राकेश बिहारी शर्मा – एक समय बिहार में कई निजी सेनाएं मौजूद थी। जैसे- भूमि सेना, लोरिक सेना, ब्रह्मर्षि सेना, शोषित दलित समाजवादी सेना, शोषित मुक्ति सेना इत्यादि। ये सभी सेनाएं जातिगत-सेनाएं थी। कौन जानता था कि तारीख 01 जून की सुबह एक ऐसे भूमिहार योद्धा की नृशंस हत्या कर दी जाएगी। एक ऐसा योद्धा जिसने अपनी पूरी जिंदगी किसानों के हित में और माओवादियों के खिलाफ लड़ते हुए बिता दी और जान भी दी तो किसानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ते हुए। छोटी जाति में जन्म लेना कोई अपराध नहीं है, ठीक उसी तरह बड़ी जाति में भी जन्म लेना किसी भी तरह से बुरा नहीं है। जाति या जन्म के आधार पर जुल्म करना कितना सही है और कितना गलत ये तो विद्वान लोग ही बता सकते हैं। मैंने बहुतो को देखा है कि वो दलित सम्बन्धी अधिकारों की वकालत करते देखा है (मै भी इसके अंतर्गत हूँ), लेकिन इसका ये मतलब नहीं की सवर्ण पर जातिगत आधार पर या संपन्नता के आधार पर आक्रमण किये जाएँ। किसी का भी अपने अधिकारों के लिए लड़ना जायज है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं की जो चीज हमारे पास नहीं है उसे दूसरो से बलात् छीन ली जाए। चाहे वो दलित वर्ग हो या सवर्ण। इसको एक उदाहरण से और समझा जा सकता है। यदि किसी की आय चालीस हजार मासिक है और दूसरे की एक लाख तो चालीस हजार वाला अपनी क्षमता बढ़ा कर अपनी आय एक लाख करने का अधिकार रखता है, लेकिन इसके बजाय यदि वो एक लाख पाने वाले व्यक्ति को मार कर यदि उसकी जगह हथिया लेता है तो यह निश्चय ही निंदनीय है। इसी क्रम में एक दौर वो भी था जब नक्सलियों और माओवादियों ने बंगाल को अपनी नफरत के आग से जलाने के बाद उनका विस्तार बिहार में होने लगा, इसी क्रम में उनकी नजर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाको पर भी थी। थोड़े ही समय में नक्सलियों ने इसे दलित समर्थक होने का रंग रूप दे दिया, जिससे दलितों का कुछ भी भला तो नहीं हुआ बल्कि माओवादियों ने अपनी टोपी जरुर सीधी की। माओवादी और नक्सली रातो-रात जमींदारों के गांव पर हमला बोल गांव का गांव साफ़ कर देते, लोग अपनी मातृभूमि, जमीन, गांव छोड़ दूसरी जगह विस्थापित होने को मजबूर हो गए। और जो लोग अपने जगह को किसी कारणवश नहीं छोड़ पाए वो पूरी की पूरी रात माओवादियों और नक्सलियों के भय और आतंक में जगने को मजबूर थे। गांव वाले समयसारिणी के अनुसार पहरा देते। क्योंकि उस समय इन किसानों को न पुलिस से कोई सहायता प्राप्त थी न ही सरकार से। बल्कि नक्सलियों ने अपनी निजी अदालतें लगा अपने आप को सरकार और अदालत से ऊपर घोषित कर रखा था। नक्सली जब चाहते किसी भी खेत में अपना लाल झंडा गाड़ देते। जनता के पास बस दो ही विकल्प बच गए या तो वो अपनी गांव जमीन-जायदाद छोड़ कहीं और विस्थापित हो जाए या तो नक्सलियों के हाथो मारे जाएँ, तब एसे समय में ब्रह्मेश्वर जी ने एक सुरक्षात्मक सेना का गठन किया जिसको नाम दिया “रणवीर सेना” शुरूआत में इसमें भूमिहार और बड़े किसानों ने हिस्सा लिया बाद में नक्सलियों के हिंसा को देखते हुए इसमें राजपूत और कायस्थ भी जुड़ते चले गए। ये सेना गांव की सुरक्षा की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरु क्या क्योंकि उनके पास कोई विकल्प ही नहीं बचा था, या तो वो मर जाए या सब छोड़ जाये। तब रणवीर सेना ने इसका उपाय सोचा।
बरमेश्वर नाथ सिंह मुखिया जी का जन्म एवं शिक्षा – अभी देश को आजाद हुए दो वर्ष ही हुए थे दसवें महिने के 22 तारीख 1949 ये दिन बिहार के खोपिरा गांव के जमींदार और मुखिया बाबू रामबालक सिंह जी के घर आधुनिक भारत के परशुराम और गांव वालों के लिये छोटे मुखिया ने जन्म लिया। उनका नाम रखा गया बरमेश्वर नाथ सिंह। जिंदगी ने छोटी से उम्र में ही कसौटी पर तौलना सुरु कर दिया जब बरमेश्वर जी 4-5 साल के थे तब उनकी माता जी ने उनको उस रूम में सुला दिया जिस में अनाजों के बोरे रखे गए थे। अनाज की सारी बोरियां बरमेश्वर के ऊपर गिर गयी लेकिन वो सकुशल बच गये बचते कैसे नहीं आधुनिक भारत के परशुराम जो थे। बचपन से ही तीक्ष्ण बुद्धि के मालिक थे, हमेशा क्लास में अग्रणी आते थे। माध्यमिक शिक्षा के बाद वो उच्च शिक्षा आगे के शिक्षा के लिये वो आरा आ गए, जहां से कुछ दिनों के पश्चात उनके मौसा जी उनको उच्च शिक्षा के लिये पटना लेकर चले गए। ब्रह्मेश्वर सिंह उर्फ़ ब्रह्मेश्वर मुखिया का असली नाम ‘बरमेश्वर नाथ सिंह था। उनका जन्म् आरा जिले के खोपिरा नामक गांव में 13 मार्च 1947 को हुआ था। विद्यालय में दर्ज जन्मतिथि के अनुसार यह तिथि है। उनका प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही स्कूल में हुई थी। बाद में मैट्रिक करने के बाद हरप्रसाद दास जैन कालेज आरा से इंटर की परीक्षा पास की थी। 12वीं की परीक्षा अच्छे अंकों से उतीर्ण हुए। अब तक उनके मन में देश की सेवा सैनिक बन कर करने की भावना ने दृढ़ संकल्प कर लिया था। 17 साल की उम्र में बरमेश्वर जी राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के परीक्षा में बैठे और उन्होंने परीक्षा पूरी तरह तय कर ली उनका वायु सेना में बिहार का पहला ऑफिसर बनना तय था। लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। उनको तो सदी के सबसे बड़े महानायक और किसान नेता के रूप में स्थापित करने की तैयारी थी नियति की। इसी वर्ष आपसी रंजिश के एक मुकदमे में बरमेश्वर जी का नाम डाल दिया गया। और इस अंधे कानून ने देश सेवा से ओत-प्रोत एक 17 साल के नाबालिक बच्चे को जेल भेज दिया। इन्ही कारणों से बरमेश्वर नाथ सिंह जी का वायु सेना में जाने का सपना और उनकी दिन रात की मेहनत बेरंग हो गई। इसी साल वो जेल से बाहर निकले और उनके पंचायत के लोगों ने सर्वसम्मति से यानी निर्विरोध मुखिया चुन कर अपने छोटे मुखिया को बरमेश्वर मुखिया बना दिया। ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह पूरे बिहार के सब से कम उम्र में मुखिया बन चुके थे वो भी मात्र 17 साल की उम्र में। इनके उम्र में टेक्निकल त्रुटि थी। लेकिन उनका सर्टिफिकेट (प्रमाण पत्र) में उम्र वास्तविक उम्र से लगभग दो साल ज्यादा था। जो नई-नई आजादी पाए देश मे एक सामान्य सी बात थी। ये स्नातक नहीं किये थे, क्योंकि अप्रैल 1971 में अपने पंचायत का मुखिया बन गये। मुखिया बनने के बाद इनकी पढ़ाई-लिखाई छूट गयी और पूरी तरह समाजसेवा में लग गये। ब्रह्मेश्वर जी ने मुखिया रहते खोपिरा माध्यमिक स्कूल का निर्माण करवाया खोपिरा पंचायत भवन का निर्माण करवाया साथ में यात्रियों के ठहरने के लिये भगवानपुर में एक ठहराव केंद्र बनाया जिसमें उन्होंने खुद के देख-रेख में घर से टेंडर से ज्यादा पैसे लगा कर इन सब का निर्माण कराया। उनकी ईमानदारी और दूरदर्शिता का एक बहुत बड़ा प्रमाण खोपिरा माध्यमिक विद्यालय है जो उनके जवानी के दिनों से लेकर आज तक वैसे का वैसा खड़ा है। ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह अब खोपिरा पंचायत के साथ-साथ अन्य आस-पास के जगहों में अपनी न्याय करने की क्षमता और न्याय के लिये किसी भी चट्टान से टकरा जाना लोकप्रिय होने लगे। उन्होंने अपने पंचायत में दारू, गांजा, ताश, जुआ इत्यादि पर पूर्णतया रोक लगा दी। उन्होंने मुखिया रहते हुए बहुत से आदर्श स्थापित किये जो आज भी किसी नेता के लिये असंभव ही है। अपनी राजनीति सेवा माननीय कर्पूरी ठाकुर, दारोगा प्रसाद राय और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के आदर्शों पर चलकर किया। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन को मुखिया जी ने समर्थन दिया था।
किसानों की समस्या और आतंकवादी का किसानों पर आक्रमण – वर्ष 1970-80 के दौर में आतंकवादी और माओवादी किसानों को परेशान कर रहे थे। ब्रह्मेश्वर मुखिया जी किसानों की समस्याओं को लेकर वर्ष 1970 में आतंकवादी और माओवादी के खिलाफ जुड़ गये। उस किसानों पर आक्रमण बढ़ रहे थे तो किसान अपने सुरक्षा के लिए गोलबंद होने लगे थे। और किसान अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों के कारण ही एकजुट हुए और फिर एक संघर्ष मोर्चा का गठन किया गया। उग्रवादियों के विरोध में किसान संगठित हुए थे और संगठन का निर्माण किया गया था। पहले इसका नाम “राष्ट्रवादी किसान संगठन” था।
ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया और रणवीर सेना – ब्रह्मेश्वर जी का कहना था हिंसा को खत्म करना ही सबसे बड़ा अंहिसा है। जब हिंसा सरकार और सिस्टम के द्वारा आश्रय प्राप्त हो तो उसके खिलाप चुप रहना नपुंसकता है। किसानों का आंदोलन और आक्रमण उनीसवीं शाताब्दी से शुरू होती है, लगभग 250 वर्ष पुरानी बात है। बिहार के शाहाबाद जिले (वर्तमान भोजपुर जिला) के बेलाउर ग्राम में भूमिहार जाति के निवासी रणवीर चौधरी एक किसान हुआ करते थे। वक़्त बीतने के साथ रणवीर बाबा लोक देवता बन गए। गांव में राजपूत, भूमिहार, यादव और भी कुछ जाति के लोग रहते थे, लेकिन वर्चस्व राजपूतों कि थी उनकी संख्या अधिक थी, भूमिहार और यादवों के गिने चुने ही घर थे। आरा के नजदीक, जगदीशपुर निवासी महान स्वतंत्रता सेनानी राजा बाबू वीर कुंवर सिंह (पिता बाबू साहबजादा सिंह) भोजपुर जिले से थे। राजपूतों का उस इलाके में दबदबा होने का मुख्य कारण यह भी रहा। किंवदंती है कि रणवीर चौधरी का अपने ही गांव के राजपूत जाति के लोगों से ठन गई। बात यहां तक आ गई कि राजपूतों को बेलाउर छोड़कर भागना पड़ा और उन्होंने बेलाउर से कुछ फासले पर स्थित मसाढ़, कौंरा आदि गांव में शरण ली। अंततः रणवीर चौधरी ने राजपूतों को बेलाउर गांव से खदेड़कर ही दम लिया और बेलाउर में भूमिहार का वर्चस्व कायम कर दिया। बेलाउरवाशी अपने को अवतार पुरुष रणवीर चौधरी का ही वंशज मानते हैं। बेलाउर में आज भी रणवीर चौधरी कि प्रतिमा देखने को मिलती है। नब्बे के दशक में जब प्रतिबंधित संगठन भाकपा माले लिबरेशन से जब लोहा लेने कि बात आई तब भूमिहारों ने अवतारी पुरुष रणवीर चौधरी के नाम पर “रणवीर किसान समिति” बनाई।
1970 और 90 के बीच सशक्तिकरण के आंदोलनों ने जोर पकड़ना शुरू किया। इस समय बिहार की तकरीबन 80 फ़ीसदी आबादी खेती किसानी से जुड़ी हुई थी। खेती किसानी ही बिहार की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी। अधिकतर ज़मीनें ऊंची जातियों के पास थी। ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत जैसी जातियों का ज़मीनों की हकदारी पर बोलबाला था। बची-खुची ज़मीने यादव, कोइरी और कुर्मी जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग के जातियों के पास थी। फिर भी पिछड़ा वर्ग से जुड़े सभी जातियों के अधिकतर लोग भूमिहीन थे।
ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया का संघर्ष – ब्रह्मेश्वर मुखिया न सिर्फ साहसी व ईमानदार थे बल्कि सच को सच और गलत को गलत कहने वाले किसान नेता थे। मुखिया जी जैसा आदमी 100-200 साल बाद धरती पर पैदा होता है।
अक्सर माले जैसे प्रतिबंधित संगठन किसी भी जमींदार के जमीन पर लाल झंडा लगा देते थे, और उस किसान को धमकी दिया करते थे कि अगर वो वहां पहुंचा तो उसकी खैर नहीं। ऐसे में परेशान किसान किसी विकल्प की तलाश में थे। किसानों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर छोटी-छोटी बैठकों के जरिये संगठन की रूपरेखा तैयार की। बेलाऊर के मध्य विद्यालय प्रांगण में एक बड़ी किसान रैली कर ‘रणवीर किसान महासंघ’ के गठन का ऐलान किया गया। तब खोपिरा के पूर्व मुखिया बरमेश्वर सिंह सहित कई लोगों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। सितंबर 1994 में मध्य बिहार के भोजपुर जिले के गांव बेलाऊर में ब्रह्मेश्वर मुखिया के नेतृत्व में जो सगंठन बना उसे ‘रणवीर सेना’ का नाम दिया गया। उस समय इस संगठन को भूमिहार किसानों की निजी सेना कहा जाता था। यह मुख्यतः जाति आधारित “भूमिहार ब्राह्मणों” का संग़ठन है और इसका मुख्य उद्देश्य सभी प्रकार के किसानों के जमीनों की रक्षा करना है। जिन जमीनों पर नक्सलियों द्वारा अवैध कब्जा कर लिया जाता है और सवर्ण किसानों का सामुहिक नरसंहार कर दिया जाता रहा है। बिहार के भोजपुर जिले के उदवंतपुर ब्लॉक में बेलाऊर गांव पड़ता है। यह गांव मध्य बिहार में वर्चस्व रखने वाली भूमिहार जाति के लिए आस्था का केंद्र था। कहते हैं कि 19वीं शताब्दी में भूमिहार समुदाय से आने वाले रणवीर चौधरी ने राजपूतों के खिलाफ संघर्ष करके अपने समुदाय के लोगों को जमीनों पर कब्जा दिलवाया था।
माह सितंबर 1994 में बेलाऊर गांव में एक मीटिंग हो रही थी। मध्य बिहार में चावल की खेती करने वाले बड़े जमींदार उस समय संकट में थे। वजह थी इस इलाके में तेजी से मजबूत हो रहे नक्सलवादी आंदोलन। नक्सलियों ने इलाके के बड़े जमींदारों की जमीन की नाकेबंदी का ऐलान किया हुआ था। नाकेबंदी माने जमींदारों को उनकी जमीन ना जोतने देना। इस नाकेबंदी से परेशान बड़े जमींदारों ने इस मीटिंग में नक्सलियों की लाल सेना के खिलाफ एक सशस्त्र संगठन खड़ा करने का फैसला किया। इस संगठन का नाम दिया गया ‘रणवीर सेना’। रंगबहादुर सिंह इसके पहले अध्यक्ष चुने गए थे। रणवीर सेना की कमान ज्यादा दिन रंगबहादुर के पास नहीं रही। देखते ही देखते खोपिरा गांव के मुखिया ने इस संगठन की कमान संभाल ली। नाम था ब्रह्मेश्वर सिंह, जिन्हें इलाके में बरमेसर मुखिया के नाम जाना जाता था। वर्ष 1994 में शुरू हुए इस संगठन ने दो वर्ष के भीतर इलाके में अपनी दहशत कायम करना शुरू कर दिया। वर्ष 1996 में भोजपुर के नदी गांव में 9 दलितों की हत्या कर दी। इसके बाद भोजपुर के ही बथानी टोला में हुई 22 दलितों की हत्या ने इस संगठन को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना दिया। 1997 में इस संगठन ने लक्ष्मणपुर-बाथे में 61 दलितों को मौत के घाट उतार दिया। यह रणवीर सेना का अब तक अंजाम दिया गया सबसे बड़ा नरसंहार था। लक्ष्मणपुर बाथे नरसंहार के समय सूबे में लालू प्रसाद यादव की सरकार हुआ करती थी। केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री हुआ करते थे। लक्ष्मणपुर-बाथे में एक के बाद एक दौरे होने लगे। इधर रणवीर सेना की हिंसक गतिविधियां जारी रहीं। 1998 में भोजपुर के नगरी में 10 दलितों को मौत के घाट उतार दिया। 1999 में जहानाबाद के शंकरबीघा में 23 दलितों को मारा गया। इसी साल जहानाबाद के नारायणपुर और गया के सेंदनी में दो दर्जन दलित रणवीर सेना की गोलियों का शिकार बने। 29 अगस्त, 2002 के रोज ब्रह्मेश्वर मुखिया और पुलिस के बीच चल रही 6 साल की लुकाछुपी खत्म हुई। पुलिस ने उन्हें पटना की एक्ज़िबिशन रोड से गिरफ्तार कर लिया। उन पर 227 लोगों की हत्या के मामले में 22 मुकदमे चले। 9 साल जेल में रहने के दौरान इनमें से 16 मुकदमों में उन्हें साक्ष्यों के अभाव में बरी कर दिया गया। इसके बाद मुखिया जी के वकीलों ने अदालत में कहना शुरू कर दिया कि उनके मुवक्किल पर कायम किए गए मुकदमे फर्जी हैं। इसी आधार पर उन्हें मई 2011 में 9 साल की कैद के बाद जमानत पर रिहा कर दिया गया। ब्रह्मेश्वर मुखिया जेल छूटने के बाद सियासत की दुनिया में पैर जमाने लगे। उन्होंने ‘राष्ट्रवादी किसान सभा’ नाम से नया संगठन भी खड़ा किया। वो गांधीवादी तरीके से किसानों के लिए संघर्ष करने की बात कहते रहते थे। जेल से छूटने के बाद वो नए अवतार में थे। उनके सुर सियासी थे और इसने कई सियासी महत्वाकांक्षा रखने वाले लोगों को असहज कर दिया था।
अप्रैल 2012 में बथानी-टोला मुकदमे का फैसला आया। ब्रह्मेश्वर मुखिया को इस मुकदमे में भी सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया। बथानी टोला केस में उनके बरी होने के बाद बिहार का सियासी माहौल बदलना शुरू हो गया था। कभी रणवीर सेना के खिलाफ हथियार लेकर खड़ी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिब्रेशन ने उनकी रिहाई के खिलाफ आरा में ‘न्याय सभा’ की। इस सभा में उमड़ी भीड़ ने जातिगत ध्रुवीकरण के संकेत देने शुरू कर दिए।
2012 की पहली जून को जुझारू किसान नेता का अंत – 6 मई 2012 को किसान नेता ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया की अध्यक्षता में ‘अखिल भारतीय राष्ट्रवादी किसान संगठन’ के गठन की घोषणा की गई थी। ब्रह्मेश्वर जी ने 7 मई 2012 को किसानों और खेतिहर मजदूरों के हकों की खातिर अहिंसक लड़ाई लड़ने के लिए घोषणा प्रारम्भ की थी। और यह आंदोलन 13 मई 2012 को पटना के नौबतपुर से अभियान के रूप में शुरू हुआ, जिसके बाद भोजपुर के एकवारी, बक्सर और गया के टेकारी में सभा हुई थी। इसके ठीक बाद ही मुखिया की हत्या हो गई। इस संगठन का उद्देश्य गैर राजनैतिक तौर पर किसानों और मजदूरों को गोलबंद कर अपने अधिकार के लिए संघर्ष करना था। किसान और मजदूर एक-दूसरे के पूरक रहे हैं, लेकिन सरकार के गलत नीतियों के कारण एक-दूसरे के विरोधी हो गये थे। ब्रह्मेश्वर मुखिया के तीन भाइयों के परिवार में 100 बीघा जमीन है। गांव के अलावा आरा के कतिरा में भी अपना मकान है। उसके दो बेटे हैं, जिनमें से बड़े बेटे सत्येंद्र कुमार सिंह बीएसएफ में एएसआइ और छोटा बेटा इंदु भूषण 2011 से मुखिया हैं। ब्रह्मेश्वर सिंह के पिता जी भी स्वर्गीय रामबालक सिंह भी लंबे समय तक मुखिया रहे थे।
ब्रह्मेश्वर मुखिया को सुबह जल्दी उठने की आदत थी। वो रोज सुबह वो मॉर्निंग वॉक के लिए जाते थे। 1 जून 2012 की सुबह भी ऐसी ही थी। सो 4 बजकर 15 मिनट पर वो आरा के अपने घर से निकले। वो अभी 200 मीटर ही चल पाए थे कि एक अज्ञात हमलावर ने उनके शरीर में तीन गोली दाग दी।
इस हत्या ने बिहार को एक बार फिर से जातिगत संघर्ष के मुहाने पर खड़ा कर दिया। राजधानी पटना और पूरे मध्य बिहार में हत्या के खिलाफ प्रदर्शन शुरू हो गए। पटना में दर्जनों जगह तोड़-फोड़ की वारदात हुई। हत्या के सात दिन बाद ही बिहार सरकार ने मामले की सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी।
सीबीआई ने जुलाई 2013 में इस मामले की जांच अपने हाथ में ली। इससे पहले बिहार पुलिस की स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम इस मामले की जांच कर रही थी। एसआईटी ने अगस्त 2012 में प्रिंस नाम के एक शूटर को रांची से गिरफ्तार किया था। सीबीआई पिछले 6 साल से इस मामले की जांच कर रही है। फिलहाल इस मामले में कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है। 2016 में जमुई से नन्दगणेश पांडेय उर्फ़ फौजी पांडेय की गिरफ्तारी के अलावा सीबीआई के पास इस मामले में बताने लायक कुछ भी नहीं है। कुल मिलाकर सीबीआई अब तक किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंची है। रणवीर सेना के संस्थापक ब्रह्मेश्वर सिंह मुखिया के छोटे पुत्र इंदुभूषण को राष्ट्रवादी किसान संगठन का नया राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया है। ब्रह्मेश्वर मुखिया व्यक्ति नहीं, अंजुमन थे। वो अपने आप में एक संगठन थे।