स्वतंत्रता सेनानी नक्षत्र मालाकार की 119 वीं जयंती पर विशेष :
●भरतीय आजादी की विस्मृत योद्धा नक्षत्र मालाकार
●स्वतंत्रता सेनानी वीर योद्धा नक्षत्र मालाकार जिसे लोगों ने भुला दिया
● अंग्रेजों और देशी राजाओं की फाइलों में “रॉबिनहुड” थे नक्षत्र मालाकार
● बिहार की नई पीढ़ी अब क्रांतिवीर नक्षत्र मालाकार को नहीं जानती
राकेश बिहारी शर्मा – भारतीय जनता की मुक्ति और आजादी का एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी क्रांतिकारी योद्धा जो इतिहास में डकैत, हत्यारा, रॉबिनहुड कहलाया। जिसने आजादी के लड़ाई की शुरुआत कांग्रेस से की। बाद के दिनों में वह सोशलिस्ट हो गया और आखिर में कम्युनिस्ट। पर वह इन सबसे अलग अपनी तरह का निर्भीक क्रांतिकारी लड़ाका था, जो अत्याचारियों को सजा देता था। जमींदारों के गोदाम लूट लेता था और गरीबों में वितरित क्र देता था। नक्षत्र मालाकार यानी एक जीवित किंवदंती। इतिहास का ऐसा लिजेंड्री नायक जो ब्रिटिश और भारतीय दोनों सरकारों के लिए आजीवन ‘ए नोटेरियस’ डकैत और कम्युनिस्ट बना रहा। ये माली जाति के वीर योद्धा क्रांतिकारी नक्षत्र मालाकार माली समाज में जन्मे नक्षत्र मालाकार का नाम अंग्रेजों और देशी राज की फाइलों में “रॉबिनहुड” के नाम से विख्यात है। आज़ादी के पहले उनका अधिकांश जीवन अंग्रेज़ों तथा आततायी सामंतों से खूनी भिडंत में बीता, तो आज़ाद भारत में भी साजिस 14 साल तक उन्होंने जेल की सज़ा काटी। नक्षत्र मालाकार का जन्म तत्कालीन पूर्णिया जिले के समेली गांव में 9 अक्टूबर 1905 को एक गरीब माली परिवार में हुआ था। आज वह स्थान कटिहार जिले की सीमा में है। समेली बिहार का अपनी तरह का अकेला वह विलक्षण गांव हैं, नक्षत्र मालाकार के पिता लब्बू माली अत्यंत गरीब गृहस्थ थे। उनकी दो शादियां हुई थी। पहली पत्नी सरस्वती से दो पुत्र- जगदेव और द्वारिका हुए। पहली पत्नी के निधन के बाद दूसरी पत्नी लक्ष्मी देवी से दो पुत्र- नक्षत्र मालाकार और बौद्ध नारायण एवं तीन पुत्री- तेतरी देवी, सत्यभामा एवं विद्योतमा हुआ। पहले हुए नक्षत्र मालाकार। अपने 82 साल के जीवन का हर लम्हा उन्होंने सामंती शक्तियों के विरुद्ध लोहा लेते बिताया। नक्षत्र मालाकार के जन्म के सम्बंध में विभेद है। कहीं पर 1903 कहीं 1905 कहीं 1909 तो कहीं 1910 है। उनके जन्म को लेकर इस तरह की मतभिन्नता स्वयं उनके घर परिवार में भी है। निचले पायदान में जन्मी जातियों में कुंडली बनाने का विधान नहीं होने और अशिक्षा के कारण भी लोगों को उनके जन्मदिन याद नहीं रख सके थे। नक्षत्र की भी वास्तविक जन्म तिथि अनुमान पर ही तय की गई होगी। उनके घर बरारी में उनकी ही पहल पर स्थापित भगवती महाविद्यालय के रजिस्टर में उनका जन्म 9 अक्टूबर 1905 दर्ज है। यह प्रमाण स्वयं नक्षत्र जी ने ही कॉलेज को उपलब्ध करवाया था। एक दौर था जब 20 वीं सदी के तीसरे दशक से छठे दशक तक उतर बिहार में बस नक्षत्र मालाकार थे और उनकी तलाशी में पूर्णिया के गांवों-कस्बों के चप्पे-चप्पे की तलाशी लेती पुलिस। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए कटिहार में बी.एम.पी.बटालियन-7 की स्थापना की गई। सरकार ने पूरे उतर बिहार के सिनेमा हॉल के रूपहले पर्दे पर उन्हें गिरफ्तार करवाने के इश्तेहार छपवाए। उस समय 25 हजार रुपए तक के इनाम की घोषणा की गई थी। लोग मार खा लेते, पुलिस की यातना सह लेते, लेकिन नक्षत्र मालाकार की सुराग नहीं बतलाते। यह थी उनकी लोकप्रियता का मास अपील। लोगों के लिए वह “रॉबिनहुड” थे- साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु के कालजयी उपन्यास ‘मैला आंचल’ के चरितर कर्मकार की तरह थे। उन्होंने दर्जनों लूट-पाट पुलिस और स्थानीय सामंतों के साथ की और उसका उपयोग मजलूम गरीब जनता के हित के लिए किया। पुलिस अफसर, मुखबिर, फसल की चोरी करने वाले लुटेरे और बलात्कारी सामंतों, महाजनों के नाक-कान काटे और उतर बिहार की जनता को अभयदान प्रदान किया। ब्रिटिश हुकूमत एवं गांव के सम्भ्रांत कहे जाने वाले जागीरदारों, जमींदारों और सवर्ण ऊंची जातियों के उत्पीड़न से शोषित-पीड़ित समाज को मुक्ति दिलाने वाले महान क्रांति योद्धा थे नक्षत्र मालाकार। भारतीय स्वाधीनता संग्राम, उसके इतिहास लेखन और उसकी पूरी वैचारिकी पर इस तरह के पूर्वाग्रह की गहरी छाया आप देख सकते हैं। बिहार का दृष्टांत लें तो यह खाई स्पष्ट तौर पर आजादी के आंदोलन के दौर के इतिहास लेखन से लेकर आज तक के लेखन में आपको पैबस्त नजर आएगी। इसकी जीवंत मिसाल नक्षत्र मालाकार हैं। बिहार में साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोध के वे सबसे बड़े प्रतीक रहे हैं। इतने बड़े प्रतीक कि अंग्रेजी शासन में 9 बार जेल गए और सामंती, महाजनी, प्रतिगामी शक्तियों के विरोध के कारण आजादी के बाद कांग्रेसी शासन में भी आजीवन कारावास की सजा पाई। लेकिन यह बिडम्बनापूर्ण सच है कि उन पर न तो कोई किताब है, न ढंग के कोई शोध ही। समाज में पददलित लोगों का भलाई स्वतंत्रता सेनानी नक्षत्र मालाकार का चिरकालिक लक्ष्य था। इसी आबादी की मान-मर्यादा के लिए वे आजीवन संघर्ष करते रहे। पूर्णिया में उनके ही प्रयासों से सिपाही और ततमा या तांती समुदाय का टोला बसाए गए। रूपौली गांव में मोल बाबू जमींदार द्वारा दान दी गई 14 बीघा जमीन दलित समूह में वितरित हुआ। बखरी और समेली के बीच दरभंगा महाराज की 300 एकड़ जमीन परती पड़ी थी। इसमें 10 गांव की मवेशी चरते थे। कुछ जमींदारों ने उसकी बंदोबस्ती चुपके से अपने नाम करवा ली और उसमें खरी फसल बो दी गई। नक्षत्र ने अपनी 300 गरीब मजदूर सेना के साथ फसल में मवेशी घुसा दी और अंततः वह जमीन पूर्व की भांति लोगों के उपयोग में आने लगी। पूर्णिया जिला में पदस्थापित पदाधिकारी साहित्यकार सुबोध कुमार सिंह बतलाते हैं कि एक समय रूस से उन्हें चिट्ठी आई थी। वहां की सरकार उन्हें सम्मानित करना चाहती थी, लेकिन पूर्णरूप से शिक्षित नहीं होने के कारण वे वहां नहीं जा सके। उन्होंने जनता से 90 एकड़ जमीन इकट्ठा की और अपने गांव बरारी में भगवती मंदिर महाविद्यालय की स्थापना की। महाविद्यालय के नाम रजिस्ट्री के केवला में अध्यक्ष के रूप में उन्हीं का नाम है। अंतिम समय में नक्षत्र ने एक और दुर्लभ काम किए। यह लोक जीवन से जुड़ा अपनी तरह का अनूठा काम था जो उन्होंने लोगों की संगठित श्रम शक्ति से पूरा किया। पूर्णिया नगर से 7 किलोमीटर दक्षिण हरदा गांव के निकट हजारों एकड़ में फैला हुआ था भुवना झील। नक्षत्र ने अंग्रेजी हुकूमत के समय से ही यह दरख्वास्त की थी कि इस झील से एक नहर निकालकर कटिहार के निकट कारी कोशी में मिला दी जाए तो हजारों एकड़ जमीन पानी से बाहर आ जाएगी। सेमापुर एवं कटिहार के बीच प्रसिद्ध यह भुवना झील पौन मील चैड़ी और 18 मील लंबी झील थी। उन्होंने कांग्रेसी सरकार से भी अपील की लेकिन जब कोई नतीजा नहीं निकाला तो गरीब किसान और मजदूरों को एकजुट कर 1 मई, 1967 को कुदाल डलिया लेकर भुवना झील की खुदाई में हाथ लगा दिया। इस पर बड़े जमींदारों ने उन पर मुकदमा चलाया। तत्कालीन जिला पदाधिकारी, आरक्षी अधीक्षक पुलिस बल के साथ झील की खुदाई रोकने आए किंतु किसान मजदूरों की संगठित चट्टानी एकता का वे बाल बांका नहीं कर पाए। जल्द ही भुवना झील से नहर कटिहार के निकट कारी कोशी में मिला दी गई। जल स्रोत वेग के साथ कारी कोशी के साथ मिलकर भवानीपुर गांव के निकट गंगा नदी में मिल गया। इससे जो जमीन बाहर निकली मालाकार जी ने उन्हें किसान मजदूरों के बीच बांट दी। वह नहर नदी के रूप में आज भी वहां के लोकमानस में मालाकार नदी के रूप में जानी जाती है। सामाजिक गैर बराबरी को मिटाने के लिए अपने यहां कई तरह के आंदोलन हुए हैं। बुद्ध, फुले, आंबेडकर, पेरियार से लेकर नक्सलवाद तक में हम इसका विस्तार देख सकते हैं। नक्षत्र मालाकार इतिहास की इसी धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले अपनी तरह के विलक्षण समाज सुधारक थे। अपराधी की नाक-कान काटना-यह उनका दंड विधान था, जो सीधे-सीधे समाज से जुड़ता था। इसके पीछे उनकी धारणा रही होगी कि दंड पानेवाला समाज में निंदा और उपहास का पात्र बनने के लोक-लाज से अनैतिक काम करने से डरेगा, गरीबों के उत्पीड़न से बाज आएगा। सामाजिक बहिष्कार का इससे बड़ा दंड दूसरा नहीं हो सकता। नवजागरण पर काम करनेवालों के लिए नक्षत्र का यह प्रयोग एक रिसर्च का दिलचस्प विषय हो सकता है। अपनी अप्रकाशित डायरी में नक्षत्र ने उस दौर के जो अनुभव साझा किए हैं उसमें उनके जीवन संघर्ष का पूरा परिवेश अपनी पूरी रंगत के साथ उपस्थित है। यहां वे विस्तार से चिन्ह्ति करते हैं कि अंग्रेजी अफसरों और सामंतों का संयुक्त मोर्चा उन्हें और उनके साथियों को बदनाम करने के लिए किस तरह लूट-पाट और बलात्कार की घटना को अंजाम दे रहा था। नक्षत्र मालाकार कांग्रेस, कांग्रेस सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट तीनों पार्टियों में अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ता रहे थे इसलिए ऐसी बदनामियों से भी बेदाग निकले। लेकिन आज बिहार की नई पीढ़ी क्रांति योद्धा नक्षत्र मालाकार को नहीं जानती। इनके द्वारा स्वतंत्रता संग्राम में किए गये काम का कोई विधिवत संरक्षण नहीं किया गया। यह सब इसलिए नहीं हुआ क्योंकि ये बिहार के पिछड़े समुदाय माली जाति के थे। यह जबावदेही बिहार के अकादमिक जगत की थी कि वह इस तरह के आदर्श लोगों का लिखा, किया संजोता और उसका प्रकाशन करता। लेकिन बिहार के अकादमिक जगत में जिन जाति समूहों का कब्जा है उसके रहते यह सब संभव नहीं। इतिहास उनका लिखा जाता है जिन्होंने कुर्बानियां दीं, स्थापित व्यवस्था और सत्ता को चुनौती दी, लेकिन बिहार में अभी भी उच्च जाति के नेताओं के नाम ही निर्माता के रूप में अकादमिक जगत की पुस्तकों के सिरमौर हैं। बिहार राज्य अभिलेखागार के प्रकाशनों पर नजर दौड़ाएं तो यह बात बखूबी समझी जा सकती है। 27 सितंबर, 1987 को अपने घर पर ही किडनी फेल हो जाने के कारण इलाज के अभाव में उनकी मौत हो गई। उस समय वे 82 वर्ष के थे। अपने दौर के इतने बड़े दिग्गज का पूरा घर परिवार समाज की सेवा में इसी तरह अपने को होम करता हुआ एक साधारण गरीब की तरह इलाज के अभाव में मरा। जातिवादी अकादमिक बिरादरी इतिहास में उनकी एक दूसरी मौत का जश्न मना रहा है उनकी आपराधिक उपेक्षा करके। लेकिन जन-जन का नायक-हमारा चिरंतन विद्रोही कभी नहीं मरता! वह इतिहास के रंगमंच पर एक बार फिर अवतरित हो रहा है- आकाश में हमेशा चमकते ध्रुव नक्षत्र की तरह! नक्षत्र मलाकार शायद भारत के स्वतंत्रता संग्राम के उन सिपाहियों में थे जिन्हें यह पता चल गया था कि भारत की नयी व्यवस्था वास्तव में शक्ति का हस्तांतरण था, एक तरह का सत्ता परिवर्तन था। इससे बदलाव तो आएगा लेकिन गरीबों के लिए यथेष्ट नहीं होगा। इसलिय संघर्ष विराम देने के बदले उसके नये आयाम खोलने होंगे। भले ही उनका तरीक़ा गांधीवादी नहीं था लेकिन उद्देश्य गांधी के क़रीब था। साधन और साध्य के बहस में वे गांधी के पक्ष में भले ही नहीं हों लेकिन वह चरित्र गांधीवादी था।