Saturday, February 8, 2025
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भारतीय नारीवाद की जननी सावित्रीबाई फुले की 194 वीं जयंती पर विशेष

 सावित्रीबाई फुले भारत की प्रथम महिला शिक्षिका
●सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव ने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की

राकेश बिहारी शर्मा – उन्नीसवीं सदी के दौर में भारतीय महिलाओं की स्थिति बड़ी ही दयनीय थी। जहां एक ओर महिलाएं पुरुषवादी वर्चस्व की मार झेल रही थीं, तो दूसरी ओर समाज की रूढ़िवादी सोच के कारण तरह-तरह की यातनाएं व अत्याचार सहने को विवश थीं। हालात इतने बदतर थे कि घर की देहरी लांघकर महिलाओं के लिए सिर से घूंघट उठाकर बात करना भी आसान नहीं था। लंबे समय तक दोहरी मार से घायल हो चुकी महिलाओं का आत्मगौरव और स्वाभिमान पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था। समाज के द्वारा उनके साथ किए जा रहे गलत बर्ताव को वे अपनी किस्मत मान चुकी थीं। इन विषम हालातों में दलित महिलाएं तो अस्पृश्यता के कारण नरक का जीवन भुगत रही थीं।

सावित्रीबाई फुले का जन्म और समाज सुधारक :

सावित्री बाई फुले देश की पहली महिला शिक्षिका और समाज सेविका थीं। कठिन समय में सावित्रीबाई फुले ने समाज सुधारक बनकर महिलाओं को सामाजिक शोषण से मुक्त करने व उनके समान शिक्षा व अवसरों के लिए पुरजोर प्रयास किया। गौरतलब है कि देश की पहली महिला शिक्षक, समाज सेविका, मराठी की पहली कवयित्री और वंचितों की आवाज बुलंद करने वाली भारतीय नारीवाद की जननी क्रांतिज्योति सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के पुणे-सतारा मार्ग पर स्थित नायगांव में एक दलित कृषक परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम खंडोजी नेवशे पाटिल और माता का नाम लक्ष्मीबाई था। 1840 में मात्र 9 साल की उम्र में सावित्रीबाई का विवाह 13 साल के ज्योतिराव फुले के साथ हुआ। विवाह के बाद अपने नसीब में संतान का सुख नहीं होते देख उन्होंने आत्महत्या करने जाती हुई एक विधवा ब्राह्मण महिला काशीबाई की अपने घर में डिलीवरी करवा उसके बच्चे को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया और उसका नाम यशंवत राव रखा। बाद में उन्होंने यशवंत राव को पाल-पोसकर व पढ़ा-लिखाकर डॉक्टर बनाया।

सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव फुले ने कई स्कूल खोले :

सावित्रीबाई फुले और उनके पति ज्योतिराव फुले ने 1 जनवरी 1848 को मात्र 9 विद्यार्थियों को लेकर एक स्कूल की शुरुआत की थी। ज्योतिराव ने अपनी पत्नी को घर पर ही पढ़ाया और एक शिक्षिका के तौर पर शिक्षित किया। ज्ञानज्योति सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला शिक्षिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। सावित्रीबाई ने 2 साल के टीचर प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। पहला संस्थान अहमदनगर में एक अमेरिकी मिशनरी सिंथिया द्वारा संचालित संस्थान में था और दूसरा कोर्स पुणे के एक नॉर्मल स्कूल में था। उन्होंने महिला शिक्षा और दलित उत्थान को लेकर अपने पति ज्योतिराव के साथ मिलकर छुआछूत, बाल विवाह, सती प्रथा को रोकने व विधवा पुनर्विवाह को प्रारंभ करने की दिशा में कई उल्लेखनीय कार्य किए। उन्होंने शुद्र, अति शुद्र एवं स्त्री शिक्षा का आरंभ करके नये युग की नींव रखने के साथ घर की देहरी लांघकर बच्चों को पढ़ाने जाकर महिलाओं के लिए सार्वजनिक जीवन का उदय किया। सावित्रीबाई ने अपने पति के साथ मिलकर कुल 18 स्कूल खोले थे।

सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने बालहत्या प्रतिबंधक गृह खोला :

सावित्रीबाई और ज्योतिराव फुले ने मिलकर 28 जनवरी, 1853 को बालहत्या प्रतिबंधक गृह नामक केयर सेंटर भी खोला था। इसमें बलात्कार से पीड़ित गर्भवती महिलाओं को बच्चों को जन्म देने और उनके बच्चों को पालने की सुविधा दी जाती थी। और 24 सितंबर, 1873 को ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इस ‘सत्यशोधक समाज’ की सावित्रीबाई फुले एक अत्यंत समर्पित कार्यकर्ता थीं। यह संस्था कम से कम खर्च पर दहेज मुक्त व बिना पंडित-पुजारियों के विवाहों का आयोजन कराती थी। इस तरह का पहला विवाह सावित्रीबाई की मित्र बाजूबाई की पुत्री राधा और सीताराम के बीच 25 दिसंबर, 1873 को संपन्न हुआ। इस ऐतिहासिक क्षण पर शादी का समस्त खर्च स्वयं सावित्रीबाई फुले ने उठाया। 4 फरवरी, 1879 को उन्होंने अपने दत्तक पुत्र यशवंत राव का विवाह भी इसी पद्धति से किया, जो आधुनिक भारत का पहला अंतरजातीय विवाह था। दरअसल, इस प्रकार के विवाह की पद्धति पंजीकृत विवाहों से मिलती जुलती होती थी। जो आज भी कई भागों में पाई जाती है। इस विवाह का पूरे देश के पुजारियों ने विरोध किया और कोर्ट गए। जिससे फुले दंपति को कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन, वे इससे विचलित नहीं हुए। पहले के समाज में जब नारी शिक्षा किसी पाप से कम नहीं समझी जाती थी, सावित्री बाई फुले को लड़कियों को पढ़ाने-लिखाने का दंड भी भुगतना पड़ा था। सावित्रीबाई फुले जब पढ़ाने के लिए अपने घर से निकलती थी, तब लोग उन पर कीचड़, कूड़ा और गोबर तक फेंकते थे। इसलिए वह एक साड़ी अपने थैले में लेकर चलती थी और स्कूल पहुंचकर गंदी हुई साड़ी को बदल लेती थी।

सावित्रीबाई ने ज्योतिराव फुले के अधूरे कार्यों को पूरा किया :

महात्मा ज्योतिराव फुले की मुत्यु 28 नवंबर, 1890 को हुई, तब सावित्रीबाई ने उनके अधूरे कार्यों को पूरा करने का संकल्प लिया। लेकिन, 1897 में प्लेग की भयंकर महामारी फैल गई। पुणे के कई लोग रोज इस बीमारी से मरने लगे। तब सावित्रीबाई ने अपने पुत्र यशवंत को अवकाश लेकर आने को कहा और उन्होंने उसकी मदद से एक अस्पताल खुलवाया। इस नाजुक घड़ी में सावित्रीबाई स्वयं बीमारों के पास जाती और उन्हें इलाज के लिए अपने साथ अस्पताल लेकर आती। यह जानते हुए भी यह एक संक्रामक बीमारी है, फिर भी उन्होंने बीमारों की देखभाल करने में कोई कमी नहीं रखी। एक दिन जैसे ही उन्हें पता चला कि मुंडवा गांव में म्हारो की बस्ती में पांडुरंग बाबाजी गायकवाड का पुत्र प्लेग से पीड़ित हुआ है तो वह वहां गई और बीमार बच्चे को पीठ पर लादकर अस्पताल लेकर आयी। इस प्रक्रिया में यह खतरनाक बुबोनिक प्लेग महामारी उनको भी लग गई और 10 मार्च, 1897 को रात को 9 बजे उनकी सांसें थम गई।

सावित्रीबाई फुले का योगदान :

सावित्रीबाई फुले का योगदान 1857 की क्रांति की अमर नायिका झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से कम नहीं आंका जा सकता, जिन्होंने अपनी पीठ पर बच्चे को लादकर उसे अस्पताल पहुंचाया। उनका पूरा जीवन गरीब, वंचित, दलित तबके व महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष करने में बीता। ज्योतिबा की मौत के बाद सावित्रीमाई ने उनकी चिता को आग लगाई. यह क्रांतिकारी कदम उठाने वाली सावित्री देश की पहली महिला थी। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद सावित्रीमाई ने ज्योतिबा के आंदोलन का नेतृत्व अपने हाथों में लिया और पूरी कुशलता से उसे निभाया। इसी दौरान उन्होंने समाज में नई जागृति लाने के लिए कवयित्री के रूप में सावित्रीबाई फुले ने 2 काव्य पुस्तकें ‘काव्य फुले’, ‘बावनकशी सुबोधरत्नाकर’ नामक ग्रंथों का निर्माण कर समाज का प्रबोधन किया। और वह आधुनिक जगत में मराठी की पहली कवियत्री बनी। उनके योगदान को लेकर 1852 में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने उन्हें सम्मानित भी किया। साथ ही केंद्र और महाराष्ट्र सरकार ने सावित्रीबाई फुले की स्मृति में कई पुरस्कारों की स्थापना की और उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया। जिंदगी के आखिरी पलों तक यह राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले मानवता को प्रस्थापित करने के लिए लड़ती रही। सावित्रीबाई पूरे देश की संघर्षशील कर्मठ सामाजिकता की आदर्श महानायिका थी।

सावित्रीबाई फुले जयंती का महत्व :

सावित्रीबाई फुले जयंती वर्तमान समय में भारत की पहली महिला शिक्षिका और सामाजिक सुधारक की जयंती का सम्मान करती है। यह दिन महिलाओं की शिक्षा, लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय में उनके योगदान का उत्सव मनाता है। यह भेदभाव को चुनौती देने, सभी के लिए शिक्षा को बढ़ावा देने और समानता के मूल्यों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करता है। उनकी विरासत साहस और समर्पण की शक्ति की याद दिलाती है, जो एक न्यायपूर्ण समाज बनाने में सहायक है।

सावित्रीबाई फुले की विरासत :

सावित्रीबाई फुले की विरासत कालातीत है। वह साहस और प्रगति के प्रतीक के रूप में मनाई जाती हैं। उनके प्रयासों ने भारत में महिलाओं की शिक्षा की नींव रखी, और सामाजिक सुधारों में उनका योगदान समानता और न्याय के लिए आंदोलनों को प्रेरित करता रहा है। भारत की पहली महिला शिक्षक रूप में सदैव ही सावित्रीबाई फुले का नाम जाना जाएगा। महिलाओं की शिक्षा एवं समाज सुधार के कार्यों में उन्होंने अपने जीवन को समर्पित कर दिया। महिला जो कि स्वयं पिछड़ी जाति से थी उसने स्वयं को शिक्षित कर, महिलाओं को शिक्षा रूपी प्रकाश से प्रकाशित कर जीवन जीने की कला सिखाई। समाज के उत्थान के लिए अपनी अंतिम सांस तक प्रयत्नशील रही।

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