Monday, December 23, 2024
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पिछड़ा वर्ग के आइकॉन बीपी मंडल की 104 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – पिछड़ों के मसीहा एवं हमदर्द बिहार के 7 वीं पूर्व मुख्यमंत्री और मंडल आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल (बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल) को पिछड़ा वर्ग के आइकन के रूप में याद किया जाता है। बीपी मंडल को मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का एक बड़ा नायक माना गया है। उनके प्रयासों की वजह से केंद्र सरकार की नौकरियों और केंद्रीय शिक्षा संस्थानों के दाखिलों में पिछड़े वर्गों को 27 परसेंट रिज़र्वेशन मिलने का रास्ता साफ हुआ।

                            बीपी मंडल का जन्म, शिक्षा एवं पारिवारिक जीवन

बीपी मंडल का जन्म 25 अगस्त 1918 को बनारस में हुआ था। बीपी मंडल को लोग बिंदेश्वरी बाबू (बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल) के नाम से भी जानते थे। वे जाने-माने अधिवक्ता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी स्वर्गीय रासबिहारी मंडल व श्रीमती स्वर्गीय सीतावती मंडल की सातवीं संतान थे। बीपी मंडल का बचपन बिहार राज्य के मधेपुरा के मुरहो गांव में बीता। बीपी मंडल का ताल्लुक बिहार के मधेपुरा ज़िले के मुरहो गांव के एक जमींदार परिवार से था ही। मधेपुरा से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर बसा है मुरहो गांव। इसी गांव के किराई मुसहर साल 1952 में मुसहर जाति से चुने जाने वाले पहले सांसद थे। मुसहर अभी भी बिहार की सबसे वंचित जातियों में से एक है। किराई मुसहर से जुड़ी मुरहो की पहचान अब लगभग भुला दी गई है। अब ये गांव बीपी मंडल के गांव के रूप में ही जाना जाता है। राष्ट्रीय राजमार्ग-107 से नीचे उतरकर मुरहो की ओर बढ़ते ही बीपी मंडल के नाम का बड़ा सा कंक्रीट का तोरण द्वार है। गांव में उनकी समाधि भी है। बीपी मंडल की शुरुआती पढ़ाई मुरहो और मधेपुरा में हुई थी।

हाई स्कूल की पढ़ाई दरभंगा स्थित राज हाई स्कूल से की। स्कूल से ही उन्होंने पिछड़ों के हक़ में आवाज़ उठाना शुरू कर दिया था। बीपी मंडल राज हाई स्कूल के हॉस्टल में रहते थे। वहां पहले अगड़ी कही जाने वाली जातियों के लड़कों को खाना मिलता उसके बाद ही अन्य छात्रों को खाना दिया जाता था। उस स्कूल में अगड़ी अगड़ी जाति के लडके बेंच पर बैठते थे और पिछड़ी जाति के लडके नीचे। उन्होंने इन दोनों बातों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई और पिछड़ों को भी बराबरी का हक मिला। स्कूल के बाद की पढ़ाई उन्होंने बिहार की राजधानी के पटना कॉलेज से की। पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ दिन तक भागलपुर में मजिस्ट्रेट के रूप में भी सेवाएं दीं और साल 1952 में भारत में हुए पहले आम चुनाव में वे मधेपुरा से कांग्रेस के टिकट पर बिहार विधानसभा के सदस्य बने।

                                    बीपी मंडल का राजनैतिक सफरनामा

मंडल जी जमींदार परिवार से होने के बावजूद हमेशा पिछड़ों के पैरोकार रहे। ये मुरहो एस्टेट के ज़मींदार होते हुए भी उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन में जमकर हिस्सा लिया। वे बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और एआईसीसी के बिहार से निर्वाचित सदस्य रासबिहारी लाल मंडल के सबसे छोटे पुत्र थे। रासबिहारी बाबू ने यादवों के लिए संघर्षपूर्ण जनेऊ धारण आन्दोलन चलाया था। यह आंदोलन प्रतिक्रियावादी लग सकता है, लेकिन दरअसल ये स्वाभिमान का आंदोलन था। 1917 में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड समिति के समक्ष यादवों के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व करते हुए उन्होंने वायसरॉय को परंपरागत ‘सलामी’ देने की जगह उनसे हाथ मिलाया था। उन्होंने सेना में यादवों के लिए रेजिमेंट की मांग भी की थी। उस समय ज्यादातर नेता अपने समुदाय के हितों के साथ जुड़े थे। रासबिहारी बाबू के कामों को भी उसी नजरिए से देखने की जरूरत है। इस पृष्ठभूमि में बी.पी. मंडल की परवरिश हुई थी। वे मधेपुरा विधान सभा से 1952 के प्रथम चुनाव में कांग्रेस के प्रत्याशी बने और 1952 में बहुत कम उम्र में मधेपुरा से विधानसभा के लिए सदस्य चुने गए। सन 1962 में वे दूसरी बार विधायक बने। इस बीच, 1965 में मधेपुरा क्षेत्र के पामा गांव में दलितों पर सवर्णों एवं पुलिस द्वारा अत्याचार के खिलाफ उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। वे 1967 में मधेपुरा से लोकसभा सदस्य चुने गए। बड़े ही नाटकीय राजनैतिक उतार-चढ़ाव के बाद 1 फ़रवरी, 1968 में वे बिहार के मुख्यमंत्री बने थे।

इसके लिए उन्होंने सतीश प्रसाद को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बनवाया। उस समय बिहार सरकार में स्वास्थ्य मंत्री थे। वे राम मनोहर लोहिया एवं श्रीमती इंदिरा गाँधी की इच्छा के विरुद्ध बिहार में पहले पिछड़े समाज के मुख्यमंत्री बनने जा रहे थे। परन्तु विधानसभा में बहुमत के बावजूद तत्कालीन राज्यपाल एम.ए.एस अयंगार रांची जाकर बैठ गए और मंडल जी को शपथ दिलाने से इस आधार पर इंकार कर दिया कि बीपी मंडल बिहार में बिना किसी सदन के सदस्य बने 6 महीने तक मंत्री रह चुके है। परन्तु बी.पी. मंडल ने राज्यपाल को चुनौती दी और इस परिस्थिति से निकलने के लिए तय किया गया कि सतीश बाबू एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बन कर इस्तीफा देंगे, जिससे बी.पी. मंडल के मुख्यमंत्री बनने में आ रही अड़चन दूर हो। उन्ही दिनों बरौनी रिफायनरी में तेल का रिसाव गंगा में हो गया और उसमें आग लग गयी। बिहार विधान सभा में पंडित बिनोदानंद झा ने कहा कि शुद्र मुख्यमंत्री बना है तो गंगा में आग ही लगेगी! इस प्रकरण का साक्ष्य बिहार विधानसभा के रिकार्ड में है। इस उस समय के राजनीतिक-सामाजिक वातावरण का अंदाजा लगाया जा सकता है।

                बी.पी. मंडल ने विधानसभा में जातिसूचक शब्दों पर लगवाया प्रतिबंध

बी.पी. मंडल ने यादवों के लिए विधान सभा में ‘ग्वाला’ शब्द के प्रयोग पर आपत्ति की थी। सभापति सहित कई सदस्यों ने कहा कि यह असंसदीय कैसे हो सकता है क्योंकि यह शब्दकोष में लिखा हुआ है। मंडल ने कुछ गालियों का उल्लेख करते हुए कहा कि ये भी तो शब्दकोष (डिक्शनरी) में है, फिर इन्हें असंसदीय क्यों माना जाता है। सभापति ने मंडल की बात मानते हुए, यादवों के लिए ‘ग्वाला’ शब्द के प्रयोग को असंसदीय मान लिया। 1968 में उपचुनाव जीत कर बी.पी. मंडल पुनः लोकसभा सदस्य बने। 1972 में वे मधेपुरा विधान सभा से सदस्य चुने गए। 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर मधेपुरा लोक सभा से सदस्य बने। 1977 में जनता पार्टी के बिहार संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष के नाते लालू प्रसाद को कर्पूरी ठाकुर और सत्येन्द्र नारायण सिंह के विरोध के बावजूद छपरा से लोकसभा टिकट मंडल जी ने ही दिया। 1 जनवरी, 1979 को प्रधान मंत्री मोरारजी देसाई ने बी.पी. मंडल को पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किया, जिस जबाबदेही को उन्होंने बखूबी निभाया। इस रिपोर्ट को लाख कोशिश के बावजूद सर्वोच्च न्यायलय में ख़ारिज नहीं किया जा सका।उनके योगदान का सही मूल्यांकन होना अभी भी बाकी है।

          ● बीपी मंडल ने मंडल कमीशन रिपोर्ट लिख कर बदल दी करोड़ों बहुजनों की तकदीर

आज जो लोग ओबीसी आरक्षण का लाभ लें रहें हैं। शायद उन्हें पता नहीं होगा कि किनके प्रयास से आज आरक्षण का लाभ लें रहें हैं। आरक्षित वर्गो को यह जानना जरूरी होगा कि मंडल आयोग के अध्यक्ष बीपी मंडल ने दो वर्षों तक देश के लगभग 640 जिलों में भ्रमण के बाद आकड़ा तैयार किया कि 3,743 जातियां पिछड़े वर्ग के मापदंड पर हैं। इस आंकड़ा के लिए उन्होंने 1931 के जनगणना के आधार पर रिपोर्ट तैयार किया,और 12 दिसम्बर 1980 को तत्कालीन गृहमंत्री ज्ञानी जैल सिंह को रिपोर्ट सौंपा। जिसके बाद 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री बीपी सिंह ने 7 अगस्त 1990 में इसे लागू किया। ओबीसी वर्ग को समाज में बराबरी का हिस्सा दिलाने के लिए बीपी मंडल ने एक लंबी लड़ाई लड़ी तब जाकर 52 फीसदी ओबीसी आबादी को राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनने का अहम मौका मिला है। इस रिपोर्ट में शिक्षा, नौकरी और प्रमोशन में आरक्षण की अनुशंसा की गई। जिसके बाद आखिरकार पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की अधिसूचना जारी की गई। हालांकि देश भर में मंडल कमीशन का विरोध किया गया लेकिन 16 नवंबर,1992 को सुप्रीम कोर्ट ने इस कमीशन को लागू करने का फैसला उचित ठहराया। मंडल कमीशन की रिपोर्ट के आने के साथ ही खासकर उत्तर भारत में पिछड़े वर्गों की महत्वाकांक्षा का भी विस्फोट हुआ। राजनीति में उनकी दावेदारी मजबूत हुई और अपनी तकदीर खुद लिखने का जज्बा उनमें पैदा हुआ। 1980 के बाद उत्तर भारत में लालू-मुलायम-नीतीश और पिछड़ी जातियों के तमाम नेताओं की आगे आना इसी पृष्ठभूमि में हुआ है। इसे भारतीय राजनीति की मूक क्रांति या साइलेंट रिवोल्यूशन भी कहा गया क्योंकि इसके जरिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विशाल आबादी की हिस्सेदारी बढ़ी। इस मायने में मंडल कमीशन की रिपोर्ट का युगांतकारी महत्व है।
मंडल कमीशन की रिपोर्ट भारत में सामाजिक लोकतंत्र लाने और 52 फीसदी ओबीसी आबादी को राष्ट्र निर्माण में हिस्सेदार बनाने की आजादी के बाद की सबसे बड़ी पहल साबित हुई, जिससे इन वर्गों के लाखों लोगों को नौकरियां मिलीं और शिक्षा संस्थानों में दाखिला मिला। इससे पिछड़े वर्गों की भारतीय लोकतंत्र में आस्था मजबूत हुई और उनके अंदर ये भरोसा पैदा हुआ कि देश के संसाधनों और अवसरों में उनका भी हिस्सा है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बी.पी मंडल साहब, सामाजिक न्याय आंदोलन के महान विचारक, वंचितों, उपेक्षितों को मुख्यधारा में लाने के लिए जीवनपर्यंत संघर्षरत रहे थे।
                                 मंडल आयोग देश में नये युग की शुरूआत की

पिछड़े वर्ग के लोगों के लिए मंडल कमीशन की रिपोर्ट युगांतकारी घटना साबित हुई है। हालांकि इस रिपोर्ट को एक दशक तक दबाकर रखा गया। फिर वह दिन भी आ ही गया जब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने 13 अगस्त 1990 को मंडल कमीशन के सबसे महत्वपूर्ण सिफारिशों में से एक को लागू करने की अधिसूचना जारी कर दी। अब पिछड़ा वर्ग के लिए सरकारी सेवा में जाने के लिए बंद दरवाजे खुल चुके थे। विरोध प्रदर्शनों और थोड़ी अड़ंगेबाजी के बाद सुप्रीम कोर्ट की मुहर लगकर 8 सितम्बर, 1993 को फाइनल अधिसूचना भी जारी कर दी गई। मंडल आयोग की दूसरी महत्वपूर्ण सिफारिश के अनुसार केंद्रीय शिक्षण, तकनीकी एवं व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ा वर्ग के लिए प्रवेश के द्वार भी आखिरकार 20 अगस्त, 2008 को खोल दिए गए।
मंडल आयोग की सिफारिशों पर प्रकाश डालते हुए बी.पी. मंडल ने कहा था कि- सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने की जंग को पिछड़ी जातियों के ज़ेहन में जीतना ज़रूरी है। भारत में सरकारी नौकरी पाना सम्मान की बात है। ओबीसी वर्ग की नौकरियों में भागीदारी बढ़ने से उन्हें यकीन होगा कि वे सरकार में भागीदार हैं। पिछड़ी जाति का व्यक्ति अगर कलेक्टर या पुलिस अधीक्षक बनता है तो ज़ाहिर तौर पर उसके परिवार के अलावा किसी और को लाभ नहीं होगा पर वह जिस समाज से आता है, उन लोगों में गर्व की भावना आएगी, उनका सिर ऊंचा होगा कि उन्हीं में से कोई व्यक्ति ‘सत्ता के गलियारों’ में है। वे सामाजिक न्याय के स्वप्नद्रष्टा तथा पिछड़ा वर्ग के मसीहा रहे। मूक क्रांति के नायक के रूप में मशहूर बी.पी. मंडल का 13 अप्रैल, 1982 को हृदय गति रुक जाने से पटना में निधन हो गया। वे जीते जी अपने सिफारिशों को लागू होते हुए नहीं देख पाए, परंतु जब भी पिछड़ा वर्ग के उन्नायकों की सूचि बनेगी, उनका नाम हमेशा आगे रखा जायेगा। वे जमींदार परिवार से होने के बावजूद हमेशा पिछड़ों के पैरोकार रहे। आज जिस तरीके से आरक्षण को खत्म किया जा रहा है। संविधान पर अतिक्रमण हो रहा है। इसलिए वर्तमान समय में मंडल जी और ज्यादा प्रांसगिक है।

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