Sunday, December 22, 2024
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समाज सुधारक और निष्ठावान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी की 91 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

● हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक गणेश शंकर विद्यार्थी ● स्वतंत्रता आंदोलन में गणेश शंकर विद्यार्थी का सहयोग अतुलनीय प्रस्तुति :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव साहित्यिक मंडली शंखनाद गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म और पारिवारिक जीवन गणेश शंकर विद्यार्थी एक महान क्रांतिकारी, निडर और निष्पक्ष पत्रकार, समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी  थे। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उनका नाम अजर-अमर है। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में अंग्रेजी शासन की नींद उड़ा दी थी। इस महान क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 (आश्विन शुक्ल चतुर्दशी, दिन रविवार, विक्रम संवत 1947) को प्रयाग के अतरसुइया मौहल्ले में अपने नाना सूरज प्रसाद श्रीवास्तव के घर में हुआ था। इनके नाना सहायक जेलर थे। इनके पुरखे हथगांव (जिला फतेहपुर, उत्तर प्रदेश) के मूल निवासी थे। पर जीवनयापन के लिए इनके पिता मुंशी जयनारायण अध्यापन एवं ज्योतिष को अपनाकर जिला गुना (मध्य प्रदेश) के गंगवली कस्बे में बस गये। प्रारम्भिक शिक्षा वहां के एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल से उत्तीर्ण कर गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने प्रयाग में इण्टर में प्रवेश लिया। उसी दौरान उनका विवाह हो गया। जिससे पढ़ाई छूट गयी। उस समय तक उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अन्त तक जारी रहा। गणेश शंकर शुरू से ही बड़े मेधावी थे, साहित्य और पत्रकारिता के प्रति रुझान के चलते उन्होंने अपना उपनाम विद्यार्थी रख लिया था। उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में ही अपनी पहली किताब ‘हमारी आत्मोसर्गता’ लिख डाली थी। गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन में आर्थिक संकट विवाह के बाद घर चलाने के लिये धन की आवश्यकता थी, अतः वे फिर भाई साहब के पास कानपुर  आ गये। 1908 में उन्हें कानपुर के करेंसी दफ्तर में 30 रु. महीने की नौकरी मिल गयी, पर एक साल बाद अंग्रेज अधिकारी से झगड़ा हो जाने के कारण नौकरी छोड़कर विद्यार्थी जी पृथ्वीनाथ हाई स्कूल में पढ़ाने लगे। यहां भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा। गणेश शंकर जी अपने आर्थिक कठिनाइयों के कारण ज्यादा नहीं पढ़ सके, किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में सहेज लिया था। अतः वे प्रयाग आ गये और कर्मयोगी, सरस्वती एवं अभ्युदय नामक पत्रों के सम्पादकीय विभाग में कार्य किया, पर यहां उनके स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। अतः वे फिर कानपुर लौट गये और 9 नवम्बर, 1913 से साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ का प्रकाशन प्रारम्भ कर दिया। ‘प्रताप’ समाचार पत्र के कार्य में विद्यार्थी जी ने स्वयं को खपा दिया। वे उसके संयोजन, छपाई से लेकर वितरण तक के कार्य में स्वयं लगे रहते थे। पत्र में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भरपूर सामग्री होती थी। अतः दिन-प्रतिदिन ‘प्रताप’ की लोकप्रियता बढ़ने लगी। गणेश शंकर विद्यार्थी अंग्रेजों की निगाह में खटके गणेश शंकर विद्यार्थी जी अंग्रेज शासकों की निगाह में खटकने लगे। 23 नवम्बर 1920 से विद्यार्थी जी ने ‘प्रताप’ को दैनिक कर दिया। इससे प्रशासन बौखला गया। अंग्रेज शासकों ने विद्यार्थी जी को झूठे मुकदमों में फंसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया। इसके बावजूद भी विद्यार्थी जी का साहस कम नहीं हुआ। उनकी वाणी प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कांग्रेस की ओर से स्वाधीनता के लिये जो भी कार्यक्रम दिये जाते थे, वे उसमें बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। वे भारतीय क्रांतिकारियों के प्रबल समर्थक थे। अतः उनके लिये रोटी और गोली से लेकर उनके परिवारों के भरणपोषण की भी चिन्ता करते थे। क्रांतिवीर भगत सिंह ने भी कुछ समय तक गणेश शंकर विद्यार्थी जी के समाचार पत्र ‘प्रताप’ में काम किया था। समाज सुधारक व निष्ठावान पत्रकार के रूप में गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी है। गणेशशंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार रहे हैं जिन्होंने अपने कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नीव हिला दी थी। गणेश शंकर विद्यार्थी जी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, एक समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे थे। पत्रकारिता के क्षेत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी का क्रांतिकारी योगदान पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर ‘प्रताप’ का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऐसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत ‘झण्डा ऊंचा रहे हमारा’ है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी। जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था। विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता, ओज, गाम्भीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी। गरीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह  अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे। स्वतंत्रता आंदोलन में गणेश शंकर विद्यार्थी का सहयोग क्रांतिकारियों से नजदीकी कांग्रेस को पसंद भी नहीं थी, लेकिन इस दोनों विचारधाराओं के अलावा गणेश शंकर की अपनी फिलॉसफी थी, मजलूम को न्याय मिले, गरीब को इंसाफ और जीने के साधन मिलें, इसके लिए वो कांग्रेस और क्रांतिकारियों से इतर भी आंदोलनों को मुहिम बनाकर अंग्रेजी सरकार, जमींदारों और मिल मालिकों के खिलाफ मुहिम चलाते रहते थे। रायबरेली के किसानों के लिए और कानपुर के मिल मजदूरों के लिए प्रताप पत्र ने बड़ी लड़ाई लड़ीं। तमाम सरकार विरोधी लेखों के छपने के लिए प्रताप के दरवाजे हमेशा खुले थे, लेकिन वो भारतीयों के खिलाफ भी मुहिम चलाने से परहेज नहीं करते थे, अगर वो किसी भी तरह के अन्याय के कामों में लिप्त हों तो। देश में शांति स्थापना के लिए शहीद हो गये गणेश शंकर 9 मार्च 1925 को गणेश शंकर जी जेल से बाहर आए, लॉर्ड इरविन और गांधीजी के बीच हुए समझौते के तहत उन्हें जेल से मुक्ति मिली थी। उसी समय मुसलमानों का स्वर बदलने लगा और पाकिस्तान की मांग जोर पकड़ने लगी। 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह आदि क्रांतिवीरों को फांसी हुई थी। इसका समाचार फैलने पर अगले दिन कानपुर में लोगों ने विरोध जुलूस निकाले, पर न जाने क्यों कुछ लोग भड़क कर दंगा करने लगे। लेकिन वे घर नहीं बैठे, कानपुर में दंगा फैल गया। हिंदू और मुस्लिमों के बीच ये दंगा काफी दिनों तक चला, लेकिन गणेश शंकर का एक ही काम था, गरीबों मजलूमों को दोनों तरफ के दंगाइयों से बचाना। गणेश विद्यार्थी पूरे दिन दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूमकर निर्दोषों की जान बचाते रहे। कानपुर के जिस इलाके से भी उन्हें लोगों के फंसे होने की सूचना मिलती, वे तुरंत अपना काम छोड़कर वहां पहुंच जाते, क्योंकि उस समय पत्रकारिता की नहीं, मानवता की जरूरत थी। उन्होंने बंगाली मोहल्ले में फंसे दो सौ मुस्लिमों को निकालकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। उनके कपड़े घायलों और लाशों को उठाने के कारण खून से सन गए तो वे घर नहाने पहुंचे। लेकिन तभी चावल मंडी में कुछ मुस्लिमों के फंसे होने की खबर आई। उनकी पत्नी उन्हें पुकारती रह गई और वे ‘अभी आया’ कहकर वहां पहुंच गए। वहां फंसे लोगों को सुरक्षित जगह पहुंचा ही पाए थे कि दोपहर के तीन बजे घनी मुस्लिम आबादी से घिरे चौबे गोला मोहल्ले में दो सौ हिन्दुओं के फंसे होने की खबर आई। वे तुरंत वहां जा पहुंचे। वे निर्दोषों को जैसे-तैसे निकालकर लॉरी में बिठा ही रहे थे कि तभी हिंसक भीड़ वहां आ पहुंची। कुछ लोगों ने उन्हें पहचान लिया, लेकिन वे कुछ कर पाते, इसके पहले ही भीड़ में से किसी ने एक भाला विद्यार्थी जी के शरीर में घोंप दिया। साथ ही उनके सिर पर लाठियों के कुछ प्रहार हुए और मानवता का पुजारी इंसानियत की रक्षा के लिए, शांति स्थापना के लिए शहीद हो गया। दंगे रोकते-रोकते ही उनकी मौत हुई थी। दंगाइयों ने विद्यार्थी जी के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। यहां तक की उनकी साबुत लाश भी नहीं मिली थी। केवल एक बांह मिली, जिस पर लिखे नाम से उनकी पहचान हुई। वह 25 मार्च, 1931 का दिन था, जब अंध मजहबवाद की बलिवेदी पर भारत मां के सच्चे वीर सपूत, पत्रकार गणेशशंकर ‘विद्यार्थी’ का बलिदान हुआ। गणेश शंकर ने सैकड़ों लोगों की जान बचाई और 25 मार्च को उनकी भी लाश मिली, लाशों के ढेर में। 29 मार्च को उनको अंतिम विदाई दी गई। अपने छोटे जीवन-काल में गणेश शंकर ने उत्पीड़न क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। उत्पीड़न और अन्याय की खिलाफत में हमेशा आवाज़ बुलंद करना ही उनके जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य था, चाहे वह नौकरशाह, जमींदार, पूंजीपति, उच्च जाति, संप्रदाय और धर्म की ही क्यों न हो। वह उसी के लिए जीए और उसी के लिए मरे।

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