राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव साहित्यिक मंडली शंखनाद संसार के सबसे अधिक पूजे जानेवाले महापुरुषों में गौतम बुद्ध का नाम सबसे ऊपर है। इनका बचपन का नाम था सिद्धार्थ। कपिलवस्तु नगर के राजा शुद्धोदन इनके पिता थे। इनकी माता महामाया ने लुंबिनी नामक वन में इस महापुरुष को जन्म दिया था। ढाई हजार वर्ष से उपर हो गए, परंतु बुद्ध का नाम और उनके धार्मिक नियम आज भी अमर हैं।शंखनाद के अध्यक्ष इतिहासकार डॉ. लक्ष्मीकांत सिंह के अनुसार बुद्ध के जीवनकाल को 563-483 ई.पू. के मध्य माना गया है। गौतम बुद्ध की मृत्यु, उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में 80 वर्ष की आयु में हुई थी।
महात्मा बुद्ध का जीवन और परिवार गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के संस्थापक थे। बुद्ध को एशिया का ज्योति पुंज कहा जाता है। गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई. पूर्व के बीच शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में हुआ। यह स्थान नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान है, वहां आता है। जहां एक लुम्बिनी नाम का वन था। गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोधन शाक्य गण के मुखिया थे। तथा माता माया देवी अथवा महामाया कोलिय गणराज्य (कोलिय वंश) की कन्या थीं। गौतम बुद्ध के जन्म का नाम सिद्धार्थ था। सिद्धार्थ के जन्म के सात दिन बाद ही उनकी मां माया देवी का निधन हो गया था। सिद्धार्थ की सौतेली मां और मौसी प्रजापति गौतमी ने उनका पालन-पोषण किया था। सिद्धार्थ का 16 साल की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ विवाह हुआ। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया था। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहां पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उनकी सेवा में रख दिए गए। पर यह सब चीजें सिद्धार्थ को संसार से बांधकर नहीं रख सकीं। इनके पुत्र का नाम राहुल था।
राजकुमार सिद्धार्थ कैसे बन गए ‘बुद्ध’? एक बार सिद्धार्थ अपने घर से टहलने के क्रम में दूर निकल गए। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने एक अत्यंत बीमार व्यक्ति को देखा, कुछ पल और चलने के बाद एक वृद्ध व्यक्ति को देखा, यात्रा के समापन में एक मृत व्यक्ति को देखा। और फिर एक योगी को अपने ही मस्त होता देखा। इन सबसे सिद्धार्थ के मन में एक प्रश्न उभर आई की क्या मैं भी बीमार पडूंगा। क्या मैं भी वृद्ध हो जाऊंगा, क्या मैं भी मर जाऊंगा क्योंकि सिद्धार्थ के पिता उन्हें हर दुख-हर तकलीफ से दूर रखते थे इसलिए उन्होंने अब तक इसे समझा ही नहीं था। सिद्धार्थ इन सब प्रश्नो से बहुत परेशान हो गए। तत्पश्चात सिद्धार्थ इन सबसे मुक्ति पाने की खोज में निकल गए। उस समय उनकी मुलाकात एक सन्यासी से हुई जिसने सिद्धार्थ को मुक्ति मार्ग के विषय में विस्तार पूर्वक बताया। तब से सिद्धार्थ ने सन्यास ग्रहण करने की ठान ली। सिद्धार्थ छह वर्ष वनों में भटकते रहे। भूखे-प्यासे तपस्या करते रहे। कुछ और भी साथी और शिष्य हो गए, परंतु गौतम अभी लक्ष्य पाने के लिए यत्नशील थे। एक दिन गौतम बोधगया नगर के बाहर एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान मग्न बैठे थे। उनकी हड्डियाँ दिखाई पड़ रही थीं। भूख के मारे उन्हें मूरछा सी आ गई थी। वे प्राण पखेरू उड़ने की प्रतीक्षा ही कर रहे थे। तभी सुजाता नाम की एक महिला खीर भरा कटोरा लेकर आई। भगवान् ने उसकी मंशा पूरा की थी। अतः वह पीपल देवता को खीर चढ़ाने आई थी। गौतम को देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसे लगा कि पीपल तो शायद खीर न खा पाता, परंतु ये महात्मा तो प्रसाद ग्रहण कर अवश्य आशीर्वाद देंगे। सुजाता के आग्रह पर गौतम ने खीर ग्रहण की। मृतप्राय गौतम में चेतना आई। पुनः चिंतन शुरू किया और मिल गया उन्हें बोध (ज्ञान)। गौतम अब बुद्ध हो गए। उन्हें दुःख से छूटने का उपाय प्राप्त हो गया। बुद्ध को मिला ज्ञान यही है कि सभी दूसरों के कष्ट मिटाए। भूखे को भोजन और प्यासे को पानी दें। एक-दूसरे का उपकार अपना कर्तव्य समझकर करें। अहिंसा धर्म का पालन करें। कोई किसी को न सताए। सच ही तो है यदि सब ऐसा आचरण करेंगे तो दुःखी कोई नहीं होगा। सत्य तो सदा सत्य ही रहता है। जो दूसरों को सुख देने के लिए कार्य करता है। उसे कभी दुःख नहीं होता। जो बच्चे जीवन भर इस बात को याद रखेंगे और इसके अनुसार जीवन में व्यवहार करेंगे वे निश्चित महान् व्यक्ति बनेंगे। वैशाख पूर्णिमा के दिन ही गौतम बुद्ध को पीपल वृक्ष के नीचे सत्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। जिसे सम्बोधि कहा जाता है तथा उस पीपल वृक्ष को बोधि वृक्ष कहा जाता है। जहाँ पर गौतम बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ वह स्थान बोधगया कहलाया। बुद्ध ने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया जिसे बौद्ध ग्रंथों में धर्मचक्र प्रवर्तन कहा जाता है। बुद्ध ने अपने उपदेश कौशल, कौशांबी और वैशाली राज्य में पालि भाषा में दिए। बुद्ध ने अपने सर्वाधिक उपदेश कौशल देश की राजधानी श्रावस्ती में दिए। बुद्ध की मृत्यु 80 साल की उम्र में कुशीनारा में एक कुटिल भक्त द्वारा अर्पित भोजन करने के बाद हो गई। जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा गया है।
महात्मा बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग महात्मा बुद्ध ने बताया कि तृष्णा ही सभी दु:खों का मूल कारण है। तृष्णा के कारण संसार की विभिन्न वस्तुओं की ओर मनुष्य प्रवृत्त होता है,और जब वह उन्हें प्राप्त नहीं कर सकता अथवा जब वे प्राप्त होकर भी नष्ट हो जाती हैं तब उसे दु:ख होता है। तृष्णा के साथ मृत्यु प्राप्त करने वाला प्राणी उसकी प्रेरणा से फिर भी जन्म ग्रहण करता है और संसार के दु:ख चक्र में पिसता रहता है। अत: तृष्णा को त्याग देने का मार्ग ही मुक्ति का मार्ग है। भगवान बुद्ध का अष्टांगिक मार्ग वह माध्यम है जो दुःख के निदान का मार्ग बताता है। उनका यह अष्टांगिक मार्ग ज्ञान, संकल्प, वचन, कर्म, आजीव, व्यायाम, स्मृति और समाधि के सन्दर्भ में सम्यकता से साक्षात्कार कराता है। गौतम बुद्ध ने मनुष्य के बहुत से दुखों का कारण उसके स्वयं का अज्ञान और मिथ्या दृष्टि बताया है।
देश दुनिया में बौद्ध धर्म का प्रचार बौद्ध धर्म आज भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में फैला हुआ है। आज विश्व भर में लगभग 50 करोड़ से भी अधिक व्यक्ति बौद्ध धर्म का अनुसरण करते हैं। और इसके पीछे एकमात्र कारण है भगवान गौतन बुद्ध जिन्होने अपने ज्ञान से इस संसार के अंधेरों को दूर किया और मनुष्यों को झूठे आंडबरो से दूर हटा कर सत्य का मार्ग प्रशस्त किया। बौध धर्म को मानने वाले भगवान बुद्ध के उपदेशों का पालन करते हैं। भगवान बुद्ध का पहला उपदेश ‘धर्मचक्र प्रवर्तन’ के नाम से जाना जाता है। यह पहला उपदेश बुद्ध ने आषाढ़ पूर्णिमा के दिन पांच भिक्षुओं को दिया था। बुद्ध ने जब अपने जीवन में हिंसा, पाप और मृत्यु को जाना तब उन्होंने मोह माया त्याग कर अपने गृहस्थ जीवन से मुक्ति ले ली और जीवन के सत्य की खोज में निकल पड़े। उन्होंने मगध क्षेत्र को अपना प्रचार केंद्र बनाया। कई सालों तक बोधगया में बोधि वृक्ष के नीचे तपस्या कर जब उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई तो यह दिन पूरी सृष्टि के लिए खास दिन बन गया जिसे वैशाख पूर्णिमा या बुद्ध पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। बौद्ध धर्म के प्रमुख प्रचारकों में अंगुलिमाल, मिलिंद (यूनानी सम्राट), सम्राट अशोक, ह्वेन त्सांग, श्येन, ईजिंग, हे चो, बोधिसत्व आदि थे।
बुद्धत्व की प्राप्ति व महापरिनिर्वाण का दिन बुद्ध पूर्णिमा का संबंध बुद्ध के साथ केवल जन्म भर का नहीं है बल्कि इसी पूर्णिमा तिथि को वर्षों वन में भटकने व कठोर तपस्या करने के पश्चात बोधगया में बोधिवृक्ष नीचे बुद्ध को सत्य का ज्ञान हुआ। कह सकते हैं उन्हें बुद्धत्व की प्राप्ति भी वैशाख पूर्णिमा को हुई। इसके पश्चात महात्मा बुद्ध ने अपने ज्ञान के प्रकाश से पूरी दुनिया में एक नई रोशनी पैदा की।
कहां कहां मनाई जाती है बुद्ध जयंती भारत के साथ साथ चीन, नेपाल, सिंगापुर, वियतनाम, थाइलैंड, जापान, कंबोडिया, मलेशिया, श्रीलंका, म्यांमार, इंडोनेशिया, पाकिस्तान जैसे दुनिया के कई देशों में बुद्ध पूर्णिमा के दिन बुद्ध जयंती मनाई जाती है। भारत के बिहार राज्य में स्थित बोद्ध गया बुद्ध के अनुयायियों सहित हिंदुओं के लिये भी पवित्र धार्मिक स्थल है। कुशीनगर में बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर लगभग एक माह तक मेला लगता है।
महात्मा बुद्ध के अनमोल विचार महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं और कथनों को अपने जीवन में उतार कर सुख-समृद्धि और सफलता प्राप्त कर सकते हैं, तथा जीवन की कई समस्याओं से हम बच सकते हैं। तीन चीजें ज्यादा देर तक नहीं छुप सकतीं, सूर्य, चंद्रमा और सत्य। घ्रणा को घ्रणा से खत्म नहीं किया जा सकता है बल्कि इसे प्रेम से ही खत्म किया जा सकता है जो की एक प्राकृतिक सत्य है। हम अपने विचारों से ही अच्छी तरह ढलते है, हम वही बनते है जो हम सोचते है। जब मन पवित्र होता है तो खुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है। शारीरिक आकर्षण आँखों को आकर्षित करती है, अच्छाई मन को आकर्षित करती है। आज हम जो कुछ भी हैं, वो हमने आज तक क्या सोचा इस बात का परिणाम है।
भगवान बुद्ध के उपदेश भगवान बुद्ध ने बताया है कि केवल मांस खानेवाला ही अपवित्र नहीं होता, बल्कि क्रोध, व्यभिचार, छल, कपट, ईर्ष्या और दूसरों की निंदा भी इंसान को अपवित्र बनाती है। मन की शुद्धता के लिए पवित्र जीवन बिताना जरूरी है। यही वजह है कि कुछ लोग बुद्ध पूर्णिमा के दिन पक्षियों को भी पिंजरों से आजाद करते हैं।