राकेश बिहारी शर्मा – देश भूषण फ़क़ीर व कौमी एकता के जननायक स्वतंत्रता सेनानी मौलाना मजहरूल हक के बलिदान और त्याग को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। देश की आजादी में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले देशभूषण के नाम से प्रसिद्ध मौलाना मौलाना मजहरूल हक स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर हिन्दू-मुस्लिम एकता को एक नई ताकत दी थी। राजनीति समाज सेवा के साथ-साथ मौलाना मजहरुल हक साहब ने ना सिर्फ हिन्दु-मुस्लिम एकता बल्कि महिलाओं के अधिकार के लिए भी आवाज उठाई। उन्हानें ने स्वतंत्रता आन्दोलन में महिलाओं को शामिल किये जाने के गांधी जी के विचारों का स्वागत किया तथा सभी महिलाओं को सामाजिक कार्यों से जुड़ने की अपील भी की थी। मौलाना मजहरुल हक साहब का मानना था कि “हम हिन्दु हो या मुसलमान, हम एक ही नाव पर सवार हैं, हम उठेगे तो साथ और डूबेंगे भी साथ”
मौलाना मज़हरुल हक का जन्म और शिक्षा-दीक्षा
मौलाना मज़हरुल हक का जन्म 22 दिसम्बर 1869 को पटना जिले के मानेर थाना के ब्रह्मपुर में हुआ था। उनके पिता शेख अहमदुल्ली साहब थे, जो एक छोटे-से जमींदार और बहुत भले आदमी थे। वह अपने पिता के इकलौते बेटे थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा घर में हुई। वह 1876 में पटना कालिजिएट में दाखिल हुए और 1886 में मैट्रिक पास करके पटना कॉलेज में नाम लिखाया। मगर 1887 में केनिंग कॉलेज में दाखिला लेने के लिए लखनऊ चले गए। वहीं उनके दिल में इंग्लैंड जाने का शौक पैदा हुआ। उस जमाने में बहुत से नवयुवक यूरोप जा रहे थे। मगर घर वालों से आज्ञा मिलने की आशा नहीं थी, इसलिए वह चुपचाप ही बिना किसी को बताए हुए मुंबई पहुंच गए और हाजियों के जहाज में बैठकर अदन पहुंच गए। यहां उनके सारे पैसे खत्म हो गए। मजबूरन उन्होंने अपने पिता को सूचना दी और उनसे मदद मांगी।
मौलाना मजहरुल हक और महात्मा गांधी की मित्रता
उनके पिता ने मजहरुल हक को रुपये भेज दिए और वह लंदन पहुंच गए। यह एक संयोग की ही बात है कि इस जहाज में महात्मा गांधी भी यात्रा कर रहे थे। जहाज में दोनों में अच्छी मित्रता हो गई, जो हमेशा कायम रही। वह 5 दिसंबर 1888 को लंदन पहुचे थे और तीन साल इंग्लैंड में रहे व बैरिस्टरी की डिग्री लेकर भारत वापस आए और पटना में प्रैक्टिस करने लगे। एक साल बाद वह यू.पी. जूडिशियल सर्विस में शामिल हो गए। मगर जब उन्होंने देखा कि अंग्रेज अफसर अपने अधीनस्थ भारतीय कर्मचारियों के साथ अच्छा बरताव नहीं करते और उन्हें नीची निगाह से देखते हैं, तो उन्होंने 1896 में त्यागपत्र दे दिया और छपरा चले आए व वहीं प्रैक्टिस करनी शुरू कर दी।
मौलाना मजहरूल हक ने देखा था अखंड भारत का सपना
मौलाना साहब के बलिदान और त्याग को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेकर हिन्दू-मुस्लिम एकता को एक नई ताकत दी थी। वर्तमान समय में प्रदेश कांग्रेस का कार्यालय हक साहब की जमीन थी, जिन्हें उन्होंने दान में दे दी थी। उन्होंने अखंड भारत की कल्पना की थी। जैसे-जैसे भारत में राजनीतिक व क्रांतिकारी गतिविधियां बढ़ने लगी इनका भी रुझान इसमें होने लगा। यह कांग्रेस संगठन से जुड़ गए सक्रिय कार्यकर्ता की तरह इन्होंने कांग्रेस का तन-मन-धन से हमेशा सहयोग किया। इन्होंने बंगाल से अलग पृथक बिहार के मांग का समर्थन किया एवं 1906 में बिहार कांग्रेस कमेटी का उपाध्यक्ष चुना गया। गांधीजी के चंपारण सत्याग्रह में भी डॉ राजेंद्र प्रसाद के साथ मौलाना मजहरूल हक ने भी भाग लिया एवं इसके लिए उन्हें 3 महीने के कारावास की सजा भी हुई थी।
मौलाना मजहरूल हक ने प्रदेश में शिक्षा के अवसरों और सुविधाओं को बढ़ाने के लिए लंबे अरसे तक संघर्ष किया था। उन्होंने अपनी जन्मभूमी को स्कूल और मदरसे के संचालन के लिए दान दे दी थी. देश की स्वाधीनता और सामाजिक कार्यों में महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने पर्दा प्रथा के खिलाफ जनचेतना जगाने का भी प्रयास किया था।
मौलाना मजहरुल हक ने सदाकत आश्रम की स्थापना की
बिहार के सबसे लोकप्रिय राजनेता थे दानवीर मौलाना मजहरूल हक। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। इन्होंने ही पटना में कांग्रेस मुख्यालय के लिए सदाकत आश्रम बनाने के लिए जमीन दान की थी। बिहार स्कूल आफ इंजीनियरिंग के विद्यार्थी, जिन्होंने असहयोग आंदोलन के जमाने में कॉलेज छोड़ दिया था, एक दिन मौलाना साहब के पास पहुंचे और उनसे कहा कि उनके लिए कोई समुचित व्यवस्था की जाए। हक साहब ऐसे नेताओं में नहीं थे, जो सिर्फ जबानी भाषण देते हैं और कागजी सुझाव देते हैं। वह सच्चे अर्थों में एक स्वतंत्रता सेनानी थे। वह केवल कार्य करने पर विश्वास करते थे। उन्होंने फौरन अपनी सजी-सजाई कोठी सिकंदर मंजिल छोड़ दी और उन विद्यार्थियों के साथ पटना-दानापुर रोड पर मजहरुल हक ने स्वतंत्रता आंदोलन चलाने के लिए दरगाह की 16 बीघा जमीन दान कर दिये। वही दरगाह की एक बाड़ में शरण ली। उन्होंने कुछ झोंपड़ियां खडी की और देखते-ही-देखते एक आश्रम बन गया। इस तरह सिकंदर मंजिल की ठाठ-बाट का जीवन गुजारने वाला व्यक्ति बाग में बनी हुई झोंपड़ी का वासी बन गया। यह मौलाना मजहरुल हक ने इस स्थान का नाम “सदाकत आश्रम” रखा। सदाकत आश्रम की स्थापना मौलाना मजहरूल हक ने असहयोग आंदोलन के दौरान 1921 में की थी। सदाकत एक अरबी शब्द है, जिसका अर्थ होता है “सत्य और आश्रम”। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 28 फरवरी 1963 को इसी आश्रम में अंतिम सांसे ली थी। आजकल बिहार कांग्रेस कमेटी का मुख्यालय इसी में है। मौलाना मजहरूल हक और डॉ.राजेंद्र प्रसाद ने मिलकर इसका नामकरण किया था। इस आश्रम में स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में आंदोलनात्मक कार्यक्रम की पृष्ठभूमि तैयार की जाती थी।
फरीदपु के आशियाना में मजहरूल हक ने आखिरी सांस ली
1900 में मौलाना मजहरूल हक साहब ने सिवान को अपना कर्मभूमि बनाई। वहीं सिवान से करीब 12 किलोमीटर दूर हुसैनगंज प्रखंड के छोटे से गांव फरीदपुर में मौलाना साहब ने अपने लिए एक शानदार घर बनाया था, जिसका नाम उन्होंने आशियाना रखा। आशियाना में 27 दिसंबर 1929 को उन पर पक्षाघात का हमला हुआ और 2 जनवरी 1930 को वह परलोक सिधार गए और अपने मकान के बगीचे के एक कोने में उन्हे दफन किया गया। उस समय मौलाना का आशियाना राजनीतिक हलचल का केंद्र हुआ करता था। आशियाना में 1926 में पंडित मोतीलाल नेहरू, 1927 में सरोजनी नायडू व 1928 में मदन मोहन मालवीय, केएफ नरीमन व मौलाना अबुल कलाम आए थे। मौलाना मजहरूल हक को उनके कार्यों के लिए कौमी एकता के प्रतीक के रूप में जाना जाता है। मजहरुल हक साहब ने देश की आजादी और स्वतंत्रता सेनानियों की मदद के लिए अपना पद, घर-बार, धन संपत्ति सबकुछ दान कर दिया। मौलाना ने आजदी की लड़ाई में गांधी जी और राजेंद्र बाबू के साथ सक्रिय भूमिका निभाई। वह हिंदू-मुस्लिम एकता और भाईचारे के भी बहुत बड़े प्रचारक थे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा को मजबूत कर गंगा-जमुनी तहजीब को आगे बढ़ाया। युवा पीढ़ी को ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी के आदर्शों पर चलने की जरूरत है।