Monday, December 23, 2024
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अद्वितीय वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की 164 वीं पुण्यतिथि पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – सामाजिक रूढ़ियों और सती प्रथा के उस दौर में रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसे प्रतीक के रूप में उभरीं, जिन्होंने बताया कि महिला यदि मन में ठान ले तो वह क्या नहीं कर सकती। देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की अद्भुत वीरांगना लक्ष्मीबाई उस नारी शक्ति की प्रतीक हैं, जो कोमलांगी होने के साथ-साथ वज्र की तरह कठोर भी थीं। सती प्रथा के उस दौर में रानी लक्ष्मीबाई एक ऐसे प्रतीक के रूप में उभरीं, जिन्होंने बताया कि महिला यदि मन में ठान ले तो वह क्या नहीं कर सकती। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई आत्मविश्वासी, कर्तव्य परायण, स्वाभिमानी और धर्मनिष्ठ वीरांगना थीं। वो अदम्य साहस, शौर्य और भारतीय वसुंधरा को गौरवान्वित करने वाली झांसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई की आज पुण्यतिथि है। देशभक्ति की प्रतिमूर्ति झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने कम उम्र में ही ब्रिटिश साम्राज्य की सेना से संग्राम किया और रणक्षेत्र में वीरगति प्राप्त की। रानी लक्ष्मीबाई ने जीते-जी अंग्रेजों को अपनी झांसी पर कब्जा नहीं करने दिया, उनकी बहादुरी के किस्से और ज्यादा मशहूर इसलिए हो जाते हैं, क्योंकि उनके दुश्मन भी उनकी बहादुरी के मुरीद हो गए थे। अंग्रेजी हूकुमत से लोहा लेने वाली रानी लक्ष्मी बाई को उनके पुण्यतिथि पर पूरा देश उन्हें याद कर रहा है। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी असाधारण वीरता और साहस से एक नया अध्याय लिखा। वह नारी शक्ति और अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध क्रांति का प्रतीक बनी। स्वाधीनता व स्वाभिमान के लिए उनका बलिदान अनंत काल तक पूरी दुनिया को प्रेरित करता रहेगा। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में स्वतंत्रता की अलख जगाई थी। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की वह प्रमुख नेत्री थी। उसके चरित्र में महान् शासिका होने के सभी गुण मौजूद थे। उसकी वीरता और बलिदान की कहानियां बुंदेलखण्ड में आज भी वीरता के भावों के साथ गाई जाती हैं। महान् कवयित्री सुभद्राकुमारी चौहान ने तो खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।’ जीवनी-परक गीत के माध्यम से तो उन्हें अमर बना दिया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम हिन्दुस्तान की अद्वितीय वीरांगना के रूप में लिया जाता है। उनकी महत्ता का प्रमाण यही है कि सन् 1943 में जब नेता जी सुभाषचंद बोस ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज में स्त्रियों की एक रेजीमेंट बनाई तो उसका नाम ‘‘रानी झांसी रेजीमेंट’’ रखा गया।

अद्वितीय वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की 164 वीं पुण्यतिथि पर विशेष

लक्ष्मीबाई का जन्म और परिवारिक जीवन- लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी में 19 नवंबर 1828 में हुआ था। उनके पिता का नाम मोरोपंत तांबे और माता का नाम भागीरथी बाईसा माता पिता ने उनका नाम बचपन में मणिकर्णिका रखा था परंतु प्यार से सब उसे मनु कह कर पुकारते थे। उनका नाम वाराणसी के घाट मणिकर्णिका पर रखा गया था जहा माता सती के काल के कुंडल गिरे थे। जब उसकी अवस्था 3-4 वर्ष की थी, तो उसकी माता भागीरथी का देहांत हो गया था। उसका पालन-पोषण उसके पिता मोरोपन्त तांबे ने किया। लक्ष्मीबाई के पिता बिठूर में पेशवा बाजीराव के आश्रय में आकर रहते थे। लक्ष्मीबाई को बचपन में मणिकर्णिका, मनु या छबीली भी कहा जाता था। बाजीराव के दत्तक पुत्र नाना साहब, बाला साहब और राव साहब के साथ उसकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी। वहीं पर उसने अस्त्र-शस्त्र संचालन और घुड़सवारी की शिक्षा प्राप्त की।

लक्ष्मीबाई का विवाह, उत्तराधिकारी और शासनकाल-लक्ष्मीबाई का विवाह झांसी नरेश गंगाधर राव के साथ कर दिया गया। गंगाधर राव निःसन्तान थे। विवाह के 8 वर्षों बाद लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया था। दुर्भाग्यवश वह 3 माह की आयु में ही चल बसा। गंगाधर राव इस मानसिक आघात को झेल नहीं पाये और बीमार रहने लगे। किसी प्रकार का उपचार उनके काम नहीं आया। उनके गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर राज्य की व्यवस्था हेतु 5 वर्षीय दामोदर राव को दत्तक पुत्र मानकर उत्तराधिकारी बना दिया गया। 21 नवम्बर 1853 को लक्ष्मीबाई विधवा हो चुकी थी। उस समय लार्ड डलहौजी की “हड़प नीति” चल रही थी। अतः अंग्रेजों के पास दामोदर राव के उत्तराधिकारी होने की सूचना भेजी गयी, ताकि उत्तराधिकारी विहीन राज्य मानकर वे झांसी को हड़प न सके। अंग्रेजों ने इस सूचना के बाद भी मेजर एलिस को भेजकर झांसी के खजाने पर ताला जड़ दिया और राज्य का पूरा प्रबन्ध कम्पनी के हाथों सौंपकर 27 फरवरी सन् 1854 में झांसी को एक घोषणा कर अपने राज्य में मिला लिया। लक्ष्मीबाई का संघर्ष और युद्ध की घोषणा रानी ने कहा- “मैं मर जाऊंगी, पर अपनी झांसी इस तरह नहीं दूंगी।” अंग्रेजों ने निर्दयतापूर्वक झांसी के खजाने से 6 लाख रुपये दामोदर राव के वयस्क होने तक जमा अपने खजाने में जमा करवा लिये। रानी की पारिवारिक सम्पत्ति और आभूषणों पर भी कब्जा जमा लिया। रानी को बस 5,000 की सालाना पेंशन पर नगर के राजमहल में रहने का अधिकार मिला। रानी ने विरोधस्वरूप पेंशन लेने से इनकार कर दिया। उमेशचन्द्र बनर्जी नामक वकील तथा एक अंग्रेज वकील को लंदन भेजा और 60,000 रुपये खर्च कर लंदन में कम्पनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर के पास शिकायत पत्र भेजा, जिस पर कोई सुनवाई नहीं हुई। अब रानी अपना अधिकांश समय पूजा-पाठ, घुड़सवारी और दामोदर राव की देखभाल में व्यतीत करने लगी।

अद्वितीय वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की 164 वीं पुण्यतिथि पर विशेष

वह मर्दाने वेश में युद्धकला का अभ्यास किया करती थी। 7 वर्ष की अवस्था में दामोदर का यज्ञोपवीत संस्कार करने के लिए उसने 6 लाख रुपये अंग्रेजों से मांगे, जिसे 3 शर्तों पर वयस्क न होने का बहाना बनाकर बमुश्किल दिये। 1857 की क्रान्ति में भाग लेने के कारण बिठूर के नाना साहब की 8 लाख की वार्षिक पेंशन बन्द कर दी गयी। झांसी तथा अवध जैसे राज्यों को अंग्रेजों ने अधिग्रहण कर लिया था। इस विरोध में 10 मई को मेरठ से क्रांति का श्रीगणेश हुआ, तो 4 जून 1857 को कानपुर तथा झांसी में यही विद्रोह युद्ध की घोषणा बन गया। झांसी में 2 अंग्रेज अफसर- डनलप और टेलर को विद्रोही नेता रिसालदार कालेखां और तहसीलदार अहमद हुसैन ने मार डाला, तो 8 जून को अंग्रेजों ने झांसी में आकर निर्दोष स्त्री-पुरुषों तथा कई बच्चों को मौत के घाट उतार डाला तथा रानी के महल को घेर लिया। रानी से खर्च के लिए धन मांगा। रानी के 1 लाख कीमत के बचे-खुचे गहने भी छीन लिये गये। अंग्रेजों ने रानी के टीकमगढ़ के दीवान नत्थे खां को रिश्वत देकर अपनी तरफ बड़ी सेना के साथ झांसी आक्रमण हेतु भेजा। रानी तथा उसके सैनिकों ने नत्थे खां की विशाल सेना को धूल चटा दी। अंग्रेजों ने झांसी को उनके हवाले करने का हुक्म दिया। रानी ने खबर भिजवायी-“मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।” इसी बीच अंग्रेजी सेना झांसी आक्रमण हेतु आ धमकी थी। रानी ने किले के सारे फाटक बन्द करवा दिये। झांसी के वीर स्त्री-पुरुष व सैनिकों ने इसका डटकर मुकाबला करते हुए अंग्रेजों को खदेड़ दिया। जब 1857 का गदर हुआ, उससे पूर्व रानी ने अपना कब्जा पूरी तरह से झांसी पर कर लिया था।

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अंग्रेज सेना का झांसी पर आक्रमण – 24 मार्च 1858 को बौखलाई अंग्रेज सेना ने ह्यूरोज के नेतृत्व में झांसी पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों से चले इस युद्ध में किले के प्रवेश द्वार के रक्षक खुदाबक्श तथा तोपची गौस खां शहीद हो गये। 11 हजार की सेना का रानी ने डटकर मुकाबला किया। अंग्रेजों ने अपनी तोपों की गोलीबारी से किले की दीवार तोड़ दी। रानी के नेतृत्व में स्त्रियों और बच्चों ने भी सहयोग देकर उसकी मरम्मत कर दी। रानी ने अपनी सहायता के लिए तात्याटोपे को बुलाया, जो अपनी बड़ी सेना और 28 तोपों की सहायता लेकर रानी के बुलावे पर झांसी आ पहुंचे। कुछ ही घण्टों में अंग्रेजी सेना भाग निकली। तात्या कालपी चले गये। 1 अप्रैल को पुनः ह्यूरोज ने अचानक तेज हमला कर किले की दीवार की सीढ़ियां तोड़ दीं। रानी के सैनिक, उसकी सखियां झलकारी बाई, मोती बाई, काशी और मुंदर इसमें शहीद रहे। तोपों के मोर्चे पर डटी जूही भी वीरगति को प्राप्त हुई। 3 अप्रैल को अंग्रेजों का किले पर अधिकार हो गया। अपनी हार सुनिश्चित जानकर रानी ने दामोदर राव को अपनी पीठ से बांधा और घोड़े पर सवार होकर कालपी भाग निकली। कालपी पर भी अंग्रेजों का अधिकार हो गया था। वहां भी अंग्रेज सेना रानी के पीछे लगी हुई थी। रानी ग्वालियर की तरफ भाग निकली थी।

 

लक्ष्मीबाई का अंग्रेजों के साथ निर्णायक युद्ध – 17 जून को रानी लक्ष्मीबाई का अंतिम युद्ध शुरू हुआ। लेकिन उनकी मृत्यु के भी अलग-अलग मत हैं, जिनमें लॉई केनिंग की रिपोर्ट सर्वाधिक विश्वसनीय मानी जाती है। ह्यूरोज की घेराबंदी और संसाधनों की कमी के चलते रानी लक्ष्मीबाई घिर गई थीं। हयूरोज ने पत्र लिख कर रानी से एक बार फिर समर्पण करने को कहा। लेकिन रानी अपनी सेना के साथ किला छोड़ मैदान में आ गई। उनका इरादा एक और से तात्या की सेना तो दूसरी ओर से रानी लक्ष्मी का ब्रिगेडियर स्मिथ की टुकड़ी को घेरेने का था। लेकिन तात्यां समय पर नहीं पहुंच सके और रानी अकेली पड़ गई।

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जख्मों के साथ लड़ती रहीं रानी और वीरगति प्राप्त की – कैलिंग की रिपोर्ट और अन्य सूत्रों के मुताबिक बताया जाता है कि रानी को लड़ते हुए गोली लगी थी जिसके बाद वे विश्वस्त सिपाहियों के साथ ग्वालियर शहर के मौजूदा रामबाग तिराहे से नौगजा रोड पर आगे बढ़ते हुए स्वर्ण रेखा नदी की ओर बढ़ी। नदी के किनारे रानी का नया घोड़ा अड़ गया। रानी ने दूसरी बार नदी पार करने का प्रयास किया लेकिन वह घोडा अडा ही रहा। गोली लगने से खून पहले ही वह रहा था और वे मूर्छित सी होने लगी। दुर्भाग्यवश एक नाले को पार करते समय उसका घोड़ा मर गया। एक अंग्रेज सैनिक ने रानी पर तलवार से ऐसा वार किया कि रानी के चेहरे का आधा भाग कट गया। एक तलवार की वार से उस सैनिक को मारकर वह गिर पड़ी। रानी के एक विश्वस्त सरदार ने उसे उठाकर बाबा गंगादास की झोंपड़ी में ला छोड़ा। बाबा गंगादास के हाथों गंगाजल पीकर रानी ने अपने प्राण त्याग दिये। 18 जून 1858 को ग्वालियर का अंतिम युद्ध हुआ और रानी ने अपनी सेना का कुशल नेतृत्व किया और आखिर में उन्होंने वीरगति प्राप्त की। अगले दिन उसके शव को बड़े से घास के ढेर में रखकर जला दिया गया। वह जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगी। 24 वर्ष की अवस्था में यह महान् वीरांगना अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हो गयी। बताया जाता है। कि शरीर छोड़ने से पहले उन्होंने अपने साथियों से कहा था कि उनका शरीर अंग्रेजों के हाथ नहीं लगना चाहिए। रानी लक्ष्मीबाई ने अपनी जीवन की कुर्बानी देकर राष्ट्रीय रक्षा के लिए बलिदान का संदेश दिया। ऐसी थी महान वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की जिंदगी जो हमारे लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं। रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और साहस की गौरवपूर्ण गाथा युगों-युगों तक भारतवासियों को प्रेरणा देती रहेगी। साहस और वीरता के पर्याय के रूप में यदि किसी नारी की सराहना की जाती है, तो उसे झांसी की रानी की उपमा दी जाती है। रानी लक्ष्मीबाई नारी जाति का गौरव थी।

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