प्रस्तुति :- राकेश बिहारी शर्मा – ● गुरु गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु के साथ एक योद्धा एवं ओजस्वी कवि और दार्शनिक थे ● गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे इतिहास पुरुष थे जिनकी लड़ाई अधर्म, अत्याचार, दमन और अन्याय के खिलाफ होती थी गुरु गोबिंद सिंह जी सिखों के 10 वें गुरु थे। गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु तेगबहादुर जी के घर पटना साहिब (पटना सिटी) में पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 यानि की 22 दिसम्बर 1666 को हुआ था। उनके बचपन का नाम गोविन्द राय था। 1670 में गुरु गोबिंद सिंह जी का परिवार पंजाब में आ गया। गुरु गोबिंद सिंह जी एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक गुरु तथा प्रभावशाली नेतृत्वकर्ता थे। 1699 बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना की थी। यह दिन सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है। कहा जाता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दी थी। गुरु गोबिंद सिंह का उदाहरण और शिक्षाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती है। ये सिखों के नौवें सिख गुरु तेग बहादुर के पुत्र थे, जिनकी हत्या सम्राट औरंगजेब द्वारा कर दी गई थी। अपने पिता की मृत्यु के बाद मात्र नौ साल में इन्हे सिख धर्म का दसवां एवं अंतिम गुरु बने थे। साल 1699 की सभा में, गुरु गोबिंद सिंह ने खालसा वाणी की स्थापना की- “वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह”। गुरु गोविन्द के जीवनकाल में चार पुत्र हुए थे जिनमे से दो की मृत्यु युद्द में हो गई थी और बाकी दो पुत्रों को मुग़ल सेना द्वारा मार दिया गया था। गुरु गोविन्द जी ने अपने जीवनकाल में गरीबो की रक्षा एवं पाप का खात्मा करने के लिए 14 युद्द लड़े थे। जिसमे से 13 युद्द मुग़ल साम्राज्य के खिलाफ लड़े थे। गुरु गोबिंद सिंह जी को श्रद्धा से हिंद का पीर या भारत का संत कहा जाता है। इन्हें सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति भी कहा जाता है। गरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ गुरु ग्रंथ साहिब को पूरा कर गुरु रूप में सुशोभित किया।
उन्होंने धर्म के लिए समस्त परिवार का बलिदान किया। जिसके लिए उन्हें सर्ववंशदानी भी कहा जाता है। गुरु गोविंद सिंह कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं। इतिहास के पन्नों में गुरु गोविंद सिंह एक विलक्षण क्रांतिकारी संत व्यक्तित्व हैं। गुरु गोविंद सिंहजी ने समूचे राष्ट्र के उत्थान के लिए संघर्ष के साथ-साथ निर्माण का रास्ता अपनाया। वे एक आध्यात्मिक गुरु थे जिन्होंने मानवता को शांति, प्रेम, एकता, समानता एवं समृद्धि का रास्ता दिखाया। वे व्यावहारिक एवं यथार्थवादी भी थे। उन्होंने अपने अनुयायियों को धर्म की पुरानी और अनुदार परंपराओं से नहीं बांधा बल्कि उन्हें नए रास्ते बताते हुए आध्यात्मिकता के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण दिखाया। बचपन में ही गुरु गोबिन्द सिंह ने अनेक भाषाए सीखी जिसमें संस्कृत, उर्दू, हिंदी, ब्रज, गुरुमुखी और फारसी शामिल है। उन्होंने योद्धा बनने के लिए मार्शल आर्ट भी सिखा।
गुरु गोविंद सिंह जी ने अपने जीवन में कई पुस्तकों की रचना की उनमें मुख्य रूप से चंडी दी वार, जाप साहिब, खालसा महिमा, अकाल उस्तत, बचित्र नाटक, ज़फ़रनामा है।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में समाजहित में अनेकों कार्य किए हैं। जिनमें सिखों के नाम के आगे सिंह लगाने की परंपरा शुरु की थी, जो आज भी सिख धर्म के लोगों द्धारा चलाई जा रही है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने कई बड़े सिख गुरुओं के महान उपदेशों को सिखों के पवित्र ग्रंथ, गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित कर इसे पूरा किया था। वाहेगुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने ही गुरुओं के उत्तराधिकारियों की परंपरा को खत्म किया, सिख धर्म के लोगों के लिए गुरु ग्रंथ साहिब को सबसे पवित्र एवं गुरु का प्रतीक बनाया। सिख साहित्य में गुरु गोबिन्द जी के महान विचारों द्धारा की गई “चंडी दीवार” नामक साहित्य की रचना खास महत्व रखती है। गोविंद सिंह ने कभी भी जमीन, धन-संपदा, राजसत्ता-प्राप्ति या यश-प्राप्ति के लिए लड़ाइयां नहीं लड़ीं। उनकी लड़ाई होती थी अन्याय, अधर्म एवं अत्याचार और दमन के खिलाफ। युद्ध के बारे में वे कहते थे कि जीत सैनिकों की संख्या पर निर्भर नहीं, उनके हौसले एवं दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर करती है। जो नैतिक एवं सच्चे उसूलों के लिए लड़ता है, वह धर्मयोद्धा होता है तथा ईश्वर उसे विजयी बनाता है। गुरु गोविंद सिंह जी ने समूचे राष्ट्र के उत्थान के लिए संघर्ष के साथ-साथ निर्माण का रास्ता अपनाया। सती प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह, लड़की पैदा होते ही मार डालने जैसी बुराइयों के खिलाफ आवाज बुलंद की। वे एक महान कर्मप्रणेता, अद्वितीय धर्मरक्षक, ओजस्वी वीर रस के कवि के साथ ही संघर्षशील वीर योद्धा भी थे। उनमें भक्ति और शक्ति, ज्ञान और वैराग्य, मानव समाज का उत्थान और धर्म और राष्ट्र के नैतिक मूल्यों की रक्षा हेतु त्याग एवं बलिदान की मानसिकता से ओत-प्रोत अटूट निष्ठा तथा दृढ़ संकल्प की अद्भुत प्रधानता थी। तभी स्वामी विवेकानंद ने गुरुजी के त्याग एवं बलिदान का विश्लेषण करने के पश्चात कहा है कि ऐसे ही व्यक्तित्व के आदर्श सदैव हमारे सामने रहना चाहिए।
साहित्यिक मंडली शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार प्रोफेसर डॉ लक्ष्मीकांत सिंह की माने तो गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में 14 युद्ध किए, इस दौरान उन्हें अपने परिवार के सदस्यों के साथ कुछ बहादुर सिख सैनिकों को भी खोना पड़ा। लेकिन गुरु गोविंद जी ने बिना रुके बहादुरी के साथ अपनी लड़ाई जारी रखी। बाबा बुड्ढाजी ने गुरु गोविंद सिंह को मीरी और पीरी दो तलवारें पहनाई थीं। एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी, तो दूसरी नैतिकता यानी सांसारिकता की। देश की अस्मिता, भारतीय विरासत और जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए समाज को नए सिरे से तैयार करने के लिए उन्होंने नवीन समाज के निर्माण का मार्ग अपनाया। गुरु गोविंद सिंह खालसा पंथ के माध्यम से राजनीतिक एवं सामाजिक विचारों को आकार दिया। आनंदपुर साहिब के मेले के अवसर पर सिखों की सभा में ‘गुरु के लिए पांच सिर चाहिए’ की आवाज लगाई तथा जो व्यक्ति तैयार हो उसे आगे आने को कहा। एक के बाद एक पांच लोगों को पर्दे के पीछे ले जाया गया तथा तलवार से उनका सिर उड़ा दिया गया। इस प्रकार पांच व्यक्ति आगे आए। बाद में पांचों जीवित बाहर आए और गुरुजी ने उन्हें ‘पंच प्यारा’ नाम दिया। वे सारे समाज और देश को एक सूत्र में पिरोना चाहते थे। यही भाव सारे समाज में संचरित करने के लिए खालसा के सृजन के बाद गुरु गोविंद सिंह ने खुद पंच प्यारों के चरणों में माथा टेका। सिख धर्म का मूल उद्देश्य सेवा और सीख है। ये धर्म लोगों की सेवा करना सिखाता है, समाज से जुड़ना सिखाता है, सम्मान देना सिखाता है, जमीन से जुड़े रहना सिखाता है। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव से लेकर गुरु गोबिंद सिंह तक, हर किसी ने मानवता और एकेश्वरवाद का पाठ पढ़ाया है। गुरु गोबिंद सिंह ने तो सिखों को ‘पांच ककार’ भी दिए हैं जिनके बिना सच्चा सिख बनना संभव नहीं। सिखों के लिए उन्होंने 5 मर्यादाएं दी हैं- केश, कड़ा, कच्छा, कृपाण और कंघा धारण करने का आदेश गुरु गोबिंद सिंह ने ही दिया था। इन चीजों को पांच ककार कहा जाता है, जिन्हें धारण करना सभी सिखों के लिए अनिवार्य होता है। गुरु गोबिंद सिंह जी ऐसे इतिहास पुरुष थे जिनकी लड़ाई अधर्म, अत्याचार, दमन और अन्याय के खिलाफ होती थी। गुरु के आदेश के लिए शीश देने को तत्पर ये युवक विभिन्न जातियों और विभिन्न इलाकों से थे। एक लाहौर से, दूसरा दिल्ली से, तीसरा गुजरात से, चौथा उड़ीसा से और पांचवां कर्नाटक से था। एक खत्री, एक नाई, एक जाटव, एक धोबी और एक झीवर था। पिछड़ी जाति के लोगों को अमृतपान कराकर और फिर खुद उनके साथ अमृत छककर गुरुजी ने सामाजिक एकात्मता, छुआछूत की बुराई के त्याग और ‘मानस की जात एक सभै, एक पहचानबो’ का महासंदेश दिया। गुरु गोविन्द सिंह जी ने अपने जीवनकाल में तीन शादियाँ की थी जिसमे पहली शादी 10 साल की उम्र में 21 जून 1677 को आनंदपुर से 10 किमी उत्तर में बसंतगढ़ में माता जीतो से हुई। शादी के बाद गुरु गोविन्द सिंह जी एवं माता जीतो के तीन पुत्र हुए जिनके नाम जुझार सिंह ,जोरावर सिंह एवं फतेह सिंह था। गुरु गोविन्द सिंह जी की दूसरी शादी 17 साल की उम्र में 4 अप्रैल, 1684 को आनंदपुर में माता सुंदरी से हुई। शादी के बाद गुरु गोविन्द सिंह जी माता सुंदरी के यहाँ एक पुत्र का जन्म हुआ जिसका नाम अजीत सिंह था। उन्होंने तीसरी शादी 33 साल की उम्र में 15 अप्रैल 1700 को आनंदपुर में माता साहिब देवन से शादी की। उनकी कोई संतान नहीं थी, लेकिन सिख धर्म में उनकी प्रभावशाली भूमिका थी। गुरु गोबिंद सिंह ने उन्हें खालसा की माता के रूप में घोषित किया। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है। गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपना पूरा जीवन लोगों की सेवा और सच्चाई की राह पर चलते हुए ही गुजार दी थी। गुरु गोविंद सिंह की मृत्यु 42 वर्ष की अवस्था में 7 अक्टूबर 1708 को नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई।