री को अनेक बन्धनों में बाँधकर रखा था। जातिगत विवाह, बाल-विवाह, सती प्रथा, बहु पत्नी-विवाह, अशिक्षा इन सब से निकलकर भारतीय स्त्री को अपनी अलग पहचान बनाना आवश्यक हो गया। भारतीय नारी शिक्षा में ज्योतिबा फुले व सावित्रीबाई फुले का योगदान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। महात्मा बुद्ध के बाद फुले दम्पत्ति ने देश में महिलाओं के प्रति फैले आडम्बर जटिल कुरीतियों को सशक्त व सार्थक चुनौती दी। महात्मा बुद्ध के बाद यदि किसी ने पीड़ित व शोषित वर्ग के लोगों को ऊँचा उठाने का साहस किया तो सिर्फ फुले दम्पति ने किया। फुले दम्पत्ति द्वारा एक बार पुनः नारी का खोया सामाजिक सम्मान शिक्षा के माध्यम से दिलाने का प्रयास किया गया। जिसका तत्कालीन समाज पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा।
जोतीराव का जन्म, शिक्षा और पारिवारिक जीवन
आधुनिक काल के महान सामाजिक चिंतक महात्मा ज्योतिबा फूले का पूरा नाम जोतीराव गोविंदराव फुले था। उनके पिता गोविंदराव एवं मां चिमनाबाई थीं। जोतीराव का जन्म 11 अप्रैल, 1827 ई. को पुणे के पुरंदर तालुका के खानवाड़ी गांव में हुआ था। किन्तु महात्मा फुले के पूर्वज सतारा से 25 मील दूर कटगन गांव के निवासी थे। महात्मा फूले अपनी माता-पिता की दूसरे संतान थे। उनके बड़े भाई का नाम राजाराम था। जब वे मात्र एक वर्ष के थे तो उनकी मां का देहांत हो गया। उनका पालन-पोषण एक दाई की देख-रेख में हुआ। उन दिनों भारतीय समाज में बाल विवाह की प्रथा प्रचलित थी उसे ही पुण्य कार्य समझा जाता था। महात्मा फुले की भी शादी बचपन में ही कर दी गई। उस समय उनकी उम्र मात्र 11 वर्ष और उनकी पत्नी सावित्रीबाई की उम्र मात्र 8 साल थी। महात्मा फुले की प्रारंभिक शिक्षा मराठी पाठशाला में शुरू हुई। परंतु कुछ ही दिनों बाद हिन्दू कट्टरपंथी नेता धक जी दादा जी प्रभु के आंदोलन के कारण उन्हें अन्य निम्न जाती के बच्चों के साथ विद्यालय से निकाल दिया गया, क्योंकि कट्टरपंथियों की मान्यता थी कि शूद्र एवं दलित जाति के बच्चों को पढ़ने का अधिकार नहीं है, किन्तु महात्मा फुले की पढ़ाई के प्रति लालसा खत्म नहीं हुई। उनकी शिक्षा के प्रति रुचि से प्रभावित, उनके दो पड़ोसियों मुंशी गफ्फार बेग एवं पादरी लेजीट के प्रयासों से उनका नामांकन एक मिशन स्कूल में करवाया गया, जहां से उन्होंने शिक्षा ग्रहण की। ज्योतिबा अपने विद्यालय के मेधावी छात्र थे, ये स्कूल में सदा ‘सर्वप्रथम’ आया करते थे। उनका परिवार फूलों के गजरे बनाने का काम करते थे। यही वजह थी कि उनके परिवार को फुले के नाम से जाना जाता था।
महात्मा फुले के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं
महात्मा फुले के जीवन में तीन घटनाओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है जिसने उनकी जीवन पद्धति और विचारधारा को प्रभावित किया। उनमें तत्कालीन सामाजिक परिवेश का हाथ सबसे अधिक रहा है। समाज में व्याप्त जातीय एवं वर्णगत भेदभाव जिस कारण निम्न जाति के व्यक्तियों को सामाजिक भेदभाव, आर्थिक उत्पीड़न, शैक्षणिक एवं राजनीतिक रूप से शोषित एवं बहिष्कृत किया गया था। इसका अनुभव उन्हें बाल्यकाल में ही हुआ। जब कट्टरपंथियों एवं धार्मिक अंधविश्वासियों ने विभिन्न तरीके से उनके पिता पर उन्हें न पढ़ने देने के लिए दबाव डाला तथा उन्हें बलात् शूद्र एवं दलित जाति के बच्चों के साथ विद्यालय से निकाल दिया गया। ब्राह्मणवादी सामाजिक प्रताड़ना एवं भेदभाव का दंश महात्मा फुले को पैतृक रूप से प्राप्त था, क्योंकि उनके परदादा गोरे राव फुले को एक ब्राह्मण कुलकर्णी के उत्पीड़न एवं प्रताड़ना से तंग आकर अपनी जन्मभूमि को त्याग कर पूणा अपने एक रिश्तेदार के घर रहने को मजबूर होना पड़ा था। फुले 1876 से 1883 तक पूना नगर पालिका के आयुक्त भी रहे थे।
ज्योतिबा फुले ने समस्याओं के बावजूद कई विद्यालय खोला
ज्योतिबा फुले को एहसास हो गया था कि ईश्वर के सामने स्त्री-पुरुष दोनों का अस्तित्व बराबर है। फिर दोनों में भेद-भाव करने का कोई मतलब नहीं है। ऐसे में स्त्रियों की दशा सुधारने और समाज में उन्हें पहचान दिलाने के लिए उन्होंने 1 जनवरी 1848 में एक स्कूल खोला। यह देश का पहला ऐसा स्कूल था जिसे लड़कियों के लिए खोला गया था। स्कूल में पढ़ाने का जिम्मा उन्होंने पत्नी सावित्री को सौंप दिया। समाज के ठेकेदारों को यह बात पसंद नहीं आई और उन्होंने ज्योतिबा के पिता पर दबाव बनाकर पत्नी समेत उन्हें घर से बाहर निकलवा दिया। इन सबके बावजूद ज्योतिबा का हौसला डगमगाया नहीं और उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल खोल दिए। ज्योतिबा ने सामाजिक समरसता, दलित उत्थान व नारी शिक्षा के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया। वे ही थे जिन्होंने भारतीय समाज से दासता को मिटाने के लिए पुरजोर प्रयास किया। स्त्रियों की सामाजिक एवं आर्थिक दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए 01 जनवरी 1848 से लेकर 15 मार्च 1852 के दौरान ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने मिलकर बिना किसी आर्थिक मदद और सहारे के लड़कियों के लिए कुल 18 विद्यालय खोले। सावित्रीबाई फुले स्वयं इस स्कूल में लड़कियों को पढ़ाने के लिए जाती थीं। लेकिन यह सब इतना आसान नहीं था। उन्हें लोगों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा। यहां तक कि उन्होंने लोगों द्वारा फेंके जाने वाले पत्थरों की मार भी झेली। परन्तु उन्होंने हार नहीं मानी। इसके साथ ही विधवाओं की शोचनीय दशा को देखते हुए उन्होंने विधवा पुनर्विवाह की भी शुरुआत की और 1854 में विधवाओं के लिए आश्रम भी बनाया। साथ ही उन्होंने नवजात शिशुओं के लिए भी आश्रम खोला ताकि कन्या शिशु हत्या को रोका जा सके। ज्योतिबा ने बताया कि शिक्षा का अभाव समाज को मानसिक गुलाम बना दिया है। वर्ग विशेष को शिक्षा प्राप्ति की अनुमति और जनसंख्या के एक बड़े हिस्से को शिक्षा से वंचित रखने की रणनीति समाज के लिए घातक है। उस विषमता को उन्होंने तोड़ते हुए हर दरवाजे पर शिक्षा के दीप को प्रज्वलित करने का काम किया था। उनका संघर्ष एवं बलिदान पूरे भारत में एक आंदोलन का रूप लिया और सभी को समान शिक्षा का अधिकार प्राप्त हुआ। महात्मा ज्योतिबा फुले ने समाज को अशिक्षा के अंधकार से निकालकर शिक्षा की अलख जगाई। जिसका फायदा आज पूरे देश को मिल रहा है। कल तक जो कुलीन समाज उनका विरोध करता था आज उनके विचारों को आत्मसात कर अपना सर्वांगीण विकास करने में लगा हैं।
महात्मा फूले पिछड़ों, किसानों व मजदूरों को राह दिखाया
महात्मा फूले दलितों, पिछड़ों, किसानों व मजदूरों के मसीहा थे तथा दलितों को राह दिखाने वाली प्रकाश पूँज थे। फुले ने ‘गुलामगिरी’, ‘तृतीय रत्ने’, ‘छत्रपति शिवाजी’, ‘राजा भोसले का पखड़ा’, ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ जैसी कई किताबें उन्होनें लिखीं। ऐसे महापुरुषों को वर्तमान समय में स्मरण कर उनके बताएं गए रास्ते पर चलने का और संकल्प लेने की आवश्यकता है। कर्मयोगी महात्मा ज्योतिबा फुले समग्र समाज के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं। हमारा कर्तव्य है कि महापुरुषों के ज्ञान और उनके द्वारा किये गये जनहित के कार्यों को जन-जन तक पहुंचाएं।
ज्योतिबा फुले ने निम्न जातियों के लिए ‘दलित’ शब्द गढा
पहली बार निम्न वर्ग के लिए ‘दलित’ शब्द का प्रयोग करने का श्रेय ज्योतिबा फुले को जाता है। यह एक मराठी शब्द है जिसका अर्थ है ‘टूटा हुआ’ या ‘कुचला हुआ’। यदि फुले दंपत्ति उस दौर में शिक्षा के महत्व को जन जन तक पहुंचाने का काम नहीं किया होता तो वर्तमान में भारत का परिदृश्य ऐसा देखने को नहीं मिलता। आज अशिक्षा पूरे भारत में व्याप्त होता और देश की बहुत बड़ी आबादी का जीवन अंधकार में डूबा रहता। महात्मा ज्योतिबा फुले के संघर्षों को स्मरण कर युवाओं को विकासशील देश निर्माण में सार्थक सहयोग करें। ज्योतिबा फुले ने देश के निम्न जातियों के लिए ‘दलित’ शब्द गढ़कर बहुसंख्यकों को जोड़ने का काम किया।
महात्मा ज्योतिबा फुले द्वारा समाजोत्थान के लिए कार्य
समाजोत्थान के अपने मिशन पर कार्य करते हुए ज्योतिबा ने 24 सितंबर 1873 को अपने अनुयायियों के साथ ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का निर्माण किया। वे स्वयं इसके अध्यक्ष थे और सावित्रीबाई फुले महिला विभाग की प्रमुख। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य शूद्रों और अति शूद्रों को उच्च जातियों के शोषण से मुक्त कराना था। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने वेदों को ईश्वर रचित और पवित्र मानने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि यदि ईश्वर एक है और उसी ने सब मनुष्यों को बनाया है तो उसने केवल संस्कृत भाषा में ही वेदों की रचना क्यों की? उन्होंने इन्हें ब्राह्मणों द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए लिखी गई पुस्तकें कहा। उस समय ऐसा करने की हिम्मत करने वाले वे पहले समाजशास्त्री और मानवतावादी थे। लेकिन इसके बावजूद वे आस्तिक बने रहे। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी विरोध किया और चतुर्वर्णीय जाति व्यवस्था को ठुकरा दिया। इस संस्था ने समाज में तर्कसंगत विचारों को फैलाया तथा शैक्षणिक और धार्मिक नेताओं के रूप में ब्राह्मण वर्ग को स्वीकार करने से इंकार कर दिया। सत्यशोधक समाज के आंदोलन में इसके मुख्य पत्र दीनबंधु प्रकाशन ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कोल्हापुर के शासक शाहू महाराज ने इस संस्था को भरपूर वित्तीय और नैतिक समर्थन प्रदान किया था।
विधवा-विवाह के पुरजोर समर्थक थे ज्योतिबा फुले
ज्योतिबा फुले बाल-विवाह के मुखर विरोधी और विधवा-विवाह के पुरजोर समर्थक थे। उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले भी एक समाजसेविका थीं। उन्हें भारत की पहली महिला अध्यापिका और नारी मुक्ति आंदोलन की पहली नेता कहा जाता है। ज्योतिबा फुले दलित उत्थान के हिमायती थे। उन्होंने न सिर्फ विचारों से दलितों को सम्मान दिलाने की बात कही बल्कि अपने कर्मों से भी ऐसा करके दिखाया। उन्होंने दलितों के बच्चों को अपने घर में पाला और उनके लिए पानी की टंकी भी खोल दी थी। नतीजतन उन्हें जाति से बहिष्कृत कर दिया गया था। उनकी समाज सेवा से प्रभावित होकर 1888 में मुंबई की एक सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि से नवाजा गया। ज्योतिबा फुले ने अपने समय में ब्राह्मण के बिना ही विवाह आरंभ कराया। कुछ समय बाद बॉम्बें हाईकोर्ट ने इसे मान्यता भी दी। यही नहीं उन्होंने विधवा-विवाह का समर्थन और बाल विवाह का जमकर विरोध किया। वर्ष 1873 में ज्योतिबा फुले की किताब ‘गुलामगिरी’ प्रकाशित हुई। भले ही यह किताब बेहद कम पन्नों की थी लेकिन इसमें बताए गए विचारों के आधार पर दक्षिण भारत में कई सारे आंदोलन चले थे। ज्योतिबा फुले और उनके संगठन सत्यशोधक समाज के संघर्ष की बदौलत सरकार ने एग्रीकल्चकर एक्ट पास किया था।
महात्मा फुले की मुख्य प्रकाशित रचनाएँ :-
तृतीया रत्न, ब्रह्मनांचे कसाब, पोवाड़ा: छत्रपति शिवाजीराजे भोसले यांचा (शिवाजी का जीवन), मानव महामंद (मुहम्मद) (अभंग), गुलामगिरी, सत्यशोधक समाजोक्त मंगलाष्टकासः सर्व पूजा-विधि, सर्वजन सत्य धर्मपुस्तक, शेतकार्याचा आसुद।
महात्मा ज्योतिबा फुले का निधन
महात्मा फुले एक विपुल सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक थे, जिन्होंने भारत में विशेष रूप से महाराष्ट्र में महिला शिक्षा का बीड़ा उठाया। महात्मा ज्योतिबा फुले ने 63 साल की उम्र में 28 नवंबर 1890 को पुणे में अपने प्राण त्यांग दिए। महात्मा ज्योतिबा फुले के विचार उनके स्वयं के अनुभव पर आधारित हैं, क्योंकि निम्न वर्ग में उत्पन्न होने के कारण सामाजिक असमानता, भेदभाव, शोषण एवं उत्पीड़न का वे खुद शिकार थे। उनको भी उन प्रथाओं से रू-ब-रू होना पड़ा था। फुले के लिए समानता, बंधुता, न्याय, भाईचारा आदर्श नहीं थे बल्कि अधिकार थे, जो हर व्यक्ति को मनुष्य होने के नाते बिना कुल, जाति, धर्म, लिंग के भेदभाव के प्राप्त होने आवश्यक हैं। फुले ने अपना यही संदेश आम लोगों, पिछड़ों, दलितों, किसानों, मजदूरों, महिलाओं को दिया। सावित्रीबाई ज्योतिबा फुले के निधन के बाद भी उनके आंदोलन में सक्रिय भागीदार रही थीं और उन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद उनके अधूरे काम जारी रखा।