साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा – बिरसा मुंडा का जयंती है। जनजातीय गौरव दिवस के तौर पर आज देश में बिरसा मुंडा की जयंती मनाई जा रही है। मुंडा का जन्म अविभाजित बिहार के आदिवासी क्षेत्र में हुआ था। उन्होंने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन और धर्मांतरण गतिविधियों के खिलाफ आदिवासियों को लामबंद किया था। झारखंड के इतिहास में आदिवासी समुदाय के जल-जंगल-जमीन पर अपने परंपरागत अधिकार को कायम रखने के लिए शहादती संघर्ष की याद दिलाता है। बिरसा मुंडा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक ऐसे नायक थे जिन्होंने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत के झारखंड राज्य में अपने क्रांतिकारी चिंतन और विचारों से आदिवासी समाज की दशा और दिशा दोनों बदल दी। जिससे एक नए सामाजिक और राजनीतिक युग का सूत्रपात हुआ।
इस भारत भूमि को बहुत-से महापुरुषों ने अपने जन्म से अलंकृत किया। उनमें जो विशेष गुणों की खान और श्रद्धा के पात्र महापुरुष हुए, उन महापुरुषों में बिरसा मुंडा का नाम कौन नहीं जानता? केवल भारतवर्ष ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व उनके स्वदेशानुराग, क्रांति के प्रति उनके जुझारूपन को देखकर विस्मित-सा रह जाता है। इस महापुरुष का शरीर पत्थर से भी अधिक कठोर थे। खासकर बिहार और झारखण्ड की धरती पर बिरसा मुंडा को भगवान का दर्जा दिया जाता है। ये मात्र 25 साल की उम्र में लोगों को एकत्रित कर आंदोलन का संचालन किया जिसने देश की स्वतंत्रता में अहम योगदान दिया।
बिरसा मुंडा का जन्म और शिक्षा
बिरसा मुंडा एक प्रतिष्ठित स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक और देश के श्रद्धेय आदिवासी नेता थे. इसके साथ ही आज झारखंड का स्थापना दिवस भी है। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को उलिहातु रांची में हुआ था। बिरसा का बचपन अपने दादा के गांव चालकद में ही बीता। यह कभी बिहार का हिस्सा हुआ करता था पर अब यह क्षेत्र झारखंड में आ गया है। साल्गा गांव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे सन 1886 ई0 से जर्मन ईसाई मिशन द्वारा संचालित चाईबासा के एक उच्च विद्यालय में बिरसा ने शिक्षा ग्रहण की। पिता सुगना मुंडा और माता करमी हातू के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था। बिरसा मुंडा को अपनी भूमि, संस्कृति से गहरा लगाव था। जब वह अपने स्कूल में पढ़ते थे तब मुंडा सरदारों की छिनी गई भूमि पर उन्हें दु:ख था या कह सकते हैं कि बिरसा मुंडा जनजातियों के भूमि आंदोलन के समर्थक थे तथा वे वाद-विवाद में हमेशा प्रखरता के साथ जनजातियों की जल, जंगल और जमीन पर हक की वकालत करते थे। उन्हीं दिनों एक पादरी डॉ. नोट्रेट ने लोगों को लालच दिया कि अगर वह ईसाई बनें और उनके अनुदेशों का पालन करते रहें तो वे मुंडा सरदारों की छीनी हुई भूमि को वापस करा देंगे। लेकिन 1886-87 में मुंडा सरदारों ने जब भूमि वापसी का आंदोलन किया तो इस आंदोलन को न केवल दबा दिया गया बलिक ईसाई मिशनरियों द्वारा इसकी भर्त्सना की गई जिससे बिरसा मुंडा को गहरा आघात लगा। उनकी बगावत को देखते हुए उन्हें विद्यालय से निकाल दिया गया। फलत: 1890 में बिरसा तथा उसके पिता चाईबासा से वापस आ गए। यही वह दौर था जिसने बिरसा मुंडा के अंदर बदले और स्वाभिमान की ज्वाला पैदा कर दी।
बिरसा मुंडा का सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक आंदोलन
आदिवासियों के महानायक और भारतीय स्वातंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा के मन में अपने विद्यार्थी जीवन से ही ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ आक्रोश पैदा हो गया था। मात्र 19 वर्ष की अल्पायु में ही बिरसा मुंडा ने अपने क्षेत्र बिहार में अंग्रजों के खिलाफ संघर्ष प्रारंभ कर दिया था। बिरसा मुंडा पर संथाल विद्रोह, चुआड़ आंदोलन, कोल विद्रोह का भी व्यापक प्रभाव पड़ा था। अपनी जाति की दुर्दशा, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक अस्मिता को खतरे में देख उनके मन में क्रांति की भावना जाग उठी। उन्होंने मन ही मन यह संकल्प लिया कि मुंडाओं का शासन वापस लाएंगे तथा अपने लोगों में जागृति पैदा करेंगे। बिरसा मुंडा न केवल राजनीतिक जागृति के बारे में संकल्प लिया बल्कि अपने लोगों में सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक जागृति पैदा करने का भी संकल्प लिया। बिरसा ने गांव-गांव घूमकर लोगों को अपना संकल्प बताया। उन्होंने ‘अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज’ (हमार देश में हमार शासन) का बिगुल फूंका। सन् 1857 के गदर के बाद सरदार आंदोलन संगठित जनांदोलन के रूप में शुरु हो गया तथा वर्ष 1858 से भूमि आंदोलन के रूप में विकसित यह आंदोलन सन् 1890 में तब राजनीतिक आंदोलन में तब्दील हो गया, जिसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। बिरसा के लोकप्रिय व्यक्तित्व के कारण सरदार आंदोलन में नई जान आ गई। अगस्त 1895 में वन संबंधी बकाये की माफी का आंदोलन चला। उसका नेतृत्व भी बिरसा ने किया। जब अंग्रेजी हुकूमत ने मांगों को ठुकरा दिया तब बिरसा ने भी ऐलान कर दिया कि ‘सरकार खत्म हो गई। अब जंगल जमीन पर जनजातियों का राज होगा।’ 9 अगस्त 1895 को चलकद में पहली बार बिरसा को गिरफ्तार किया गया, लेकिन उनके अनुयायियों ने उन्हें छुड़ा लिया उनकी गतिविधियां अंग्रेज सरकार को रास नहीं आई। बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी और यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला। उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। उनके प्रभाव की वृद्धि के बाद पूरे इलाके के मुंडाओं में संगठित होने की चेतना जागी।
बिरसा मुंडा ने एक नए धर्म की स्थापना की थी
बिरसा मुंडा ने नए बिरसाइत धर्म की स्थापना की तथा लोगों को नई सोच दी, जिसका आधार सात्विकता,आध्यात्मिकता, परस्पर सहयोग, एकता व बंधुता था। उन्होंने ‘गोरो वापस जाओ’ का नारा दिया एवं परंपरागत लोकतंत्र की स्थापना पर बल दिया, ताकि शोषणमुक्त जनजाति साम्यवाद की स्थापना हो सके। उन्होंने कहा था- महारानी राज जाएगा एवं अबुआ राज आएगा। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारतभूमि पर ऐसे कई नायक पैदा हुए जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों से लिखवाया। एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए और इसकी जीती जागती मिसाल थे बिरसा मुंडा। बिरसा मुंडा ने बिहार और झारखंड के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम रोल निभाया। भारतीय इतिहास में बिरसा मुंडा एक ऐसे महानायक थे। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को ब्रिटिश के शोषण एवं यातना से मुक्ति दिलाने के लिए सभी को अपने स्तर से संगठित कर एक सुत्र में बांधा। बिरसा मुंडा ने ‘बेगारी प्रथा’ के विरुद्ध जबर्दस्त आंदोलन किया। बिरसा मुंडा सही मायने में पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के एकलव्य और स्वामी विवेकानंद थे।
बिरसा के द्वारा ‘उलगुलान’ का ऐलान और गोरिल्ला युध्द
बिरसा को संगठित करने, अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ भड़काने के कारण बौखलाई अंग्रेजी हुकूमत ने कई प्रयत्नों के बाद 24 अगस्त 1895 को रात के अंधेरे में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह उकसाने का आरोप लगाया। मुंडा और कोल समाज ने बिरसा के नेतृत्व में सरकार के साथ असहयोग करने का ऐलान कर दिया। विरोध के तेवर में फर्क नहीं पड़ने के कारण मुकदमे की कार्रवाई रोककर उन्हें तुरंत जेल भेज दिया गया तथा उन्हें दो साल सश्रम कारावास की सजा सुनायी गई। फरवरी 1898 में डोम्बारी पहाड़ी पर मुंडारी क्षेत्र से आये मुंडाओं की सभा में उन्होंने आंदोलन की नई नीति की घोषणा की। सन् 1898 के अंत में यह अभियान रंग लाया और अधिकार हासिल करने, खोए राज्य की प्राप्ति का लक्ष्य, जमीन को मालगुजारी से मुक्त करने तथा जंगल के अधिकार को वापस लेने के लिये व्यापक गोलबंदी शुरु हुई। डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और संघर्ष हुआ था, जिसमें बहुत सी औरतें और बच्चे मारे गये थे। डोम्बारी पहाड़ी पर ही मुंडाओं की बैठक में बिरसा के द्वारा ‘उलगुलान’ का ऐलान किया गया। उलगुलान के इस एलान के बाद बिरसा के कुछ शिष्यों की गिरफ़्तारी भी हुई थी। बिरसा के इस आंदोलन की तुलना आजादी के आंदोलन के बहुत बाद सन् 1942 के अगस्त क्रांति के काल से की जा सकती है। बिरसा के नेतृत्व में अफसरों,पुलिस, अंग्रेज सरकार के संरक्षण में पलने वाले जमींदारों और महाजनों को निशाना बनाया गया और गोरिल्ला युध्द ने हुकूमत की चूलें हिला दीं। आंदोलन को कुचलने के लिए रांची और सिंहभूम को सेना के हवाले कर दिया गया। आंदोलन की रणनीति के तहत उन्होंने अपने आंदोलन के केन्द्र बदले तथा घने जंगलों में संचालन व प्रशिक्षण के केन्द्र बनाए। सन 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होते रहे और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। 24 दिसम्बर 1899 को सिंहभूम जिले के चक्रधरपुर थाने और रांची जिले के खूंटी, करी, तोरपा, तमाड़ और बसिया थाना क्षेत्रों में उलगुलान की आग दहक उठी।
क्रांतिकारी बिरसा मुंडा की शहादत
03 फरवरी 1900 ई. को 500/- रुपये के सरकारी ईनाम के लालच में जीराकेल गांवों के सात व्यक्तियों ने बिरसा मुंडा के गुप्त स्थान के बारे में अंग्रेजों को बताकर धोखे से पकड़वा दिया। और सेंतरा के पश्चिम जंगल में बने शिविर से बिरसा को गिरफ्तार कर उन्हें तत्काल रांची कारागार में बंद कर दिया गया। बिरसा मुंडा का यह आंदोलन 24 दिसंबर 1899 को प्रारंभ हुआ पुलिस थानों पर तीरो से आक्रमण करके उनमें आग लगा दी गई। बिरसा के संगठन की सीधी मुठभेड़ सेना से भी हुई। लेकिन गोलियों के सामने तीर कमान बहुत देर तक नहीं चल पाए और बड़ी संख्या में बिरसा मुंडा के साथ मारे गए। धन के लालच में आकर मुंडा जाति के ही दो व्यक्तियों ने बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करा दिया। 9 जून 1900को जेल में रहस्यमय तरीके से उनकी मृत्यु हो गई। अंग्रेजी सरकार द्वारा उनकी मौत का कारण हैजा बताया गया। लेकिन बिरसा मुंडा में हैजा के कोई लक्षण नहीं थे शायद उन्हें विष दे दिया गया था।ऐसा कहा जाता है कि बिरसा मुंडा को अंग्रेजो ने स्लो पॉयजन देना शुरू कर दिया था इसलिए बिरसा की मृत्यु हो गई।
बिरसा मुंडा ने मात्र 25 वर्ष की आयु में ही ऐसा काम कर दिया जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अमर हो गया। आज भी बिहार, झारखंड और उड़ीसा की आदिवासी जनता उन्हें याद करती है और बिरसा मुंडा को भगवान मानती है।बिरसा मुंडा के नाम पर कई शिक्षण संस्थानों के नाम ही रखे गए हैं।
सही अर्थों में बिरसा मुंडा पराक्रम और सामाजिक जागरण के धरातल पर तत्कालीन युग के ‘एकलव्य’ और ‘स्वामी विवेकानंद’ थे। 9 जून 1900 को शहीद हुए बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। आज भी बिरसा मुंडा लोकगीतों और जातीय साहित्य में जीवित हैं।
बिरसा आदिवासियों का मुक्तिदाता, शिक्षा का महत्व समझाया
बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को शोषण की नारकीय यातना से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें तीन स्तरों पर संगठित करना आवश्यक समझा। पहला तो सामाजिक स्तर पर ताकि आदिवासी-समाज अंधविश्वासों और ढकोसलों के चंगुल से छूट कर पाखंड के पिंजरे से बाहर आ सके। इसके लिए उन्होंने आदिवासियों को स्वच्छता का संस्कार सिखाया। शिक्षा का महत्व समझाया। बिरसा मुंडा ने जब सामाजिक स्तर पर आदिवासी समाज में चेतना पैदा कर दी तो आर्थिक स्तर पर सारे आदिवासी शोषण के विरुद्ध स्वयं ही संगठित होने लगे। बिरसा मुंडा ने उनके नेतृत्व की कमान संभाली। बिरसा मुंडा की गणना महान देशभक्तों में की जाती है। उन्होंने जनजातियों को एकजुट कर उन्हें अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए धर्मान्तरण करने वाले ईसाई मिशनरियों का विरोध किया। ईसाई धर्म स्वीकार करने वाले हिन्दुओं को उन्होंने अपनी सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी दी और अंग्रेजों के षडयन्त्र के प्रति सचेत किया। बिरसा मुंडा के इस बलिदान को जनजातियों के तथा भारत देश के इतिहास में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। उनके द्वारा धार्मिक, सांस्कृतिक तथा सामाजिक जागृति स्थापित करने के लिए शुरू किये गए अभूतपूर्व अभियान को एक परिणाम तक पहुँचाना ही उनके लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा भगवान की तरह पूजे जाते हैं।
बिरसा मुंडा के पैतृक गांव उलिहातू आज भी विकास से कोसों दूर
आजादी की लड़ाई के बड़े नायक ‘भगवान’ कहे जाने वाले बिरसा मुंडा के पैतृक गांव उलिहातू में विकास के नाम पर काले पत्थरों और तारकोल (अलकतरा) से बनी सड़कें और लोगों की जेब में स्मार्ट फोन के अलावा कुछ और नहीं दिखता है। यह गांव देश के दूसरे गांवों जैसा ही है, जहां के लोगों को बुनियादी ज़रुरतों के लिए भी अपने हिस्से का संघर्ष रोज़ाना करना होता है। यहां रहने वाली बहुतायत आबादी मुंडा आदिवासियों की है। इनका मुख्य पेशा खेती और मज़दूरी है। गांव के युवा रोज़गार की तलाश में पश्चिम बंगाल के आसनसोल, दुर्गापुर, मुर्शिदाबाद आदि शहरों के साथ-साथ मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों में भी रह रहे हैं। उलिहातू में बिरसा मुंडा की तीसरी और चौथी पीढ़ी के लोग यहां रहते हैं। बिरसा मुंडा की जन्मस्थली वाले स्मारक भवन के ठीक पीछे इनका खपरैल वाला मकान है। यहां रहने वाले उनके परपोते और छरपोते आज भी मिट्टी के घर में रहते हैं, क्योंकि उनके पास उतनी ज़मीन नहीं है कि उन्हें सरकारी पक्का मकान आवंटित किया जा सके।