साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा – भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में समाज के हर एक वर्ग ने अपनी महती भूमिका निभाई। इस आंदोलन को आगे बढ़ाने एवं बौद्धिक प्रेरणा देने में भारतीय मनीषियों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। ऐसे ही महान मनीषियों में से एक थे स्वामी सहजानंद सरस्वती। स्वामी सहजानंद सरस्वती भारत में किसान आंदोलन के जनक के रूप में विख्यात हैं।
सहजानंद सरस्वती का जन्म,शिक्षा और पारिवारिक जीवन
स्वामी सहजानंद सरस्वती का जन्म महाशिवरात्रि के दिन 22 फरवरी 1889 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिला अंतर्गत देवा गांव में एक साधारण किसान बेनी राय के घर हुआ था। माता-पिता ने बड़े प्यार से इनका नाम नौरंग राय रखा। बालक नौरंग राय जब तीन साल के थे तो उनकी मां का निधन हो गया। संयुक्त परिवार था, सो उनकी चाची ने मां का दायित्व संभाला। 9 बर्ष की उम्र में पिता ने उनका नामांकन जलालाबाद के एक मदरसे में करा दिया। वे पढ़ने में इतने मेधावी निकले कि 12 बर्ष की उम्र में में ही उन्होंने लोअर और अपर प्राइमरी स्तर की शिक्षा सिर्फ 3 साल में पूरी कर ली। 1904 में मिडिल स्कूल की परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में नौरंग राय ने 6ठा स्थान प्राप्त किया। सरकार की ओर से उन्हें छात्रवृत्ति मिलने लगी। इसी दौरान 1905 में पिता ने अपने इस पुत्र में वैराग्य का लक्षण देखा तो16 बर्ष की अवस्था में इनका विवाह करा दिया।विवाह के एक साल पूरा होते-होते उनकी पत्नी का देहांत हो गया और किशोर नौरंग राय के पग वैराग्य के पथ पर बढ चले। एक दिन चुपचाप वे घर से निकल कर काशी पहुंचे गए और वहां स्वामी अच्युतानंद से दीक्षा लेकर दंड धारण कर बन गए स्वामी सहजानंद सरस्वती और निकल पड़े मानव मुक्ति की राह तलाश करने।
सहजानंद का भूमिहार ब्राह्मण महासभा और असहयोग आंदोलन
महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन जब पूरे बिहार में जोड़ पकड़ा तो किसान नेता सहजानंद जी उसके धुरी में थे। स्वामी सहजानन्द सरस्वती जी राष्ट्रवादी वामपंथ के अग्रणी सिद्धांतकार, अथक परिश्रमी, वेदान्त और मीमांसा के महान पंडित तथा संगठित किसान आंदोलन के जनक एवं संचालक थे। सहजानंद ने 1914 में भूमिहार ब्राह्मण महासभा का गठन किया था।1915 में ‘भूमिहार ब्राह्मण’ पत्र का प्रकाशन शुरू किया इसपर पुस्तकें लिखीं। तबतक वे सक्रिय राजनीति में नहीं आए थे। राजनीति में वे तब आए जब 1920 में 5 दिसंबर को पटना में उनकी मुलाकात महात्मागांधी से हुई। फिर वे असहयोग आंदोलन में सक्रिय हुए और जेल गए। यह सब करते हुए स्वामी जी ने स्थितियों को बारीकी से समझा और 1929 में भूमिहार ब्राह्मण महासभा को भंग कर बिहार प्रांतीय किसान सभा की स्थापना की और उसके प्रथम अध्यक्ष बनाए गए। यहीं से शुरू हुआ उनका किसान आंदोलन।
अपने स्वजातीय जमींदारों के खिलाफ भी स्वामी जी ने आंदोलन का बिगुल फूंका। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ घूम-घूमकर लोगों को खड़ा किया था। अप्रैल, 1936 में लखनऊ के सम्मेलन में ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ की स्थापना हुई और वहीं स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया। स्वामी सहजानंद ने भारतीयों को नारा दिया था, उनका नारा था “जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा, अब सो क़ानून बनायेगा। ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वहीं चलायेगा।” स्वतंत्रता आंदोलन के महानायक स्वामी सहजानंद सरस्वती जी किसानों, गरीबों के न सिर्फ सच्चे दोस्त थे, उनका संपूर्ण जीवन और कर्म किसानों गरबों दलितों के लिए समर्पित था। उनके ह्रदय में प्रेम, करुना, दया और सहानुभूति की जलधारा प्रवाहित होती थी। स्वामीजी ने किसानों का चतुर्दिक विकास के लिए निरंतर कम किया था। उनका मानना था, किसानों को समृद्ध करके ही राष्ट्र के विकास का सपना देखा जा सकता है।
सहजानंद का भारतीय संस्कृति पर जोर
सहजानंद सरस्वती शिक्षा, शिक्षक, शिक्षार्थी तथा भारतीय संस्कृति पर काफी जोर देते थे। उनका कहना था जब तक किसान, मजदुर, गरीब, दलित का विकास नहीं होगा तबतक किसी राष्ट्र का विकास सम्भव नहीं है। स्वामी सहजानंद सरस्वती भारतीय जन मानस के हितों के लिए आजीवन सक्रिय रहे, इसीलिए उनको लोग किसान आन्दोलन का सूर्य, दलितों, अभिवंचितों, शोषितों का सन्यासी कहे जाते थे। स्वामी जी मानवता के पुजारी थे, वे किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।
भारत में किसान आंदोलन के जन्मदाता सहजानंद सरस्वती
स्वामी जी दुनिया के इतिहास के प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने किसान आंदोलन का जन्म दिया। भारत में उस समय किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर थी। वे किसानों को गोलबंद करने की मुहिम में जुटे रहे। इस रूप में देखें तो भारत के इतिहास में संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने और उसका सफल नेतृत्व करने का एक मात्र श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को ही जाता है। कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्तकराने का अभियान जारी रखा। उनकी बढ़ती सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की सुविधाभोगी प्रवृति को देखकर स्वामीजी हैरान हो गए। स्वभाव से हीं विद्रोही स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया।
सहजानंद ने रोटी को हीं भगवान कहा
विद्रोही सहजानंद ने किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित कर दिया। स्वामी जी किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ डट जाने का स्वभाव रखते थे। गिरे हुए को उठाना अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। दण्डी संन्यासी होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को हीं भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया। स्वामीजी ने नारा दिया था- “जो अन्न वस्त्र उपजाएगा,अब सो कानून बनायेगा।ये भारतवर्ष उसी का है,अब शासन वहीं चलायेगा।”अपने स्वजातीय जमींदारों के खिलाफ भी उन्होंने आंदोलन का शंखनाद किया। सचमुच जो श्रेष्ठ होते हैं वे जाति, धर्म, सम्प्रदाय और लैंगिक भेद-भाव से ऊपर होते हैं।
सहजानंद ने कई ग्रंथों की रचना की
सहजानंद सरस्वती एक उच्च कोटि के विद्वान थे। इन्होंने कई ग्रंथों की रचना की जिनमें शामिल है:- भूमिहार ब्राह्मण परिचय, झूठा भय मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन, महारुद्र का महातांडव, जंग और राष्ट्रीय आजादी। इन्होंने अपनी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संघर्ष’ के नाम से लिखा। सहजानंद ने भारत के स्वतंत्रता के उपरांत भी जमींदारी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष को बनाए रखा। इनके योगदान को देखकर राष्ट्रकवि दिनकर के द्वारा इन्हें दलितों के सन्यासी की उपाधि प्रदान की गई।
हजारीबाग केन्द्रीय कारा में रहते हुए उन्होंने एक पुस्तक लिखी- “किसान क्या करें” इस पुस्तक में अलग-अलग शीर्षक से सात अध्याय हैं- 1. खाना-पीना सीखें, 2. आदमी की जिंदगी जीना सीखें, 3. हिसाब करें और हिसाब मांगें, 4. डरना छोड दें, 5. लडें और लडना सीखें, 6. भाग्य और भगवान पर मत भूलें और 7. वर्गचेतना प्राप्त करें। स्वामी जी ने बड़ी गम्भीरता से देखा है कि किसानों की हाड़-तोड़ मेहनत का फल किस तरह से जमींदार, साहूकार, बनिए, महाजन, पंडा-पुरोहित, साधु-फकीर, ओझा-गुणी, चूहे यहां तक कि कीड़े-मकोड़े और पशु-पक्षी तक गटक जाते हैं। वे अपनी किताब में बड़ी सरलता से इन स्थितियों को दर्शाते हुए किसानों से सवाल करते हैं कि क्या उन्होंने कभी सोचा है कि वे जो उत्पादन करते हैं, उस पर पहला हक उनके बाल-बच्चे और परिवार का है? उन्हें इस स्थिति से मुक्त होना पड़ेगा। सन् 1927 ई. ये वो वर्ष है जिसमें स्वामी जी ने पश्चििमी किसान सभा की नींव रखी।
सहजानंद सरस्वती प्रखर लेखक की भूमिका में
स्वामी जी ने “मेरा जीवन संघर्ष” में लिखा है- “मुनि लोग तो स्वामी बन के अपनी ही मुक्तिस के लिए एकांतवास करते हैं। लेकिन, मैं ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता। सभी दु:खियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्ति नहीं चाहिए। मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा-जीऊँगा।” स्वामी सहजानन्द जी का मानना था कि यदि हम किसानों, मजदूरों और शोषितों के हाथ में शासन का सूत्र लाना चाहते हैं तो इसके लिए क्रांति आवश्यक है। क्रांति से उनका तात्पर्य व्यवस्था परिवर्तन से था। शोषितों का राज्य क्रांति के बिना सम्भव नहीं और क्रांति के लिए राजनीतिक शिक्षण जरूरी है। किसान-मजदूरों को राजनीतिक रूप से सचेत करने की जरूरत है ताकि व्यवस्था परिवर्तन हेतु आंदोलन के दौरान वे अपने वर्ग दुश्मन की पहचान कर सकें। इसके लिए उन्हें वर्ग चेतना से लैस होना होगा। यह काम राजनीतिक शिक्षण के बिना सम्भव नहीं। “किसान क्या करे” पुस्तक में एक जगह स्वामी जी लिखते हैं– “वंश परम्परा, कर्म, तकदीर, भाग्य और पूर्व जन्म की कमाई जैसी होगी, उसी के अनुसार सुख-दुख मिलेगा, चाहे हजार कोशिश की जाए। भाग्य और भगवान की फिलासफी और कबीर की कथनी ने उन्हें इस कदर अकर्मण्य बना दिया है कि सारी दलीलें और सब समझाना-बुझाना बेकार है। इस तरह शासकों और शोषकों ने, धनियो और अधिकारियों ने एक ऐसा जादू उनपर चलाया है कि कुछ पूछिए मत। वे लोग मौज करते, हलवा-पुड़ी उड़ाते हैं। मोटरों पर चलते हैं और महल सजाते हैं, हालांकि खुद कुछ कमाते-धमाते नहीं। खूबी तो यह है कि यह सब भगवान की ही मर्जी है। वह ऐसा भगवान है जो हाथ धरे कोढियों की तरह बैठने वाले, मुफ्तखोरों को माल चखाता है। मगर दिन-रात कमाते-कमाते पस्त किसानों को भूखो मारता है।” स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने काफी पहले अविराम संघर्ष का उद्घोष करते हुए कहा था कि यह लड़ाई तब तक जारी रहना चाहिए जबतक शोषक राजसत्ता का खात्मा न हो जाए।
किसानों के हितैषी सहजानंद सरस्वती
जब सन् 1934 में बिहार प्रलयंकारी भूकम्प से तबाह हुआ तब स्वामी सहजानन्द जी ने बढ़ चढ़कर राहत पुनर्वास में काम किया इस दौरान स्वामी जी ने देखा अपना सब कुछ गंवा चुके किसान मज़दूर को जमींदार के लठैत कर वसुल रहें हैं तब स्वामी जी ने किसानों के आवाज़ में नारा दिया कि “कैसे लोगे मालगूजारी, लठ्ठ हमारा ज़िदाबाद।”
सहजानंद का निधन और भारतीय किसान आन्दोलन का सूर्यास्त
किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ़ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून 1950 को पंचतत्व में विलीन हो गयें। उनके निधन के साथ ही भारतीय किसान आन्दोलन का सूर्य अस्त हो गया। उनके निधन पर दिनकर जी ने कहा था आज दलितों का सन्यासी चला गया। उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत तो नहीं हो सका लेकिन आज़ादी मिलने के साथ ही जमींदारी प्रथा का कानून बनाकर ख़त्म कर दिया गया। लेकिन आज भी किसान शोषण दोहन के शिकार बने हुए हैं कर्ज भुख से किसान आत्महत्या कर रहें हैं दुर्भाग्य है कि आज हर राजनीतिक दल के पास किसान सभा हैं उनके नाम पर कई संगठन भी हैं लेकिन आज स्वामी सहजानन्द जी जैसा निर्भीक तथा अथक परिश्रमी नेता दूर-दूर तक नहीं दिखाई देता।