Friday, September 20, 2024
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विद्यालय में शिक्षा और शिक्षक की भूमिका पर विशेष :

विद्यालय में शिक्षा और शिक्षक की भूमिका पर विशेष :

●शिक्षक वास्तव में देश के भाग्य-निर्माता होते हैं

राकेश बिहारी शर्मा–शिक्षक शिक्षण कार्य करने वाला या शिक्षा प्रदान करने वाले व्यक्ति को कहते हैं। शिक्षा व्यवस्था में बालक का सर्वांगीण विकास शामिल है। अतः व्यक्ति चाहे भाषा की शिक्षा दे या विज्ञान की या गणित की या खेलकूद की वह शिक्षक है। अध्यापक वह व्यक्ति होता है जो अध्ययन के साथ अध्यापन कार्य करता है। अध्यापन कार्य शिक्षा से सीमित है। अध्यापन पाठ्यपुस्तक आधारित होता है जिसमें बच्चों को पाठ पढ़ाना, समझाना और याद कराना शामिल है। इसमें विशेषतः सैद्धांतिक ज्ञान शामिल है।
गुरु शब्द को विस्तृत अर्थ वाला माना जाता है। कुछ लोगों के अनुसार गुरु वह है जो आपको अंधकार से प्रकाश में ले जाए। कुछ लोगों के अनुसार गुरु वह है जो आपके अंदर गुरुता यानी ज्ञान की वृद्धि जाग्रत कर सके, और आपको क्षेत्र विशेष में ऊँचाई पर ले जाए। आपको महारत हासिल करा सके। इसलिए क्षेत्र विशेष जैसे संगीत, कला, नृत्य या कोई विशेष दस्तकारी सिखाने वाले को गुरु कहा जाता है।
शिक्षक भावी पीढ़ियों के दिमाग और चरित्र को आकार देकर सामाजिक कल्याण को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे न केवल ज्ञान प्रदाता हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव के लिए मार्गदर्शक, रोल मॉडल और उत्प्रेरक के रूप में भी काम करते हैं। एक शिक्षक मात्र समाज कल्याण ही नहीं बल्कि राष्ट्र के निर्माण में भी अपना योगदान देते हैं
किसी भी विद्यालय को संचारु रूप से संचालित करने तथा उसकी उन्नती एवं विकास में प्रधानाध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी तथा अन्य कर्मचारीगण सभी अपनी-अपनी भूमिका रखते हैं। इसके अतिरिक्त विद्यालय को भली प्रकार से चलाने के लिए भौतिक साधन जैसे विद्यालय-भवन, पाठ्यक्रम, पाठ्य पुस्तकें, निर्देशन, पाठ्य सहगामी क्रियाएँ, समय-सारिणी, सभी की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। परन्तु इस सत्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि विद्यालय के संचालन में, उसकी गतिविधियों में शिक्षक का स्थान बहुत ही प्रतिष्ठित, गरिमामय तथा महत्वपूर्ण होता है।
विद्यालय की सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में शिक्षकों की बहुत ही अहम् और महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विद्यालय में बालकों अर्थात देश के भावी नागरिकों का निर्माण होता है और ये इस निर्माण के कर्णधार होते हैं। आज शिक्षा का उद्देश्य बालकों का केवल मानसिक या किसी एक पक्ष का विकास करना ही नहीं है बल्कि आज शिक्षा का उद्देश्य है बालकों के सभी पक्षों का विकास करके उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण और सामंजस्य पूर्ण विकास करना है। इस उद्देश्य की पूर्ति पूर्णतया शिक्षकों पर ही निर्भर करती है। शिक्षक ही यह शक्ति है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बालकों पर अपना प्रभाव डालती है। यदि शिक्षक योग्य, अनुभवी और कर्त्तव्यपरायण हो तो बालक भी अवश्य ही उसी के अनुरूप बनेंगे। बालक के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षक का अत्यधिक योगदान होता है। शिक्षक ही वह व्यक्ति है जो बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास कर उसमे अच्छे मूल्यों और आदर्शों को विकसित करता है जिससे कि वो आगे चलकर देश के उत्तम नागरिक बनें और देश की उन्नति एवं विकास में अपना योगदान दे सकें। शिक्षकों के कन्धों पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व होता है। वास्तव में, वे ही देश के भाग्य-निर्माता होते हैं।
विद्यालय एक बगीचे के समान होता है, बालक छोटे-छोटे पौधे के समान और शिक्षक की भूमिका एक कुशल माली के रूप में होती है। वह पौधों की देखभाल बहुत सावधानी से करता है। उन्हें हरा-भरा रखता है तथा सही दिशा में विकसित होने का अवसर देता है ताकि वह सौंदर्य और पूर्णता प्राप्त कर सके। शिक्षक भी यही कार्य करता है। वह अपने अनुभव और कौशल द्वारा बालकों के वांछनीय एवं उत्तम विकास में सहायता करता है।
विद्यार्थी जिस ज्ञान एवं सत्यों की प्राप्ति करता है वे विश्वसनीय हैं या नहीं इसकी परीक्षा के लिए भी शिक्षक की आवश्यकता होती है। प्रत्येक विद्यार्थी की बुद्धि इतनी परिपक्व नहीं होती कि वह अपने किए गए कार्यों की जाँच स्वयं भली प्रकार से कर सके। इसके लिए भी शिक्षक होना आवश्यक है। इस प्रकार बालक के मार्ग-दर्शक के रूप में कार्य करता है।

शिक्षक की भूमिका और उसका महत्व

शिक्षक की भूमिका और उसके महत्व के सम्बन्ध में विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों ने अपने विचार प्रकट किए हैं जैसे- प्रो. लक्ष्मीकांत सिंह- “अच्छे अध्यापकों के बिना सर्वोत्तम शिक्षा-पद्धति का भी असफल होना आवश्यम्भावी है। अच्छे अध्यापकों द्वारा शिक्षा-पद्धति के दोषों को भी दूर किया जा सकता है।”
डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार-“अध्यापक का समाज में बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है। वह उस धुरी के समान है जो बौद्धिक परम्पराओं तथा तकनीकी क्षमताओं को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करता है और सभ्यता की ज्योति को प्रज्वलित रखता है।”
माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार-“शिक्षा के पुनर्निर्माण में सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व शिक्षक उसे व्यक्तित्व, गुण, उसकी शैक्षिक योग्यताएँ, उसका व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा उसका स्कूल एवं समुदाय में स्थान, ही है। विद्यालय की प्रतिष्ठा तथा समाज के जीवन पर उसका प्रभाव निःसंदेह रूप से उन शिक्षकों पर निर्भर है जो कि उस विद्यालय में कार्य कर रहे हैं।”
इतिहासकार प्रो. लक्ष्मीकांत सिंह के शब्दों में- “इतिहास का वास्तविक निर्माता अध्यापक ही होता है।” उपरोक्त विवरण से शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक का महत्व स्पष्ट हो जाता है। विद्यालय का भवन, साज-सज्जा तथा अन्य उपकरण कितने भी अच्छे हों, प्रधानाध्यापक कितना भी दक्ष एवं कुशल प्रशासक हो परन्तु यदि शिक्षक योग्य एवं कुशल नहीं हैं, उनमें अपने कार्य के प्रति सच्ची लगन, ईमानदारी एवं समर्पण के भाव नहीं है तो विद्यालय में शिक्षाप्रद वातावरण का निर्माण नहीं किया जा सकता। विद्यालय की व्यवस्था, उसका संचालन भी ठीक प्रकार से नहीं हो सकता।
विद्यालय की इमारत उसके उपकरण तथा वातावरण चाहे कितने ही अच्छे प्रधानाचार्य और विद्यालय समिति कितनी ही अच्छी क्यों न हो, यदि उस विद्यालय में कुशल शिक्षक नहीं है, उनके अपने कार्य के प्रति विश्वास नहीं है, विद्यालय में वे अपना निकट का सम्बंध नहीं मानते तथा व्यवसायिक कुशलता तथा पेशे के प्रति आस्था का अभाव है तो उस विद्यालय में भौतिक सुविधाएँ चाहे जैसी भी हों शिक्षा का वातावरण अनुकूल नहीं बन सकता और उस विद्यालय में निकले हुए छात्र समाज के लिए भार होंगे। इसीलिए कहा जाता है कि शिक्षक का व्यक्तित्व वह धुरी है जिस पर शिक्षा व्यवस्था घूमती हुई नजर आती है।
प्राचीन काल में शिक्षा के क्षेत्र में शिक्षक को बहुत अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। उस समय शिक्षक का स्थान प्रमुख था तथा बालक का स्थान सामान्य था परन्तु आज स्थिति बदल गयी है। आज बालक शिक्षा का केन्द्र माना जाता है। आज के शिक्षाशास्त्री बाल केन्द्रित शिक्षा पर बल देते हैं। यद्यपि आज शिक्षा में बालक का स्थान मुख्य है, आज बालक की जन्मजात शक्तियों के विकास के शिक्षा माना जाता है फिर भी शिक्षक का उत्तरदायित्व, उसका महत्व आज भी कम नहीं है। शिक्षक के बिना शिक्षा की प्रक्रिया चल सकती है इस बात की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। आज शिक्षक के लिए केवल अपने विषय का ज्ञान होना ही पर्याप्त नहीं है वरन् बच्चों को समझने के लिए आज उसे बाल-मनोविज्ञान का ज्ञान होना भी परम् आवश्यक है। आज शिक्षक कार्य केवल अपने व्यक्तित्व के बालकों के आकर्षित करना ही नहीं है वरन् इसके साथ-साथ आज उसका कार्य ऐसे वातावरण का निर्माण करना भी है जिसमें रहकर बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें साथ ही साथ समाज के कल्याण और राष्ट्र की उन्नति एवं विकास में भी अपना योगदान दे सकें। यही कारण है कि आज विश्व के समस्त राष्ट्र शिक्षा की प्रक्रिया में शिक्षक के महत्व को स्वीकार करते हैं।
एक शिक्षक की विशेषताएँ- एक अच्छे शिक्षक की विशेषताएँ इस प्रकार हैं- (1)अपने विषय पर पूर्ण अधिकार, (2) जिज्ञासा और अध्ययनशीलता, (3) शिक्षण कला का ज्ञान, (4) अभिनव शिक्षण पद्धतियों और प्रयोगों से परिचित, (5) वाणी से ओज और स्पष्टता, (6) आकर्षक शारीरिक व्यक्तित्व, (7) विनोद प्रियता, (8) अन्य विषयों पर सामान्य ज्ञान, (9) दृढ़ चरित्र और नैतिकता, (10) पेशे में दृढ़ निष्ठा और स्वाभिमान, (11) पाठ्य सहगामी क्रियाओं मैं विशेष रुचि, (12) आदर्शवादिता, (13) निष्पक्षता, (14) प्रभावोत्पादक भाषण शक्ति, (15) सत्यप्रेम, (16) नेतृत्व शक्ति, (17) छात्रों से पुत्रवत् व्यवहार, (18) पाठ्य विषयों पर अधिकार, (19) अनुगामिता, (20) उच्च कोटि की नैतिकता।

एक ‘शिक्षक’ और एक ‘गुरु’ में फर्क होता है

एक शिक्षक किसी विशेष पाठ्यक्रम या विधा को सिखाता है, जबकि एक गुरु विद्या का दान करता है। एक शिक्षक पूर्व निर्धारित पारिश्रमिक लेता है, जबकि एक गुरु बिना किसी पारिश्रमिक की आशा से विद्या का दान करता है और विद्यार्जन के बाद छात्र स्वयं गुरु से गुरु दक्षिणा मांगने को कहता है।
विधा और विद्या में अंतर होता है- विधा का तात्पर्य किसी विशेष कार्य कुशलता से होता है जिससे व्यक्ति का जीवन निर्वाह हो सके। जबकि विद्या के बारे में हमारे शास्त्रों में लिखा है- ‘सा विद्या या विमुक्तये’ अर्थात जो मुक्त कर दे वही विद्या है। ऐसी विद्या को धारण करने वाले व्यक्ति को ही विद्वान कहते हैं। एक विद्वान मनुष्य ही गुरु हो सकता है जबकि कोई कार्य कुशल व्यक्ति आराम से शिक्षक हो सकता है। अज्ञान का अंधकार दूर करने वाले को गुरु कहते हैं, जबकि किसी विशेष विधा की अनभिज्ञता को दूर करने वाले को शिक्षक कहते है। जीवन मे गुरु और शिक्षक दोनों अनेक हो सकते हैं…..परंतु आत्म ज्ञान देने वाला सद्गुरु केवल एक होता है। आत्म ज्ञान को प्राप्त करने के बाद परम ब्रह्म को जानने के लिए सद्गुरु की आवश्यकता नही होती, क्योंकि व्यक्ति मोक्ष के पथ पर अकेला ही चलता है।

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