राकेश बिहारी शर्मा – महाबली बाबा चौहरमल बहुजनों के महानायक थे। उनका इतिहास बड़ा ही त्याग और संघर्षमय रहा है। बाबा चौहरमल का सम्पूर्ण जीवन शील (सद्आचरण) का अनुपालन करते हुये सामंतवाद के विरूद्ध छेड़े गये संघर्ष का प्रतीक है। अपनी जान की परवाह न करते हुये बाबा चौहरमल ने बहुजन समाज को सामंती शोषण और अत्याचार से बचाया। बाबा चौहरमल का वैसे तो कोई लिखित इतिहास नहीं है फिर भी उनकी वीरता की श्रमण संस्कृति से यशोगाथा लोकगीतों में गूंजती है।
महाबली चौहरमल का जन्म और पारिवारिक जीवन
महाबली बाबा चौहरमल बिहार के रहने वाले थे। उनका जन्म 04 अप्रैल 1313 को चैत पूर्णिमा के दिन बिहार में मोकामा अंचल क्षेत्र के धौरानी टोला गाँव (शंकरवाड़ टोला) में हुआ था। तब इस क्षेत्र को मगध के नाम से जाना जाता था। उनका महापरिनिर्वाण (शरीरांत) 120 वर्ष की आयु में 01 नवम्बर 1433 में हुआ। इनके पिता बन्दीमल (बिहारीमल) और माता रघुमती थी। इनका कर्मस्थान मोकामा टाल के चाराडीह में था औऱ इससे 14 किलोमीटर दूर तुरकैजनी गांव में इनका ननिहाल था। समाज हित हेतु ब्राह्मणी और सामंती ताकतों से लगातार संघर्षरत रहने के कारण इन्हें चारडीह,-तुरकैजनी भाग दौड़ करना पड़ता था। चौहरमल शारीरिक रूप से बलिष्ठ, सुडौल, सुंदर और संयमी थे। वे दूसरे गांवों में जा कर सामाजिक विवादों को सुलझाया करते थे। उन्हें काफी मान-सम्मान मिलता था। मोकामा टाल के चाराडीह में उनका अखाड़ा था। वहाँ ये सुबह-शाम पहलवानी किया करते थे। वर्तमान में भी प्रत्येक चैत पूर्णिमा को मोकामा के चाराडीह में एक सप्ताह का भव्य मेला लगता है जिसमें लाखों लोग देश के कोने-कोने से शिरकत करते हैं। मेले के दौरान प्रशासन की चुस्त-दुरूस्त व्यवस्था रहती है। उस समय ब्राह्मणवादी और सामंतवादी व्यवस्था चरम सीमा पर थी। स्वाभिमानी होने के नाते चौहरमल का अधिकांश जीवन सामंतवादियों के विरूद्ध टक्कर लेने में ही वीता। वे अपनी बुद्धिमता और ताकत के बल पर कई जमीनदारों के छक्के छुड़ाये थे।
बौद्ध संस्कृति के रक्षक महाबली बाबा चौहरमल
बिहार बौद्धों का प्रमुख निवासस्थान रहा है। यही वह स्थान है जहाँ विश्व को आलोकित करने वाले भगवान बुद्ध को सम्यक सम्बोधि (विश्व को कल्याण करने बाला ज्ञान) लाभ हुआ था। वे राजगृह के बेनुवन में कई वर्षावास विताये। गृध्रकुट पर्वत उनका प्रिय स्थान था। यहाँ पर तथागत बुद्ध चंक्रमण किया करते थे। उनके मृत्यु के पश्चात् राजगृह के सप्तपर्णी गुफा में वरिष्ठ बौद्धों की प्रथम धर्म संगिती आयोजित हुई थी।
यह सप्तपर्णी सम्राट अशोक का बनवाया हुआ विश्व प्रसिद्ध बोधि मंदिर बोधगया में आज भी बौद्ध संस्कृति के इतिहास की याद दिलाता है। बुद्ध और उनके अनुयायी अशोक के कारण ही बोधगया अन्तर्राष्ट्रीय धरोहर और वौद्ध दर्शनीय स्थली बना है। इतिहास, पुरातत्व और अनुवांशिक विज्ञान द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि भारत के मूलनिवासी बहुसंख्यक समाज (एससी / एसटी, पिछड़ा, अतिपिछडा वर्ग और धर्म परिवर्तित समुदाय) के पुरखे श्रमण संस्कृति अथवा बौद्ध धर्म में विश्वास करते थे जिन्हें विदेशी आर्य मनुवादियों ने 3500 सौ वर्ष पूर्व (ई. पू. 1500) भारत पर आक्रमण कर नष्ट किया। विदेशी आर्य ने भारत को जीत कर असमानता पर आधारित वर्णाश्रम धर्म या सनातनी धर्म की स्थापना किया जो आगे चल कर हिन्दू धर्म के नाम से प्रचलित हुआ।विश्व-प्रसिद्ध पुरातत्वविद् सर जॉन मार्शल द्वारा 1921 में सिन्धुघाटी सभ्यता की करायी गई खुदाई में प्राप्त पीपल-पत्र, सांढ़, हिरण, गज और योग मुद्रा वाले सिक्कों के अध्ययन से यह प्रमाणित हुआ है कि ये सारे चिन्ह बौद्ध संस्कृति से जुड़े हैं। गौतम बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुसंघ की स्थापना एवं बौद्ध धर्म के नीति सिद्धान्तों का प्रतिपादन एवं विस्तार किया था।सामाजिक क्रांति का इतिहास भगवान बुद्ध से ही शुरू होता है। बुद्ध संसार के प्रथम समाज सुधारक थे। समाज सुधार का अर्थ है मनुवादी व्यवस्था पर स्थापित समाज को ध्वस्त कर समानता, स्वतंत्रता और भाईचारा पर आधारित समाज की स्थापना करना। बुद्ध के बाद जितने भी मूलनिवासी संत कवि, क्रांतिकारी और महानायक पैदा हुये, उन सबों पर बौद्ध धर्म का प्रभाव था, वे सभी बौद्ध थे और बुद्ध के विचारों से सराबोर थे। बहुजन के महानायक बाबा चौहरमल भी बौद्ध थे। वे पक्के वौद्धिष्ट थे जो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व से पता चलता है।
चौहरमल सामंती दमन के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीक
चौहरमल सामंती दमन के विरुद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। वे चाराडीह में सामुहिक खेती-बारी व किसानी शुरू कर उस इलाके के लोगों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। गियासुद्दीन मुहम्मद बिन तुगलक ने चौहरमल को 100 बिगहा खेती योग्य भूमि का भूमि-पट्टा दिया था जिस पर भूमिहार सामंतों की नज़र गड़ी थी। चौहरमल ने सामंतों के अत्याचार से लोहा लेने हेतु चाराडीह को युद्ध कला ज्ञान हासिल करने का प्रशिक्षण केंद्र बनाया था जिसमे वे अस्त्र संचालन का प्रशिक्षण देते थे।
लोक-देवता और कुल-देवता के रूप में चौहरमल
चौहरमल को मोकामा के आस पास के लोग लोक-देवता और कुल-देवता के रूप में पूजते हैं। घर आंगन में मिट्टि की गुम्बदाकार पिंडी बना कर उनकी पूजा होती है। बौद्ध संस्कृति में यही पिंडी स्तूप कहलाता है जिसमें बुद्धों और बोधिसत्वों का अस्थि भस्म रखा हुआ होता है। चाराडीह में उनका विहार है जहां प्रत्येक वर्ष चैत्र माह में एक हप्ते का विशाल मेला लगता है। यहां भी इनकी पिंडी है जिसकी पूजा कई सालों से होती आ रही है। बाद में यहां एक आदमकद प्रतिमा भी स्थापित किया गया है। कुछ लोग चौहरमल के ब्राह्मणीकरण का भी प्रयास करते हैं और बताते है कि उनके पास चमत्कारिक शक्तिया थी। परंतु यह सत्य नहीं है। वे महामानव थे और अपने मंगल कृत्यों से पूजित हैं।
चौहरमल पर बौद्ध संस्कृति व शिक्षा का प्रभाव
13 वीं शताब्दी में जन्में दुसाथ जाति के क्रांतिनायक महाबलि बाबा चौहरमल के साथ भी ऐसी ही कई चमत्कारी घटनाओं को जोड़ कर उनकी छवि, वीरता तथा त्याग पूर्ण इतिहास को दवाया गया, झुठलाया गया। तेरहवीं-चौहदवीं शताब्दी के प्रमुख क्रांतिकारी महाकवि रविदास और संत कबीर पर बौद्ध संस्कृति का पूरा-पूरा प्रभाव था। यह उनके पदों में व्यक्त भावों से पता चलता है। बाबा चौहरमल भी बौद्ध संस्कृति से न केवल प्रभावित थे बल्कि उसके रक्षक भी थे। यह उनकी कथाओं से पता चलता है। बाबा चौहरमल के जीवन के साथ कई अप्रासंगिक और चमत्कारिक’ कथाओं को जोड़ दिया गया है। उन्हें डकैत, छली और तस्कर तक कहा गया है। यह सब उनकी छवि को धूमिल करने के उद्देश्य से किया गया है। क्योंकि चौहरमल सवर्णों-सामंतों के लिये चुनौती थे। इसीलिए उनके प्रति तत्कालीन समाज के उनके विरोधियों ने उनके शौर्य और पराक्रम की नाकारात्मक तस्वीर लोक-समाज के सामने रखा ताकि चौहरमल के वंशजों के पास इन पर गर्व करने के लिये कुछ रह ही न जाय। परन्तु इतिहास के सच्चे प्रसंग को अधिक काल तक दबा कर नहीं रखा जा सकता है। आज महाबली बाबा चौहरमल दुसाधों के ही नहीं, अपने पुरुषार्थ और संघर्ष के कारण सम्पूर्ण मानव समाज के लिये आदर्श बन चुके हैं।महाबली चौहरमल के साथ ‘शेर’ दिखाये जाने का प्रश्न है, तो ‘शेर’ अशोक के शासन काल से राजपशु का प्रतीक चिन्ह है। खुदाई में अशोक स्तम्भ पर चार शेरों के सिर वाली आकृति मिली है, जिसे वैशाली और सारनाथ में आज भी देखा जा सकता है। इसी को आजादी के बाद भारतीय गणराज्य का प्रतीक चिन्ह माना गया है। यह शौर्य, शक्ति, संप्रभुता का द्योतक है। सिंधुघाटी सभ्यता ने ‘शेर’ को राजपशु के रूप में मान्यता दी। चूंकि बाबा चौहरमल महावलि थे, इसीलिए उनकी वीरता के प्रतीक स्वरूप उनके साथ शेर का चित्र दिखाया जाता है, न कि दुर्गा के सवारी के रूप में। चार शेरों के सिर युक्त अशोक स्तम्भ बौद्ध-संस्कृति की पहचान है। महाबली बाबा चौहरमल के लिये भी ‘शेर’ प्रिये है, जो उन्हें सदैव उनकी शक्ति और शौर्यगाथा का अहसास कराता है। अतः इससे प्रमाणित होता है कि बाबा चौहरमल बौद्ध धर्म के अनुयायी थे, अर्थात वौद्ध थे।
महाबली चौहरमल और ऐतिहासिक कथा रेशमा
महाबली चौहरमल के जीवन में भूमिहार जाति की रेशमा नाम की एक युवती का बड़ा महत्व है, जो उन्हीं के गाँव के रहने वाली थी। ऐतिहासिक कथा है कि वह चौहरमल से शादी करना चाहती थी। उसकी लाख कोशिशें करने के बावजूद चौहरमल उससे शादी करने से इनकार देते हैं। रेशमा का भाई अजवी सिंह चौहरमल के साथ पढ़ता था। वह पढ़ने में मन नहीं लगाता था तथा विद्यालय से भागा रहता था। एक दिन शिक्षक महोदय ने चौहरमल को आदेश दिया कि वह अजवी सिंह को उसके घर से पकड़ कर विद्यालय लाये। चौहरमल अनुशासन-प्रिय, आज्ञाकारी और मेधावी छात्र थे। वे कुछ लड़कों को ले कर अजवी सिंह के घर जा पहुँचे। रेशमा प्रथम बार चौहरमल को उसी समय अपने घर पर देखी थी। वह चौहरमल के सौम्य, सुन्दर, सुडौल और आकर्षक व्यक्तित्व को देख कर उसी क्षण उन पर मोहित हो गई। किसी भी प्रकार उन्हें पाने के लिये रेशमा मन ही मन संकल्प कर ली। इसके बाद रेशमा के दिल-दिमाग में चौहरमल का ही चेहरा बैठा रहता था। उनके गांव चाराडीह में एक पक्का कुंआ था। रेशमा को पता था कि चौहरमल अपने मवेशियों के चराने तथा किसानी के क्रम में इस कुंए पर पानी पीने आते हैं, इसीलिए वह कोई न कोई बहाना बना कर बार-बार कुंए पर आती थी। वह वहां घंटों बैठ कर चौहरमल के आने का इंतजार करती थी। उनके आने के बाद रेशमा प्रेम-विह्वल तथा अति-भावुक हो कर अपने मन की बात का इजहार करती थी। चौहरमल अजवी सिंह का वास्ता दे कर रेशमा को समझाने का प्रयत्न करते।चौहरमल अजवी सिंह को गुरूभाई मानते थे। गुरूभाई की बहन होने के कारण वे रेशमा को सगी बहन के समान मानते थे। यही कारण था कि चौहरमल रेशमा से विवाह करने से मना कर दिये थे। रेशमा को इस बात का अहसास नहीं था। वह यौवन के झोंके में हिलोरे खा रही थी तथा भाई-बहन के पवित्र रिश्ते के महत्व को भूल चुकी थी। ऐसे भी ऋग्वेद में यम-यमी के संवाद से पता चलता है कि आर्य भाई-बहन में यौन संबंध बनाना बुरा नहीं मानते थे। परन्तु चौहरमल तो अनार्य संस्कृति के वंशज थे, उन्हें भाई-बहन के पवित्र रिश्तों के महत्व का खूब पता था। उस समय समाज में छुआछूत जोरो पर थी। चौहरमल की जाति दुसाध नीच वर्ण और रेशमा की जाति भूमिहार उच्च वर्ण में गिने जाते थे। सामाजिक रूप से दोनों में काफी अन्तर था परन्तु सामाजिक बंधन और संबंधों की पवित्रता को भुला कर रेशमा चाहरमल के सुन्दर, सुगठित शरीर और चेहरे पर मोहित होकर उनके प्रेम में पागल हो चुकी थी तथा उनसे कई बार लिपटने की कोशिश भी की। परन्तु चौहरमल बचते रहे, रेशमा को समझाते रहे, शील और मर्यादा की बातें करते रहे। यह सब संभव हुआ चौहरमल द्वारा शील के अनुपालन से बौद्धों के पंचशील में कहा गया है- “कामेसु मिच्छाचारा बेरमणी सिक्खापदं समादियामि’ अर्थात् व्यभिचार से विरत रहने की शिक्षा ग्रहण करना।
चौहरमल बौद्ध धर्म के पंचशील उपासक और पालक
बाबा चौहरमल बौद्धों के इस पंचशील का हृदय से अनुपालन करते थे अन्यथा कौन नहीं सुन्दर युवती को देख कर उसे पाने के लिए मचल जायेगा? हिन्दू ग्रंथों में बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की लम्बी-लम्बी तपस्याएं मेनका, रम्भा और उर्वशी जैसी अप्सराओं की एक छोटी सी मुस्कान पर स्खलित हो जाने का वर्णन मिलता है। इन्द्र गोतम ऋषि की पत्नी अहल्या से बलात्कार करते हैं, ऋग्वेद और भागवत पुराण के अनुसार ब्रह्मा अपनी बेटी से ही सम्भोग करते दिखाई देते हैं, विष्णु अनार्य राजा जालंधर की पत्नी विंदा की इज्जत लुटते हैं, शंकर को विष्णु का मोहिनी रूप देखते ही मोहित हो जाता है। जबकि दुसाधों के कुल देवता महावलि बाबा चौहरमल गुरू भाई की बहन रेशमा के ऊपर नज़र तक नहीं डालते। यह है स्त्री-सम्मान का बेमिसाल उदाहरण, महावलि चौहरमल के जीवन में वे सामाजिक मर्यादा का प्रत्येक दशा में ख्याल रखते हैं इसीलिए वे रेशमा को वे बहन मानते हैं और बहन से भला कोई कैसे शादी कर सकता है? यह तो घोर अनीति है। बाबा चौहरमल इस अनीति का शिकार होने से स्वयं को बचाते हुये गुरु बहन रेशमा को भी बचा लेते हैं। यह सब बौद्धों के शील पालन से ही संभव हुआ। महाबलि चौहरमल शीलवान और वीर्यवान (ताकतवर) थे। त्यागी, और संघर्पशील थे, योगी और तपस्वी थे। उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी शीलव्रत को नहीं तोड़ा। ऐसे हैं बहुजन के कुल देवता महाबली बाबा चौहरमल!जब रेशमा काम-वासना से अंधी हो जाती है तो चौहरमल को द्वेष पूर्ण भावना से अपना बनाना चाहती है। वह उनके पशुओं को खुले खेतों में चरने से मना करवा देती है। इतना हीं नहीं, वह पहलवान भेजकर चौहरमल पर आक्रमण करवा देती है। चौहरमल पहले तो आत्मरक्षा करते हैं, लेकिन इतना से काम नहीं चलता है तो वे जवाबी प्रहार करते हैं जिसमें रेशमा का पहलवान मारा जाता है। यह पंचशील के “पाणातिपाता वेरमणी सिक्खापदं समादियामि” के अनुपालन का उदाहरण है। इसमें कहा गया है कि अकारण किसी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए अथवा उसे कष्ट नहीं देना चाहिए। परन्तु जब कोई प्रहार करे तो आत्म-रक्षा अवश्य करनी चाहिए। यदि आत्म-रक्षा में प्रहार करने वाले की जान चली जाती है तो यह हिंसा नहीं अहिंसा है। बाबा चौहरमल इस शील का पूरा-पूरा पालन करते थे। वे रेशमा द्वारा भेजे गये पहलवानो पर आत्म-रक्षा के दौरान ही प्रहार करते हैं और वह मारा जाता है। इस प्रकार बाबा चौहरमल प्राणी हिंसा से विरत रहने के शील का पालन करते हैं।
बाबा चौहरमल पर मनुवादियों व सामंतों का षडयंत्र
बाबा चौहरमल द्वारा शादी के प्रस्ताव को इनकार कर देने पर रेशमा कामान्धता के वशीभूत हो कर क्रोधित हो जाती है। वह बदले की भावना से वीर वेश में घोड़ा पर चढ़ कर स्वयं चौहरमल पर आक्रमण करने का संकल्प लेती है तो बाबा चौहरमल यहाँ भी स्त्री हिंसा से विरत रहने के शील का पालन करते हैं। चौहरमल रेशमा को स्त्री समझ कर सम्मान देते हैं तथा उससे युद्ध करने से बचने के लिये कोशिश करते हैं। जब चौहरमल रेशमा की पकड़ में नहीं आते हैं तो व्यग्रता में रेशमा आत्म-हत्या कर लेती है। इस प्रकार चौहरमल स्त्री-हत्या के धर्म संकट से बच जाते हैं। इस घटना के पूर्व रेशमा चौहरमल के प्यार में पागल हो जाती है और वह किसी भी प्रकार से चौहरमल को पाना चाहती है। इसलिए वह अपने से साड़ी, ब्लाउज और चोली फाड़ कर अपने सामंत पिता और भाई से झूठ बोलती है कि ऐसी दुर्गती चौहरमल ने ही किया है। इसके परिणाम स्वरूप चौहरमल के पिता और चाचा को सामंतो द्वारा पकड़ कर उन्हें प्रताड़ित करके जेल में बंद कर दिया जाता है लेकिन चौहरमल अपनी सूझबूझ और वीरता से घमासान लड़ाई लड़ कर अपने पिता और चाचा को मुक्त करा लेते हैं। इतना सब रेशमा के झूठ के नाटक के कारण हुआ परन्तु चौहरमल कभी झूठा आरोप रेशमा पर नहीं लगाये, उसके आचरण पर कभी लांक्षन नहीं लगाये। उसकी अशिष्ट हरकत संबंधी कभी मिथ्या प्रचार नहीं किये, यह है चौहरमल के “मुसावादा वेरमणी सिक्खापदं समादियामि” अर्थात झूठ न बोलने, चुगली और चापलूसी न करने की शील के पालन का मिसाल। बाबा चौहरमल एक अछूत जाति के किसान परिवार में पैदा हुये थे। रेशमा जमींदार की बेटी थी। वह उनको जान से भी ज्यादा चाहती थी। चौहरमल चाहते तो रेशमा की बात मानकर उससे ढेर सारा जेवर, हीरा-ज्वाहरात, पैसा आदि लेने को कह कर किसी अज्ञात जगह भागकर सुख-पूर्वक जी सकते थे परन्तु चौहरमल ने सपने में भी ऐसा नहीं सोचा। क्योंकि वे पक्के बौद्धिष्ट थे और “अदिन्नादाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि” अर्थात किसी की वस्तु को अनाधिकृत रूप से लेने अथवा चोरी करने में विश्वास नहीं करते थे। बाबा चौहरमल एक क्षमतावान, शीर्यवान और शीलवान महान वीर नायक थे। उनका सम्पूर्ण जीवन गाँव के जमीनदार के आतंक और अत्याचार से बहुजन की सुरक्षा में व्यतीत हुआ। वे किसी भी हालात में अन्याय को सहन नहीं करते थे। उनका मानना था कि अन्याय और अत्याचार के सहने से अन्याय और अत्याचार और बढ़ता है, कम नहीं होता है। अतः दबे-कूचले समाज को चाहिए कि हर हाल में अपना मनोबल ऊंचा करके रहे और अपने को हीन नहीं समझे। बीर बाबा चौहरमल अत्यंत आत्मसंयमी और ब्रह्मचर्य जीवन व्यतित करने वाले थे। ये पंचशील के पाँचवा शील “सुरा मेरयमज्ज मादट्ठाना वेरमणी सिक्खापदं समादियामि” याने नशा, शराब सेवन से विरत रहने के शील का पालन करते थे।कुछ लोगों का मानना है कि रेशमा चौहरमल को पति के रूप में पूर्ण समर्पित भाव से चाहती थी। परन्तु यह भारी भ्रम है। अपने समाज की मुक्ति के लिये जब-तब बहुजन नायकों, संतों और महापुरूषों में सामाजिक परिवर्तन के लिये क्रांति-ज्वाला भड़की है; मनुवादियों ने उस पर पानी डालने की भरपूर कोशिश की है। वे उन्हें रोके हैं, बाधित किये हैं यहां तक की जान से मारने तक की कोशिश किये हैं। यदि इन सारी बाधाओं के बावजूद बहुजन नायकों के कदम नहीं रूके तो उनके आगे मनुवादियों ने सुंदर आर्य युवती के रूप में काम-मोह-पास फेंके हैं। महाबली वावा चौहरमल के साथ भी ठीक ऐसा ही हुआ। महाबली बाबा चौहरमल बहुजन हिताय-सर्वजन सुखाय के साथ सम्पूर्ण समाज लिये आदर्श हैं। बहुजन लोग अपने आदर्श और विचार-दर्शन के अनुरूप जीवन जीने का संकल्प ले। अपने गुणों के कारण ही बाबा चौहरमल घर-घर में पूजे जाते हैं।