Wednesday, July 16, 2025
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राकेश बिहारी शर्मा – मानवता के सच्चे हितैषी, सामाजिक समरसता के द्योतक यदि किसी को माना जाए तो वे थे संत गाडगे। आधुनिक भारत के महापुरुषों पर गर्व होना चाहिए, उनमें से एक राष्ट्रीय संत गाडगे बाबा है। आज गाडगे बाबा की 147 वीं जयंती है। वे कहते थे कहते थे कि शिक्षा बड़ी चीज है। संत गाडगे महाराज ने अंधविश्वास से बर्बाद हुए समाज को सार्वजनिक शिक्षा और ज्ञान प्रदान किया। संत गाडगे महाराज का कहना था कि “पैसे की तंगी हो तो खाने के बर्तन बेच दो औरत के लिए कम दाम के कपड़े खरीदो, टूटे-फूटे मकान में रहो पर बच्चों को शिक्षा दिए बिना न रहो।” उन्होंने अपने जीवन में शिक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। उन्होंने सभी को पढाई करने के लिए प्रोत्साहित किया।

महान कर्मयोगी गाडगे बाबा का जन्म और पारिवारिक जीवन

जन जागरण एवं सामाजिक क्रांति के अग्रदूत कर्मयोगी राष्ट्रसंत बाबा गाडगे का जन्म जन्म 23 फरवरी सन 1876 को महाराष्ट्र के अकोला जिले के खासपुर गाव बुधवार के दिन धोबी समाज में हुआ था। बाद में खासपुर गाव का नाम बदल कर शेणगाव कर दिया। उनका पूरा नाम डेबूजी झिंगराजी जानोरकर था। उनके पिता का नाम झिंगरजी माता का नाम सखूबार्इ और कुल का नाम जाणोरकर था। गौतम बुद्ध की भाति पीडित मानवता की सहायता तथा समाज सेवा के लिये उन्होनें सन 1905 को ग्रहत्याग किया एक लकडी तथा मिटटी का बर्तन जिसे महाराष्ट्र में गाडगा (लोटा) कहा जाता है लेकर आधी रात को घर से निकल गये। दया, करूणा, भार्तुभाव, सममैत्री, मानव कल्याण, परोपकार, दीनहीनों के सहायतार्थ आदि गुणों के भण्डार बुद्ध के आधुनिक अवतार डेबूजी सन 1905 मे ग्रहत्याग से लेकर सन 1917 तक साधक अवस्था में रहे। महाराष्ट्र सहित सम्पूर्ण भारत उनकी तपोभूमि थी तथा गरीब उपेक्षित एवं शोषित मानवता की सेवा ही उनकी तपस्या थी।

गाडगे बाबा का सामाजिक उद्देश्य और सोच

गाडगे बाबा ने स्कूल से शिक्षा हासिल नहीं की थी लेकिन वह बहुत ही उच्च स्तर के बुद्धिजीवी थे। गाडगेबाबा एक घूमते फिरते सामाजिक शिक्षक थे। वे सिर पर मिट्टी का कटोरा ढककर और पैरों में फटी हुई चप्पल पहनकर पैदल ही यात्रा किया करते थे। और यही उनकी पहचान थी। गाडगे बाबा अनपढ़ थे, किंतु बड़े बुद्धिवादी थे। पिता की मौत हो जाने से उन्हें बचपन से अपने नाना के यहां रहना पड़ा था। वहां उन्हें गायें चराने और खेती का काम करना पड़ा था। सन् 1905 से 1917 तक वे अज्ञातवास पर रहे। इसी बीच उन्होंने जीवन को बहुत नजदीक से देखा। अंधविश्वासों, बाह्य आडंबरों, रूढ़ियों तथा सामाजिक कुरीतियों एवं दुर्व्यसनों से समाज को कितनी भयंकर हानि हो सकती है, इसका उन्हें भलीभांति अनुभव हुआ। इसी कारण इनका उन्होंने घोर विरोध किया।

संत गाडगे बाबा का ध्येय

संत गाडगे बाबा के जीवन का एकमात्र ध्येय था- लोक सेवा दीन-दुखियों तथा उपेक्षितों की सेवा को ही वे ईश्वर भक्ति मानते थे धार्मिक आडंबरों का उन्होंने प्रखर विरोध किया। उनका विश्वास था कि ईश्वर न तो तीर्थस्थानों में है और न मंदिरों में वन मूर्तियों में दरिद्र नारायण के रूप में ईश्वर मानव समाज में विद्यमान है। मनुष्य को चाहिए कि वह इस भगवान को पहचाने और उसकी तन-मन-धन से सेवा करें। भूखों को भोजन, प्यासे को पानी, नंगे को वस्त्र, अनपढ़ को शिक्षा, बेकार को काम, निराश को ढाढस और मूक जीवों को अभय प्रदान करना ही भगवान की सच्ची सेवा है। वे कहा करते थे कि “तीर्थों में पंडे, पुजारी सब भ्रष्टाचारी रहते हैं।” धर्म के नाम पर होने वाली पशुबलि के भी वे विरोधी थे। यहीं नहीं, नशाखोरी, छुआछूत जैसी सामाजिक बुराइयों तथा मजदूरों व किसानों के शोषण के भी वे प्रबल विरोधी थे। संत- महात्माओं के चरण छूने की प्रथा आज भी प्रचलित है, पर संत गाडगे इसके प्रबल विरोधी थे।

शैक्षणिक संस्थानों सहित कई सामाजिक कार्य किये गाडगे बाबा

गाडगे बाबा स्वैच्छिक गरीबी में रहते थे और अपने समय के दौरान सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और विशेष रूप से स्वच्छता से संबंधित सुधारों की शुरुआत करने वाले विभिन्न गांवों में घूमते रहे। गांव में प्रवेश करते ही वह तुरंत नाले और सड़कों की सफाई शुरू कर देते थे। उसके काम के लिए, ग्रामीण उसे पैसे देते थे। जिनका इस्तेमाल वे शैक्षणिक संस्थानों, अस्पतालों, धर्मशालाओं और पशु आश्रयों के निर्माण के लिए करते थे। यह सब उन्होंने भीख मांग-मांग कर बनवाया किंतु अपने सारे जीवन में इस महापुरुष ने अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई। गाडगे महाराज डॉ बाबासाहेब आंबेडकर के अनुयायी थे।

संत गाडगे का निधन और उनकी अंतिम इक्षाएं

गाडगे बाबा समाज के लिए किसी मसीहा से कम नहीं थे। बाबा ने अपने जीवनकाल में लगभग 60 संस्थाओं की स्थापना की और उनके बाद उनके अनुयायियों ने लगभग 42 संस्थाओं का निर्माण कराया। उन्होनें कभी कहीं मंदिर निर्माण नहीं कराया अपितु दीनहीन, उपेक्षित एवं साधनहीन मानवता के लिये स्कूल, धर्मशाला, गौशाला, छात्रावास, अस्पताल, परिश्रमालय, वृध्दाश्रम आदि का निर्माण कराया। उन्होनें अपने हाथ में कभी किसी से दान का पैसा नहीं लिया। दानदाता से कहते थे दान देना है तो अमुक स्थान पर संस्था में दे आओ।

बाबा अपने अनुयायिययों से सदैव यही कहते थे कि “मेरी जहां मृत्यु हो जाये वहीं पर मेरा अंतिम संस्कार कर देना, मेरी मूर्ति, मेरी समाधि, मेरा स्मारक मंदिर नहीं बनाना। मैनें जो कार्य किया है वही मेरा सच्चा स्मारक है।” जब बाबा की तबियत खराब हुर्इ तो चिकित्सकों ने उन्हें अमरावती ले जाने की सलाह दी किन्तु वहां पहुचने से पहले बलगाव के पास पिढ़ी नदी के पुल पर 20 दिसम्बर 1956 को रात्रि 12 बजकर 20 मिनट पर बाबा की जीवन ज्योति समाप्त हो गयी। जहां बाबा का अंतिम संस्कार किया गया आज वह स्थान गाडगे नगर के नाम से जाना जाता है। संत गाडगे बाबा ने तीर्थस्थानों पर धर्मशालाएं इसीलिए स्थापित की थीं ताकि गरीब यात्रियों को वहां मुफ्त में ठहरने का स्थान मिल सके। नासिक में बनी उनकी विशाल धर्मशाला में 500 यात्री एक साथ ठहर सकते हैं।

वहां यात्रियों को सिगड़ी, बर्तन आदि भी निःशुल्क देने की व्यवस्था है। दरिद्र नारायण के लिए वे प्रतिवर्ष अनेक बड़े-बड़े अन्नक्षेत्र भी किया करते थे, जिनमें अंधे, लंगड़े तथा अन्य अपाहिजों को कंबल, वर्तन आदि भी बांटे जाते थे। सन् 2000-01 में महाराष्ट्र सरकार ने ‘संत गाडगे बाबा ग्राम स्वच्छता अभियान’ की शुरुआत की, जिसके अंतर्गत जो लोग अपने गांवों को स्वच्छ और साफ-सुथरा रखते है उन्हें यह पुरस्कार दिया जाता है। उन्होंने अपना सारा जीवन एक सच्चे निष्काम कर्मयोगी बनकर व्यतीत किया।

उन्होंने अनेक धर्मशालाएं, विद्यालय, चिकित्सालय व छात्रावासों का निर्माण कराया, लेकिन अपने लिए एक कुटिया तक नहीं बनवाई। संत गाडगे महाराज ने अशिक्षित होते हुए भी जीवनपर्यंत, देशवासियों को शिक्षा के प्रति और नशाखोरी के विरोध में जागरूक किया था। संत गाडगे जी कहते थे कि “मनुष्य की सभी समस्याओं की जड़ अशिक्षा और नशाखोरी ही है।” समाज में फैली कुरीतियों दहेज प्रथा, बाल विवाह, छुआ-छूत व नशाखोरी जैसी बुराइयों को दूर करने के लिए उन्होने बहुत संघर्ष किया था। संत गाडगे द्वारा स्थापित ‘गाडगे महाराज मिशन’ आज भी समाज सेवा में रत है।

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