Wednesday, September 18, 2024
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हिन्दू हृदय सम्राट मराठा गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज की 392 वीं जयंती पर विशेष

प्रस्तुति :- राकेश बिहारी शर्मा – शिवाजी एक कट्टर हिन्दू थे, वह सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उनके राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी। शिवाजी ने कई मस्जिदों के निर्माण के लिए दान भी दिए था। हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान संतों और फ़कीरों को बराबर का सम्मान प्राप्त था। उनकी सेना में कई मुस्लिम सैनिक भी थे। शिवाजी हिन्दू संकृति का प्रचार किया करते थे। वह अक्सर दशहरा पर अपने अभियानों का आरम्भ किया करते थे। हिन्दू हृदय सम्राट मराठा गौरव भारतीय गणराज्य के महानायक थे छत्रपति शिवाजी महाराज। छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को मराठा परिवार में पुणे के पास स्थित शिवनेरी दुर्ग में पिता शाहजी भोंसले और माता जीजाबाई के यहाँ हुआ था। वीर शिवाजी का पूरा नाम शिवाजी राजे भोंसले था। श्रीमंत छत्रपति वीर शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता रहा है, पर यह बिल्कुल गलत है। उनकी सेना में अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी तथा अनेकों मुस्लिम सरदार और सूबेदार भी थे। भारत में शिवाजी का संघर्ष कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था।

मनवता के पुजारी शिवाजी के प्रशासनिक सेवा में कई मुसलमान शामिल

शिवाजी ने सिंहासन पर बैठते ही स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। तथा दबी-कुचली जनता को उन्होंने भयमुक्त किया। हालांकि उस समय ईसाई और मुस्लिम राजाओं ने बल प्रयोग कर जनता पर अपना मत थोपते, और उनसे कई तरह के कर लेते थे। लेकिन शिवाजी के शासन काल में ईसाई और मुस्लिम के धार्मिक स्थलों की रक्षा ही नहीं की गई बल्कि धर्मान्तरित हो चुके मुसलमानों और ईसाईयों के लिए भयमुक्त माहौल भी तैयार किया। शिवाजी ने अपने आठ मंत्रियों की परिषद के जरिए उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। उनकी प्रशासनिक सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे।

शिवाजी ने अपने शासन में धार्मिक संस्कारों का निर्माण किया

शिवाजी की माता जीजाबाई धार्मिक प्रवृति और सरल स्वभाव तथा निर्भीक वीरंगना नारी थीं। इसी कारण जीजाबाई ने शिवाजी का पालन-पोषण रामायण, महाभारत तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की कहानियां सुना और शिक्षा देकर निर्भीक और बहादुर बनाया था। शिवाजी के दादा कोणदेव ने सभी तरह की सामयिक युद्ध कौशल आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। वीर शिवाजी को धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस समय के संत रामदेव जी ने शिवाजी को राष्ट्रप्रेम, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा का प्रशिक्षण दिया।

शिवाजी ने खेल खेल मे सीखा किला फतह और युद्ध कौशल

बचपन से ही शिवाजी अपने हम-उम्र के बालकों को एकत्रित कर तथा उनका सेनापति बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल बराबर खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कार्य की सभी जगह धूम मचने लगी, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुंची। अत्याचारी किस्म के तुर्क, यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही आतंकित होकर चिंतित होने लगे।

वीर शिवाजी ने अपनी विशाल सेना बनाई थी

छत्रपति वीर शिवाजी महाराज ने अपनी एक स्थायी विशाल सेना बनाई थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हजार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके शानदार सशक्त तोपखाने थे, और वीर शिवाजी के सेना में घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में बटे हुए थे। बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी। घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पांच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था। दस जुमलादारों की एक हजारी होती थी और पांच हजारियों के ऊपर एक पंजहजारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। शिवाजी एक धर्मनिरपेक्ष राजा थे और उनकी सेना में 1,50,000 मुस्लिम सैनिक थे। शिवाजी के साम्राज्य में महिलाओं से जुड़े किसी भी अपराध को लेकर कड़े नियम थे। शिवाजी ने काफी कुशलता से अपनी सेना को खड़ा किया था। उनके पास एक विशाल नौसेना भी थी। जिसके प्रमुख मयंक भंडारी थे। शिवाजी ने अनुशासित सेना तथा सुस्थापित प्रशासनिक संगठनों की मदद से एक निपुण तथा प्रगतिशील सभ्य शासन स्थापित किया। उन्होंने सैन्य रणनीति में नवीन तरीके अपनाएं जिसमें दुश्मनों पर अचानक आक्रमण करना जैसे तरीके शामिल थे।

धोखे से जब शिवाजी को मारना चाहा था आदिलशाह

वीर शिवाजी के बढ़ते युद्ध कौशल और प्रताप से आतंकित बीजापुर के शासक आदिलशाह जब शिवाजी को बंदी न बना सका तो उन्होंने शिवाजी के पिता शाहजी को ही गिरफ्तार कर लिया था। जब वीर शिवाजी को पता चला तो वो आगबबूला हो गए। उन्होंने नीति और साहस का सहारा लेकर छापामारी कर जल्द ही अपने पिता शाहजी को इस कैद से आजाद कराया। तब बीजापुर के शासक आदिलशाह ने शिवाजी को जीवित अथवा मुर्दा पकड़ लाने का आदेश देकर अपने मक्कार सेनापति अफजल खां को भेजा। उसने भाईचारे व सुलह का झूठा नाटक रचकर शिवाजी को अपनी बांहों के घेरे में लेकर मारना चाहा, पर समझदार शिवाजी के हाथ में छिपे बघनखे का शिकार होकर वह स्वयं मारा गया। इससे उसकी सेनाएं अपने सेनापति को मरा पाकर वहां से दुम दबाकर भाग गईं।

वीर शिवाजी का मुगलों से लड़ाई और पुरन्दर की सन्धि

वीर शिवाजी की बढ़ती हुई युद्ध नीतियों और शक्ति से चिंतित हो कर मुगल बादशाह औरंगजेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को शिवाजी पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। लेकिन सुबेदार को मुंह की खानी पड़ी। शिवाजी से लड़ाई के दौरान उसने अपना पुत्र खो दिया और खुद उसकी हाथ की अंगुलियां कट गई। उसे मैदान छोड़कर भागना पड़ा। इस घटना के बाद औरंगजेब ने अपने सबसे प्रभावशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फौज भेजी। शिवाजी को कुचलने के लिए राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान से संधि कर पुरन्दर के किले को अधिकार में करने की अपने योजना के प्रथम चरण में 24 अप्रैल, 1665 ई. को ‘व्रजगढ़’ के किले पर अधिकार कर लिया। पुरन्दर के किले की रक्षा करते हुए शिवाजी का अत्यन्त वीर सेनानायक ‘मुरार जी बाजी’ मारा गया। पुरन्दर के क़िले को बचा पाने में अपने को असमर्थ जानकर शिवाजी ने अपने युद्ध कौशल से महाराजा जयसिंह से संधि की पेशकश की। दोनों संधि की शर्तों पर सहमत हो गए और 22 जून, 1665 ई. को ‘पुरन्दर की सन्धि’ सम्पन्न हुई।

वीर शिवाजी के अभेद्य मजबूत किले

मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले। विवरणकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 किले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रकम खर्च करते थे। शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था सिंहगढ़ दुर्ग, जिसे जीतने के लिए उन्होंने तानाजी को भेजा था। इस दुर्ग को जीतने के दौरान तानाजी ने वीरगति पाई थी। बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गए। अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर छत्रपति शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगजेब से मिलने के लिए तैयार हो गए। वह 9 मई, 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुगल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगजेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगजेब को ‘विश्वासघाती’ कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगजेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को ‘जयपुर भवन’ में कैद कर दिया। वहां से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फरार हो गए और 22 सितम्बर 1666 ई. को रायगढ़ पहुंचे थे।

छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्ध का अविष्कार किया

साहित्यिक मंडली शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह कहते हैं कि छत्रपति शिवाजी ने ही भारत में पहली बार गुरिल्ला युद्ध का आरम्भ किया था। उनकी इस युद्ध नीती से प्रेरित होकर ही वियतनामियों ने अमेरिका से जंगल जीत ली थी। इस युद्ध का उल्लेख उस काल में रचित ‘शिव सूत्र’ में मिलता है। गोरिल्ला युद्ध एक प्रकार का छापामार युद्ध। मोटे तौर पर छापामार युद्ध अर्धसैनिकों की टुकड़ियों अथवा अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना के पीछे या पार्श्व में आक्रमण करके लड़े जाते हैं।

वीर शिवाजी को राज्याभिषेक के समय ब्राहमणों ने विरोध किया

वर्ष 1674 तक शिवाजी के सम्राज्य का अच्छा खासा विस्तार हो चूका था। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध किया। क्योंकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे उन्होंने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा। बालाजी राव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया और उन्होंने राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना कि। विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। इस समारोह में लगभग रायगढ़ के 5000 लोग इकट्ठा हुए थे और समारोह में ही वीर शिवाजी महाराज को छत्रपति का खिताब भी दिया गया था।

शिवाजी महराज के प्रशासकीय मदद के लिए अष्टप्रधान मंत्री

शिवाजी महराज ने प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी,जिसे अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था। अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का खयाल रखाता था। सचिव दफ़तरी काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे। सुमन्त विदेश मंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था। एक स्वतंत्र शासक की तरह शिवाजी महराज ने अपने नाम का सिक्का चलवाया। जिसे “शिवराई” कहते थे, और यह सिक्का संस्कृत भाषा में था।

शिवाजी का संघर्ष कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था

वास्तव में शिवाजी का सारा संघर्ष उस कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था, जिसे औरंगजेब जैसे शासकों और उसकी छत्रछाया में पलने वाले लोगों ने अपना रखा था। अपना देश, अपनी भाषा के पक्षधर शिवाजी कहते थे दुश्मन से निपटने की नीतियां आपकी अपनी मौलिक भाषा में होने से आपकी कामयाबी की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। उनका मानना था कि भाषा की गुलामी विचारों की गुलामी है। फलस्वरूप उन्होंने मुगलों द्वारा सर्वत्र थोपी जा रही फरसी भाषा का बहिष्कार किया और उन्होंने फरसी के स्थान पर मराठी तथा संस्कृत भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया। शिवाजी की कोई विशेष प्रारंभिक शिक्षा नहीं हुई थी परंतु उनकी कुशलता और प्रबुद्ध शासक के रूप में लिए गए निर्णय आज मार्ग प्रशस्त करते हैं। उनके निर्णयों में शुक्राचार्य और चाणक्य की नीतियों की झलक मिलती है। शिवाजी कहते थे कि दुष्टों के साथ दुष्टता और शिष्टों के साथ शिष्टता का परिचय ही सफलता का मार्ग है।

छत्रपति वीर शिवाजी ने हिन्दुस्थान का माथा सदा गर्व से ऊंचा रखा

लंबी बीमारी के चलते उनकी मृत्यु रायगढ़ मराठा साम्राज्य, वर्तमान महाराष्ट्र में 3 अप्रैल 1680 को हुई थी। और उनके साम्राज्य को उनके बेटे संभाजी ने संभाल लिया था। छत्रपति वीर शिवाजी भारतीय अस्मिता और संस्कृति के एक ऐसे पुरोधा थे जिन्होंने हिन्दुस्थान का माथा सदा सर्वदा गर्व से ऊंचा रखा।
छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती मनाने की शुरुआत 19 फरवरी 1870 को पुणे में महात्मा ज्योतिराव फुले ने की थी। ज्योतिराव फुले ने पुणे से करीब 100 किलोमीटर दूर रायगढ़ किला, रायगढ़, मराठा साम्राज्य जो अब महाराष्ट्र में पड़ता है जहाँ शिवाजी महाराज की समाधि की खोज की थी। जो आगे चलकर महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने शिवाजी जयंती मनाने की परंपरा को आगे बढ़ाया।

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