Saturday, January 11, 2025
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क्रांतिवीरों के शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद की 116 वीं जयंती पर विशेष

●दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे!
● “मैं आजाद था, आजाद हूं, आजाद रहूंगा” ठानकर आखिरी सांस तक चंद्रशेखर रहे आजाद
● अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद बचपन से ही क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रीय थे
●आज़ाद ने कहा दुश्मन की गोलियों का सामना करेंगे, आजाद हैं आजाद रहेंगे

राकेश बिहारी शर्मा – हमारा भारतीय इतिहास अंग्रेजों के चंगुल से पूरी तरह से जकड़ लिया गया था, ऐसे में भारतवर्ष के नागरिकों को अंग्रेजों के द्वारा किए जाने वाले जुल्म को सहना पड़ता था। भारतीय इतिहास में ऐसे बहुत से नागरिक थे, जिन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की और भारत की आजादी के लिए कठिन परिश्रम किया। ऐसे में ही एक नाम हमारे सामने आता है, देश के महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का। चंद्रशेखर आजाद देश के ऐसे महान क्रांतिकारी थे, जिन्होंने भारत मां की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्योछावर कर दिए। अमर बलिदानी चंद्रशेखर आजाद एक महान क्रांतिकारी थे। चंद्रशेखर आजाद उग्र स्वभाव के थे। वे बचपन से क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रीय रहे थे। चंद्रशेखर आजाद ने कसम खाई थी कि मरते दम तक वह अंग्रेजो के हाथ नहीं आयेंगे। जब आखिरी समय में अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया था तो स्वयं ही खुद को गोली मार दी और शहीद हो गए।

चंद्रशेखर आजाद का परिवारिक प्रारंभिक जीवन

क्रांतिवीरों के शिरोमणि चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के भाभरा गांव (अब चंद्रशेखर आजाद नगर नाम से प्रसिद्ध) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनका पूरा नाम चंद्रशेखर तिवारी था। इनके पिता का नाम सीताराम तिवारी था। वे अलीराजपुर में नौकरी करते थे। इनकी माता का नाम जागरणी देवी था। सीताराम तिवारी की पहली दो पत्नियों की मृत्यु हो गयी थी। जागरणी देवी उनकी तीसरी पत्नी थी। इसके अलावा चंद्रशेखर आजाद के एक बड़े भाई भी थे, जिनका नाम सुखदेव पंडित था। चंद्रशेखर को उनकी मां संस्कृथत का बड़ा विद्वान बनाना चाहती थीं। इसलिए अपने पति को मनाया कि लड़के को पढ़ने काशी विद्यापीठ भेजें। बनारस पहुंचे चंद्रशेखर की दिलचस्पी संस्कृेत में कम, असहयोग आंदोलन में ज्याबदा थी। चंद्रशेखर आजाद के भाई भी उन्हीं की तरह एक वीर और साहसी क्रांतिकारी थे। चंद्रशेखर आजाद और सुखदेव पंडित दोनों ही काफी कम उम्र में भारत की स्वतंत्रता के लिए शहीद हो गए थे।

चंद्रशेखर तिवारी का नाम आज़ाद कैसे पड़ा

वर्ष 1921 में महात्मा गाँधी ने जब भारत में असहयोग आन्दोलन की घोषणा की थी तब चंद्रशेखर की उम्र मात्र 15 वर्ष थी और वे उस आन्दोलन में शामिल हो गए थे। इस आन्दोलन में चंद्रशेखर पहली बार गिरफ्तार हुए थे। इसके बाद चंद्रशेखर को थाने ले जाकर हवालात में बंद कर दिया। दिसम्बर में कड़ाके की ठण्ड में आज़ाद को ओढ़ने-बिछाने के लिए कोई बिस्तर नहीं दिया गया था। जब आधी रात को इंसपेक्टर चंद्रशेखर को कोठरी में देखने गया तो आश्चर्यचकित रह गया। बालक चन्द्रशेखर दंड-बैठक लगा रहे थे और उस कड़कड़ाती ठंड में भी पसीने से नहा रहे थे।
अगले दिन आज़ाद को न्यायालय में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। जब मजिस्ट्रेट ने चंद्रशेखर से पूछा- तुम्हारा नाम क्या है। चन्द्रशेखर ने जवाब दिया “आज़ाद”। फिर मजिस्ट्रेट ने कठोर स्वर में पूछा- तुम्हारे पिता का नाम क्या है। फिर चंद्रशेखर ने जवाब दिया “स्वतंत्र” और पता पूछने पर चंद्रशेखर ने जवाब दिया “जेल”। चंद्रशेखर के इन जवाबों को सुनकर जज बहुत क्रोधित हुआ और उसने बालक चंद्रशेखर को 15 कोढ़े की सजा सुनाई। चंद्रशेखर की वीरता की कहानी बनारस के घर-घर में पहुँच गयी थी और इसी दिन से उन्हें चंद्रशेखर आज़ाद कहा जाने लगा।

चंद्रशेखर आजाद का राजनैतिक जीवन

वर्ष 1922 में गांधीजी ने चौरी-चौरा कांड से नाराज होकर असहयोग आन्दोलन वापिस ले लिया था। जिसके कारण रामप्रसाद बिस्मिल, चंद्रशेखर आज़ाद और अशफाकुल्ला खान नाराज हो गए थे। जिसके बाद आज़ाद “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” संघठन के सक्रिय सदस्य बन गए। संघठन चलाने और अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति के लिए धन की आवश्यकता थी। जिसके बाद आजाद और उनके साथियो ने 9 अगस्त 1925 को काकोरी कांड को अंजाम दिया और सरकारी खजाना लूट लिया।
इस कांड में शामिल सभी आरोपियों को पकड़ लिया गया था परन्तु आज़ाद को पुलिस नहीं पकड़ पाई थी इसके बाद जब लाला जी की मृत्यु से पूरे देश में नाराजगी व्याप्त हो गई थी। चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों ने लालाजी की मौत का बदला लेने का निर्णय किया और इन जांबाज देशभक्तों ने लालाजी की मौत के ठीक एक महीने बाद 17 दिसम्बर 1928 को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर सांडर्स को गोली से उड़ा दिया। आजाद ने अपनी जिंदगी के 10 साल फरार रहते हुए बिताए थे।

अंग्रेजों से बचने के लिए सन्यासी के वेश में गुफा में रहते थे आजाद

स्वतंत्रता संघर्ष के लिए चंद्रशेखर आजाद हमेशा से ही अपनी गतिविधियों को लेकर अंग्रेजों के निशाने पर रहे। अंग्रेजों ने बचने के लिए उन्होंने एक गुफा बनाई थी। कहा जाता है कि मध्य प्रदेश के झांसी के पास एक मंदिर में चंद्रशेखर आजाद ने 8 फीट की एक गहरी गुफा बनाई थी। गुफा में चंद्रशेखर एक सन्यासी के रूप में रहते थे और वहीं से अपने स्वतंत्रता संघर्ष को जारी भी रखते थे। लेकिन अंग्रेजों ने चंद्रशेखर आजाद के इस ठिकाने का पता लगा लिया था। जब अंग्रेज चंद्रशेखर आजाद के इस गुफा में दबिश देने आए तो चंद्रशेखर आजाद वहां से एक महिला का वेश बनाकर निकल गए थे। काकोरी कांड में फरार होने के बाद से ही छिपने के लिए चंद्रशेखर साधु का वेश बनाना बखूबी सीख लिया था और इसका उपयोग चंद्रशेखर कई बार किया। एक बार चंद्रशेखर अपने दल के लिए धन जुटाने हेतु गाजीपुर के एक मरणासन्न साधु के पास चेला बनकर भी रहे ताकि उसके मरने के बाद मठ की सम्पत्ति उनके हाथ लग जाए।

चंद्रशेखर आजाद अंग्रेजों के हाथ ना आए इसलिए सभी फोटो नष्ट करवा दी थी

चंद्रशेखर आजाद ने ये ठानी थी कि वह जिंदा रहते कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे। इसके लिए उन्होंने अपनी सभी फोटो को नष्ट करवा दी थी। अपने घर और रिश्तेदारों के पास जितनी भी चंद्रशेखर की फोटो थी सबको उन्होंने नष्ट करवा दिया था। हालांकि चंद्रशेखर आजाद की एक फोटो झांसी में रह गई थी। जब उन्हें इसका आभास हुआ तो उन्होंने अपने एक मित्र को फोटो नष्ट करने के लिए भेजा था। लेकिन वह संभव नहीं हो पाया। चंद्रशेखर ने ऐसा इसलिए करवाया था कि ताकि कोई अंग्रेज उनका असली चेहरा ना देख पाए। चंद्रशेखर आजाद अक्सर अपना वेश बदलकर अपने स्वतंत्रता गतिविधियों को अंजाम दिया करते थे।

अपने साथियों के साथ असेंबली में बम विस्फोट

ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध करने के लिए जब भगत सिंह ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट कर दिया। इस विस्फोट का मुख्य उदेश्य अंग्रेज़ सरकार द्वारा बनाए गए काले क़ानूनों का विरोध करना था। यह विस्फोट आजाद के नेतृत्व में ही किया गया था।

आज़ाद को संघठन हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की जिम्मेदारी

काकोरी कांड में पकडे गए सभी क्रांतिकारियों को सजा दी गई जिसके बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन पुराने रूप से निष्क्रिय हो गया था। जिसके बाद दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। जिसमे भगत सिह को प्रचार की जिम्मेदारी दी गई। इस बैठक में यह निर्णय लिया गया कि सभी क्रांतिकारी दलों को संघटित कर फिर से हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का पुनर्गठन किया गया। जिसके बाद हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का नाम बदलकर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन” रख दिया गया। आज़ाद को संघठन के प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) की जिम्मेदारी दी गयी थी।

चंद्रशेखर आजाद की मृत्यु

क्रांतिवीर चंद्रशेखर आजाद ने क्रांतिकारी गतिविधियों को इतना ज्यादा विस्तार दे दिया था कि ब्रिटिश शासक भी उनसे भयभीत होने लगी थी। जिसके बाद चंद्रशेखर को जिंदा या मुर्दा किसी भी हालत में पकड़ने की घोषणा कर दी गई। उसके बाद चंद्रशेखर जब ब्रिटिश सेनाओं के कब्जे में आ गए तो उनके हाथ नहीं मरना चाहती थे। चंद्रशेखर आज़ाद 27 फरवरी 1931 के दिन इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के अल्फ्रेड पार्क में अपने मित्रों से भेट करने गए थे। मुखबिर से सूचना मिलने के बाद ब्रिटिश पुलिस ने आजाद और उनके साथियों को चारो तरफ से घेर लिया और समर्पण करने को कहा। लेकिन दोनों ओर से काफी गोलियाँ चल रही थी। आजाद भी पेड़ की ओट में रहकर अंग्रेजों पर गोली चला रहे थे।
चंद्रशेखर आजाद अपने साथ हमेशा एक गोली अलग रखते थे। उनके पास कोल्टश की एक पिस्टमल थी। उन्होंेने उसी पिस्तौ‍ल से उस दिन तीन पुलिसवालों को मारा और कई को घायल किया। इससे सुखदेव को भागने का मौका मिल गया। जब पुलिस ने चंद्रशेखर आजाद को घेर लिया तो उन्होंौने वही अलग रखी गोली निकाली, पिस्टाल में डाली और आत्माहत्याअ कर ली। चंद्रशेखर आजाद मरते दम तक आजाद रहे। क्योंकि उन्होंने जीवित रहते अंग्रेजो के हाथ ना आने की प्रतिज्ञा ली थी। अंग्रेजों ने बिना किसी को खबर दिए उनके शरीर को रसूलाबाद घाट भेजकर अंतिम संस्कार कर दिया। चन्द्रशेखर आजाद जहां शहीद हुए थे, उस पार्क का नाम बदलकर चंद्रशेखर आजाद पार्क रख दिया गया है। इतना ही नहीं जिस गांव में उनका जन्म हुआ था, उस गांव का भी नाम उनके नाम पर रखा गया और वहां पर इनके नाम का स्मारक भी बनाया गया। चंद्रशेखर आजाद अपने साथ जो माउज़र रखते थे। वह पिस्टल आज भी इलाहाबाद के म्यूजियम में रखी हुई है। आज़ाद हमेशा कहा करते थे “दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं। आजाद ही रहेंगे”।

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