राकेश बिहारी शर्मा – बात अगर आजादी की लड़ाई की हो और सुभाष चंद्र बोस का जिक्र ना हो … ऐसा हो ही नहीं सकता। अंगेजों की गुलामी की बेड़ियों मे जकड़ी भारत मां के एक सच्चे और वीर सपूत के तौर पर नेताजी का नाम सबसे पहले लिया जाता है।
“तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा” के ओजस्वी उद्घोष से समग्र राष्ट्र में देशभक्ति त्याग और बलिदान के अनियंत्रित तूफान को सृजित करने वाले भारतीय स्वाधीनता संग्राम के क्रांतिधर्मा महानायक सुभाष चंद्र बोस का देश की आजादी के इतिहास में अनुपम और अतुलनीय योगदान हैं। भारत को विश्व की एक महान शक्ति बनाने के लिए संकल्पित सुभाष चंद्र बोस की अमिट छवि भारतीय जनमानस में नेताजी के रूप में अंकित है।
सुभाष चंद्र बोस का जन्म और शिक्षा-दीक्षा
सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। सुभाष चंद्र बोस के 7 भाई और 6 बहनें थीं। सुभाष कटक के प्रोटेस्टेण्ट यूरोपियन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूर्ण कर 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा प्रभाव पड़ा। बाद में, कुछ दिक्कतों के चलते इस कॉलेज को छोड़कर उन्होंने स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश ले लिया और फोर्ट विलियम सेनालय में रँगरूट के रूप में प्रवेश पा गये। 15 सितम्बर 1919 को वे इंग्लैण्ड चले गये। वहां पर उन्हें किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ट्राइपास (ऑनर्स) की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु प्रवेश मिल गया।
राष्ट्रसेवा के चलते छोड़ दिया आईसीएस
पिताजी चाहते थे कि सुभाष इंग्लैंड जाएं और सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा आईसीएस होकर लौटे। किंतु जन्मजात विद्रोही सुभाष के मन में अंग्रेजी हुकूमत को जड़ से उखाड़ फेंकने की बगावत का बीजारोपण तो हो ही चुका था। 1920 में उन्होंने आईसीएस परीक्षा की वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए इसे पास किया। नेताजी के दिलो-दिमाग पर स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने गहरा प्रभाव डाला था, समाज सेवा, राष्ट्र सेवा और जन सेवा का कर्तव्य भाव उन्हें पुकार रहा था। ना चाहते हुए भी पिता की आज्ञा का पालन किया और इंग्लैंड से आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, किन्तु उनकी सरकारी नौकरी करने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने दृढ़ता पूर्वक प्रतिकार करते हुए कहा कि वह शासन तंत्र जो मेरी मातृभूमि को दासता की जंजीरों में जकड़ा हुआ है उसकी कठपुतली या पुर्जा बनना मुझे स्वीकार नहीं है। विदेशी हुकूमत हमारे युवकों को गोलियों से भून रही है उन्हें जेलों में यातनाएं दे रही है और मैं उनकी गुलामी करूं यह असंभव है और 22 अप्रैल 1922 को उन्होंने पिता की इच्छा के विरुद्ध आईसीएस से त्यागपत्र दे दिया।
सुभाष चंद्र बोस का भारतीय राजनीति में प्रवेश
इंग्लैण्ड से भारत वापस आने के बाद रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह पर सुभाष चंद्र बोस सबसे पहले मुम्बई गये और महात्मा गांधी से मिले। वहाँ 20 जुलाई 1921 को गाँधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। नेताजी की पॉलिटिक्स और विचारधारा के दो खास दौर थे। 1920-30 के दौरान कांग्रेस का समाजवाद की तरफ झुकाव होने लगा जिसमें नेताजी की महत्वपूर्ण भूमिका थी। सुभाष एक व्यवहारिक चिंतक, अद्भुत संगठनकर्ता और करिश्माई नेतृत्व के धनी थे जिनके स्वाभिमानी व्यक्तित्व में जादुई आकर्षण था। उनकी वाणी में अद्भुत ओज था।
सुभाष चंद्र बोस ने समाजसेवा और पत्रकारिता की
बंगाल के देशभक्त चितरंजन दास की प्रेरणा से सुभाष राजनीति में आए स्वयंसेवक बने फिर राष्ट्रीय विद्यापीठ के आचार्य और कॉंग्रेस स्वयंसेवक दल के प्रमुख। अपने साथियों के साथ सेवादल बनाकर मानव सेवा में जुट गए। उनकी ख्याति युवा नेता और समाजसेवी के रूप में विख्यात हो गई। उत्तर बंगाल के बाढ़ पीड़ितों की अद्भुत सेवा की। स्वराज पार्टी के प्रमुख पत्र फॉरवर्ड के संपादक बनाए गए। 1924 में जब देशबंधु कोलकाता के मेयर बने तब सुभाष को मुख्य कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। जहां उन्होंने प्रशासनिक दक्षता, राष्ट्रवादी भावनाओं और जन हितेषी कार्यों से अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की।
सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया
सुभाष चंद्र बोस कुल 11 बार गिरफ्तार किए गए और लगभग 15 वर्षों तक जेल में रहे। 1928 में प्रांतीय कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए लगातार परिश्रम से वे बीमार हो गए। बमुश्किल 1932 में जर्मनी में चिकित्सा के लिए गए और वहां से लौटने पर 1939 में पट्टाभी सीतारमैया को चुनाव में पराजित कर पुनः कांग्रेस के अध्यक्ष बन गए। गांधीजी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार माना। गांधी के अहिंसा वादी विचारों का सुभाष चंद्र बोस के क्रांतिकारी विचारों से मेल नहीं होता था। अतः उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।
सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की और कई बार जेल गए
उग्रवादी विचारधारा के अमर सेनानी सुभाष का दृढ़ विश्वास था कि ब्रिटिश शासन की नृशंसता का सशस्त्र बल से विरोध करने पर ही भारत मां को आजाद किया जा सकता है। अपना रक्त दिए बिना भारत को मुक्त नहीं किया जा सकता।
भारतीय संस्कारों से युक्त पूर्ण स्वराज का लक्ष्य लेकर उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। गांधी के व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ करने के दौरान सुभाष बाबू ने बंगाली जनता को हालवेल, ब्लैक होल स्मारक को हटा देने एवं सामूहिक आंदोलन करने का आव्हान किया। फलस्वरुप आंदोलन के लिए उमड़ते तूफान की आशंका से भयभीत हो सुभाष को पुनः जेल में डाल दिया गया। जहां उनके अनशन प्रारंभ करने पर उन्हें छोड़ दिया गया।
किंतु उनके घर में ही उन्हें फिर नजरबंद कर दिया गया। 26 जनवरी 1941 को वे वेश बदलकर गूंगे बहरे पठान जियाउद्दीन मौलवी के रूप में विषम परिस्थितियों और भयानक खतरों का सामना करते हुए काबुल होते हुए इटली से जर्मनी पहुंच गए। उनका विश्वास था कि कांग्रेस के असहयोग और सत्याग्रह आंदोलन के शस्त्र की धार इतनी पैनी नहीं है कि वे ब्रिटिश राजनीति के मोटे कवच को भेदकर उनकी ह्रदय गति को बंद कर सकें। अंततः उन्होंने देश से बाहर जाकर विदेशी सहायता से सेना को संगठित करने का निश्चय किया। उन्होंने पश्चिमी देशों में घटित क्रांतियों, सर्वहारा वर्ग के हित में बनाए गए उन देशों के संविधानों का अध्ययन किया। लेनिन, स्टालिन, डी बलेरा, कमाल अतातुर्क, हिटलर, मुसोलिनी आदि की नेतृत्व क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन कर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि भारत में राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप निस्तेज है और उसे जागृत करने के लिए युवाओं को प्रेरित करना आवश्यक है। युवा शक्ति की भागीदारी के बिना आजादी संभव नहीं है। उन्होंने देश की हालत के संबंध में रोम्याब-रोलां से भी मुलाकात की।
जब मुसोलिनी ने कहा भारत की आजादी पक्की है
मुसोलिनी ने जब सुभाष चंद्र बोस से पूछा कि उनका विश्वास सुधारवाद में है या क्रांति में। तो सुभाष ने उत्तर दिया क्रांति में। यह सुनकर मुसोलिनी मुस्कुराए और कहा तब तो भारत की आजादी पक्की है। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हुआ। सुभाष बाबू को लगा कि इस समय इंग्लैंड संकट में है और देश की आजादी के लिए ये उपयुक्त अवसर है। किंतु कांग्रेस को अपने अनुकूल परिवर्तित करने में वे सफल नहीं हो सके।
सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फ़ौज का गठन किया
जहां साधना होती है वह साधनों की अल्पता अर्थहीन हो जाती है। जर्मनी से भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने में सहायता प्राप्त करना कठिन था। किंतु सुभाष के महान व्यक्तित्व, आत्मबल और उद्देश्य की पूर्ति करने के लिए सर्वस्व न्योछावर करने के दृढ़ संकल्प से प्रभावित होकर हिटलर ने “प्राईज इंडिशे फुहरर” अर्थात आजाद हिंद के नेता के रूप में उनका स्वागत किया। वहां से वे जापान पहुंचे जहां इंडियन इंडिपेंडेंस लीग के संस्थापक और गदर पार्टी के क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से मिले और जापान में रहकर आजाद हिंद सेना का गठन किया। ब्रिटेन और अमेरिका के विरोध में युद्ध लड़ना आरंभ किया। 21 अक्टूबर 1943 को अंततः सिंगापुर में आजाद भारत की अस्थाई सरकार की घोषणा कर दी गई। जापान जर्मनी इटली चीन आदि देशों ने आजाद हिंद सरकार की स्वतंत्रता को एक मत से स्वीकार कर लिया।
सुभाष के “दिल्ली चलो” और “जय हिंद” के बुलंद नारों ने सिपाहियों में जादू सा प्रभाव डाला। कोहिमा मणिपुर के युद्ध में आजाद हिंद फौज के सिपाहियों ने अद्भुत पराक्रम दिखाया। किंतु अचानक विश्व युद्ध का रुख बदल गया। ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों ने विजय प्राप्त कर ली। हिटलर की आत्महत्या और जर्मनी की हार से आजाद हिंद फौज की लड़ाई प्रभावित हुई। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर अमेरिका द्वारा बम गिराने से जापान ने भी आत्मसमर्पण कर दिया। सुभाष ने कहा कि यह एक सामान्य सामयिक असफलता है। हम शीघ्र ही यह युद्ध प्रारंभ करेंगे और जीतेंगे। हमारी भारत भूमि अब अधिक दिनों तक गुलाम नहीं रहेगी।
आज भी पहले है सुभाष चंद्र बोस का अवसान
देशभक्ति शब्द किसी भी व्यक्ति के लिए उसके देश के प्रति प्यार, निष्ठा और अपने नागरिकों के साथ गठबंधन और भाईचारे की भावना को दर्शाता है। ये बिना किसी शर्त के राष्ट्र का सम्मान और समर्थन करता है। अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम और उसके लिए कुछ भी करने का उत्साह और बलिदान की भावना रखने वाले को देशभक्त कहा जाता हैं, देशभक्ति लोगों को देश के प्रति जीने, प्यार करने, लड़ने तथा जरूरत पड़ने पर अपने प्राणों को न्योछावर करने के लिए प्रोत्साहित करती है। ऐसे ही सच्चे देशभक्त थे सुभाष चंद्र बोस जिन्होंने भारत को स्वतंत्रता दिलाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। 23 अगस्त 1945 को अचानक जापान के टोक्यो न्यूज़ एजेंसी ने यह अविश्वसनीय खबर प्रसारित की कि 18 अगस्त को सुभाष चंद्र बोस हवाई जहाज की दुर्घटना में इस संसार से चले गए। यद्यपि आज भी उनके अवसान को लेकर रहस्य बना हुआ है।
अखंड भारत का सपना देखा था सुभाष चंद्र बोस ने
निसंदेह सुभाष चंद्र बोस के लिए भारत की आजादी अपने प्राणों से भी ज्यादा प्यारी थी किंतु वे अखंड भारत की आजादी के प्रबल समर्थक थे। उनकी अर्चना और आराधना के राष्ट्र का स्वरूप बहुत विराट था। वह संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न और शक्तिशाली और विश्ववंध्य भारत था। वे अखंड भारत की आजादी के लिए कुछ वर्षों के विलंब के लिए तैयार थे किंतु यह उन्हें बिल्कुल स्वीकार नहीं था कि भारत माता का कोई अंग काटकर उसे बंधन मुक्त किया जाए क्योंकि उनकी कल्पना में खंडित भारत की आजादी का स्वप्न था ही नहीं। वे भारत के मुक्ति संग्राम के ऐसे अपराजेय योद्धा हैं जो सदियों तक हमारे प्रेरणा दीप बन कर राष्ट्र की बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्यौछावर करने की प्रेरणा देते रहेंगे। सुभाष जैसे महान क्रांतिकारी युगदृष्टा को शत-शत नमन।