Wednesday, December 25, 2024
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बाबा साहेब अंबेडकर की 131 वीं जयंती पर विशेष:- एक अपराजेय नायक,

राकेश बिहारी शर्मा – बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आधुनिक भारतीय चिंतकों में एक प्रतिनिधि नाम हैं। 20 वीं शताब्दी के श्रेष्ठ चिन्तक, ओजस्वी लेखक, तथा यशस्वी वक्ता एवं स्वतंत्र भारत के प्रथम कानून मंत्री डॉ. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान के प्रमुख निर्माणकर्ता हैं। विधि विशेषज्ञ, अथक परिश्रमी एवं उत्कृष्ट कौशल के धनी व उदारवादी, व्यक्ति के रूप में डॉ. अंबेडकर ने संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। डॉ. भीमराव एक भारतीय विधिवेत्ता होने के साथ ही बहुजन राजनीतिक नेता और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। बाबा साहब एक अछूत और मजदूर का जीवन जी कर देख चुके थे, वे कुली का भी काम किए तथा कुलियों के साथ रहे भी थे। उन्होंने गांव को वर्णव्यवस्था का प्रयोगशाला कहा था।
युगपुरूष, विश्व भूषण, भारत रत्न भीमराव अंबेडकर जी आंबेडकर बाबा साहेब के नाम से लोकप्रिय, भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार, भारतीय विधिवेत्ता ,अर्थशास्त्री ,राजनीतिज्ञ और समाजसुधारक थे। डा. भीमराव अंबेडकर ने महात्मा फूले की शिक्षा संबंधी सोच को परिवर्तन की राजनीति के केन्द्र में रखकर संघर्ष किया था। वे सामाजिक परिवर्तन के ध्वज बाहक थे। डा. अम्बेड़कर ने महात्मा फूले द्वारा कुरीतियों के खिलाफ शुरू किए गए आन्दोलन को विश्वव्यापी बनाया और श्रमिक अधिकारों के रक्षक तथा श्रमिकों के लिए सुरक्षा कवच थे बाबा साहेब अम्बेडकर। बुद्ध, कबीर, महात्मा फुले जैसी महान विभूतियों के विचारों को आत्मसात कर सामाजिक क्रांति के उद्बोधक एवं पोषक भारत रत्न बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर का जन्म युग और काल की धाराओं को मोड़ने के लिए ही हुआ था। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को समझने के लिए किसी विद्वान को भी वर्षों लग सकते हैं क्योंकि उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू इतने गहरे हैं कि उनकी थाह पाना कठिन है।

बाबा साहेब अंबेडकर की 131 वीं जयंती पर विशेष:- एक अपराजेय नायक,

अंबेडकर का जन्म, शिक्षा और परिवार -भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर का कहना था कि शिक्षित बनो और संघर्ष करो। डॉ. अंबेडकर सामाजिक नवजागरण के अग्रदूत, समतामूलक समाज के निर्माणकर्ता और आधुनिक राष्ट्र के शिल्पकार थे। उनके सामाजिक समानता के मिशन के केन्द्र में समाज के कमजोर, मजदूर, महिलाएं थीं, जिन्हें वे शिक्षा और संघर्ष से सशक्त बनाना चाहते थे। उनके जीवन का एक मात्र लक्ष्य था समाज के शोषित वर्गों को न्याय दिलाना, जिसके लिए उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज के सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षिक उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। सहृदय नेता डॉ. भीमराव अंबेडकर का जन्म मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में स्थित महू में हुआ था जिसका नाम आज बदल कर डॉ.अंबेडकर नगर रख दिया गया है। डॉ भीमराव अंबेडकर जी का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू में सूबेदार रामजी शकपाल एवं भीमाबाई की चौदहवीं संतान के रूप में हुआ था। बचपन में वे भिवा, भीम, भीमराव के नाम से जाने जाते थे लेकिन आज हम सब उन्हें बड़े आदर के साथ बाबा साहेब अंबेडकर के नाम से पुकारते हैं। उनके पिता इंडियन आर्मी में सूबेदार थे, व उनकी पोस्टिंग इंदौर के पास महू में थी, यही अंबेडकर जी का जन्म हुआ। 1894 में रिटायरमेंट के बाद उनका पूरा परिवार महाराष्ट्र के सतारा में शिफ्ट हो गया। कुछ दिनों के बाद उनकी माँ चल बसी, जिसके बाद उनके पिता ने दूसरी शादी कर ली, और बॉम्बे शिफ्ट हो गए। जिसके बाद अंबेडकर जी की पढाई यही बॉम्बे में हुई, 1906 में 15 साल की उम्र में उनका विवाह 9 साल की रमाबाई से हो गया। इसके बाद 1908 में उन्होंने 12 वीं की परीक्षा पास की। छुआ छूत के बारे में अंबेडकर जी ने बचपन से देखा था, वे हिन्दू मेहर जाति के थे, जिन्हें नीचा समझा जाता था व ऊँची जाति के लोग इन्हें छूना भी पाप समझते थे। इसी वजह से अंबेडकर जी ने समाज में कई जगह भेदभाव का शिकार होना पड़ा। इस भेदभाव व निरादर का शिकार, अंबेडकर जी को आर्मी स्कूल में भी होना पड़ा जहाँ वे पढ़ा करते थे, उनकी जाति के बच्चों को क्लास के अंदर तक बैठने नहीं दिया जाता था। टीचर तक उन पर ध्यान नहीं देते थे। यहाँ उनको पानी तक छूने नहीं दिया जाता था, स्कूल का चपरासी उनको उपर से डालकर पानी देता था, जिस दिन चपरासी नहीं आता था, उस दिन उन लोगों को पानी तक नहीं मिलता था। स्कूल की पढाई पूरी करने के बाद अंबेडकर जी को आगे की पढाई के लिए बॉम्बे के एल्फिनस्टोन कॉलेज जाने का मौका मिला, पढाई में वे बहुत अच्छे व तेज दिमाग के थे, उन्होंने सारे एग्जाम अच्छे से पास करे थे, इसलिए उन्हें बरोदा के गायकवाड के राजा सहयाजी से 25 रूपए की स्कॉलरशिप हर महीने मिलने लगी। उन्होंने राजनीती विज्ञान व अर्थशास्त्र में 1912 में ग्रेजुएशन पूरा किया। उन्होंने अपने स्कॉलरशिप के पैसे को आगे की पढाई में लगाने की सोची और आगे की पढाई के लिए अमेरिका चले गए। अमेरिका से लौटने के बाद बरोदा के राजा ने उन्हें अपने राज्य में रक्षा मंत्री बना दिया। परन्तु यहाँ भी छुआछूत की बीमारी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा, इतने बड़े पद में होते हुए भी उन्हें कई बार निरादर का सामना करना पड़ा। बॉम्बे गवर्नर की मदद से वे बॉम्बे के सिन्ड्रोम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स एंड इकोनोमिक्स में राजनैतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर बन गए। अंबेडकर जी आगे और पढ़ना चाहते थे, इसलिए वे एक बार फिर भारत से बाहर इंग्लैंड चले गए, इस बार उन्होंने अपने खर्चो का भार खुद उठाया। यहाँ लन्दन युनिवर्सिटी ने उन्हें डीएससी के अवार्ड से सम्मानित किया। अंबेडकर जी ने कुछ समय जर्मनी की बोन यूनीवर्सिटी में गुज़ारा, यहाँ उन्होंने इकोनोमिक्स में अधिक अध्ययन किया। 8 जून 1927 को कोलंबिया यूनीवर्सिटी में उन्हें डॉक्टोरेट की बड़ी उपाधि से सम्मानित किया गया। अंबेडकर जी की पत्नी रमाबाई की लम्बी बीमारी के चलते 1935 में म्रत्यु हो गई थी। 1940 में भारतीय संबिधान का ड्राफ्ट पूरा करने के बाद उन्हें बहुत सी बीमारियों ने घेर लिया। उन्हें रात को नींद नहीं आती थी, पैरों में दर्द व डायबटीज भी बढ़ गई थी, जिस वजह से उन्हें इन्सुलिन लेना पड़ता था। इलाज के लिए वे बॉम्बे गए जहाँ उनकी मुलाकात एक ब्राह्मण डॉक्टर शारदा कबीर से हुई। डॉ. के रूप में उन्हें एक नया जीवन साथी मिल गया, उन्होंने दूसरी शादी 15 अप्रैल 1948 को दिल्ली में की। डॉ० भीमराव अंबेडकर जीवन भर समाजवाद और लोकतंत्र के साथ ही गरीबो, वंचितों, पीडि़तां के आंसू पोंछने का काम किया था। बाबा साहेब महार जाति से आते थे जो कि उस समय अछूत माना जाता था। अंबेडकर को बचपन में ही समाज के विभेदकारी बर्ताव का सामना करना पड़ा था। उन्हें स्कूल में अलग बैठाया जाता था, ऊंची जाति के बच्चे उनसे ठीक से बात नहीं करते थे। अंबेडकर को ये बात काफी चुभती थी और उन्होंने उस अल्प आयु में ही समाज से इस विभेद को खत्म करने का प्रण ले लिया था। अंबेडकर ने अपने जीवन में समाज से विभेद हटाने को अपना लक्ष्य बना लिया था और इसकी पूर्ति करने के लिए उन्होंने पढ़ाई को हथियार बनाया।

बाबा साहेब अंबेडकर की 131 वीं जयंती पर विशेष:- एक अपराजेय नायक,

बाबा साहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर का त्रिसूत्र शिक्षा, संगठन और संघर्ष – भारतरत्न महामानव, राष्ट्रपुरुष, बाबासाहेब डॉ० भीमराव अंबेडकर दलितों, शोषितों तथा बहुजन राजनीतिक नेता और साथ ही साथ भारतीय संविधान के मुख्य शिल्पकार भी थे। वे जातिविहीन समाज के पक्षधर थे। डॉ० भीमराव अंबेडकर ने देश के निर्धन और बंचित समाज को प्रगति करने का जो सुनहरी सूत्र दिया था, उसकी पहली इकाई शिक्षा ही थी। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि वे गतिशील समाज के लिये शिक्षा को कितना महत्व देते थे। उनका त्रि सूत्र था- शिक्षा, संगठन और संघर्ष। वे आह्वान करते थे, शिक्षित करो, संगठित करो और संघर्ष करो। पढ़ो और पढ़ाओ। इस सूत्र का अर्थ स्पष्ट है कि संगठित होने और न्याययुक्त संघर्ष करने के लिये प्रथम शर्त शिक्षित होने की ही है। उनके भारतीय संविधान के अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें ‘भारतीय संविधान का पितामह’ कहा जाता है। सन् 1951 में उन्होंने ‘भारत के वित्तीय कमीशन’ की स्थापना की। संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर के विषय में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में कहा था, ‘‘स्वतंत्र भारत के संविधान शिल्पी डॉ. अंबेडकर ने अपनी बुद्धि, प्रतिभा और योग्यता की हर कीमत चुका कर देश को एक नया संविधान भेंट कर दिया। संसार में ऐसी मानसिक ऊंचाई और शाश्वत प्रतिभा के धनी कर्मठ महापुरुष कभी-कभी ही अवतरित होते हैं।’’

बाबा साहेब अंबेडकर की 131 वीं जयंती पर विशेष:- एक अपराजेय नायक,

डॉ. भीमराव अंबेडकर का राजनैतिक सफ़र – 1936 में अम्बेडकर जी ने स्वतंत्र मजदूर पार्टी का गठन किया। 1937 के केन्द्रीय विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 15 सीट की जीत मिली. अम्बेडकर जी अपनी इस पार्टी को आल इंडिया शीडयूल कास्ट पार्टी में बदल दिया, इस पार्टी के साथ वे 1946 में संविधान सभा के चुनाव में खड़े हुए, लेकिन उनकी इस पार्टी का चुनाव में बहुत ही ख़राब प्रदर्शन रहा। कांग्रेस व महात्मा गाँधी ने अछूते लोगों को हरिजन नाम दिया, जिससे सब लोग उन्हें हरिजन ही बोलने लगे, लेकिन अंबेडकर जी को ये बिल्कुल पसंद नहीं आया और उन्होंने उस बात का विरोध किया। उनका कहना था अछूते लोग भी हमारे समाज का एक हिस्सा है, वे भी बाकि लोगों की तरह नार्मल इन्सान है।

सामाजिक असमानता के लिए संघर्ष किया -उस समय हिंदू पंथ में अनेक कुरीतियां, छुआछूत और ऊंच-नीच की प्रथायें प्रचलन में थीं। जिसके लिए उन्होंने अथक संघर्ष किया। वे स्वयं दलित वर्ग से सम्बन्धित थे। छुआछूत के दंश को, समाज में व्याप्त सामाजिक असमानता, जाति-व्यवस्था, शूद्रों के साथ होने वाले अमानवीय व्यवहार को उन्होंने अपने बाल्यकाल से देखा-जाना और भोगा था। उस भोगे हुए जीवन-यथार्थ से उन्हें प्रत्येक प्रकार की सामाजिक असमानता के लिए आवाज उठाने की प्रेरणा मिली। उनका मानना था कि “छुआछूत गुलामी से भी बदतर है।” सन 1927 तक डॉ. अंबेडकर ने छुआछूत के विरूद्ध एक सक्रिय आंदोलन प्रारंभ किया और सार्वजनिक आंदोलन, सत्याग्रह और जुलूसों के माध्यम से पेयजल के सार्वजनिक संसाधन समाज के सभी वर्गों के लिए खुलवाने का प्रयास किया। वे निरंतर हिंदू समाज को सुधारने, समानता लाने के लिए प्रयास करते रहे, लेकिन कुप्रथाओं की जड़ें इतनी गहरी थीं कि उनका समूल उन्मूलन उन्हें कठिन लगने लगा। एक बार तो वे गहरी हताशा में कहते हैं कि “हमने हिंदू समाज में समानता का स्तर प्राप्त करने के लिए हर तरह के प्रयास और सत्याग्रह किए, परंतु सब निरर्थक सिद्ध हुए। हिंदू समाज में समानता के लिए कोई स्थान नहीं है।” इसका परिणाम यह हुआ कि 14 अक्टूबर, 1956 को नागपुर में उन्होंने अपने 3.85 लाख समर्थकों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाते हुए वंचित समुदाय को नवीन धार्मिक, अध्यात्मिक, नैतिक मूल्यों, रीति रिवाजों की एक जीवंत परंपरा प्रदान की। एक ओर वर्षों के अपमान तो दूसरी और करुणा, प्रेम, समता और अहिंसा से ओतप्रोत भारतीय संस्कृति के अविभाज्य अंग बौद्ध मत का अंगीकार कर बाबा साहब ने देश के लिए अपने समर्पण का उत्तम उदाहरण दिया। उनकी जयंती पर मेरा युवा पीढ़ी को विशेष संदेश है कि उनके आदर्शों का पालन केवल विशेष अवसर पर ही न करें, अपितु प्रत्येक क्षण उस राष्ट्रभक्त, मानवतावादी, धर्मप्राण और सात्विक वृति के महापुरुष के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात करें। यह 19वीं और 20वीं सदी का वह दौर था जब अस्पृश्य जाति में पैदा होना एक अभिश्राप से कम नहीं था। डॉ. अंबेडकर ने उस समय भारत के लिए ऐसा संविधान बनाया जो समाज के हर वर्ग को बराबर सम्मान और आवाज देता है। देश के आजाद होने के बाद वह भारत के पहले कानून मंत्री बने। अंबेडकर के जीवन में एक बड़ी घटना साल 1956 में घटी तब उन्होंने हजारों लोगों के साथ बौद्ध धर्म को अपना लिया था। अंबेडकर की मृत्यु उसी साल हो गई और उन्हें मरणोपरांत साल 1990 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से उन्हें नवाजा गया।

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