राम भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं, नैतिक मूल्यों के प्राण हैं●राम के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना अधूरी●भारतीय संस्कृति को राम की सबसे बड़ी देन ‘एकपत्नीव्रत’ होना!
राकेश बिहारी शर्मा-रघुकुल शिरोमणि राम भारतीय संस्कृति की आत्मा हैं, नैतिक मूल्यों के प्राण हैं, मानवता के अधिष्ठाता हैं। वास्तविक अर्थ में राम ही समूची संस्कृति हैं। राम की संस्कृति से आशय भारतीय संस्कृति से है। राम का चरित्र एक ऐसा चरित्र है जो जीवन का पथ प्रदर्शक है, दिग्दर्शक है।
यह देश राम का है। राम कण कण में हैं। भाव की हर हिलोर में राम हैं। कर्म के हर छोर में राम हैं। राम यत्र-तत्र,सर्वत्र हैं। जिसमें रम गए वही राम है। सबके अपने-अपने राम हैं। गांधी के राम अलग हैं। लोहिया के राम अलग। वाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है। भवभूति के राम दोनों से अलग हैं। कबीर ने राम को जाना। तुलसी ने माना। निराला ने बखाना। राम एक हैं पर दृष्टि सबकी भिन्न। भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यवत्ता और संयम का नाम है राम। आप ईश्वरवादी न हो, तो भी घर-घर में राम की गहरी व्याप्ति से उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम तो मानना ही पड़ेगा। स्थितप्रज्ञ, असंम्पृम्त, अनासक्त एक ऐसा लोक नायक, जिसमें सत्ता के प्रति निरासक्ति का भाव है। जो जिस सत्ता का पालक है, उसी को छोड़ने के लिए सदैव तैयार है।
राम इस देश की उत्तर दक्षिण एकता के अकेले सूत्रधार हैं। राम अयोध्या के थे। महान विचारक डॉ राममनोहर लोहिया भी अयोध्या के ही रहने वाले थे। डॉ लोहिया ने हमारे तीन देवताओं को एक लाइन में परिभाषित किया है। उनका कहना है कि राम मर्यादित व्यक्तित्व के स्वामी थे। तो कृष्ण उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी। राम पूरी तरह धर्म के स्वरूप हैं। जिसे राम प्रिय नही है उसे धर्म प्रिय नही है। कबीर राम को परम ब्रह्म मानते हैं।
राम एक आदर्श पति, पत्नी से आगाध प्रेम
राम एक आदर्श पति की संकल्पना हैं जिन्होंने अपनी पत्नी सीता से आजीवन प्रेम किया और अपने पति के धर्म को निष्ठापूर्वक निभाया। अपने पूरे जीवनकाल में उन्होंने पत्नी सीता के समकक्ष किसी को भी स्थान नहीं दिया। वर्तमान समाज में वैवाहिक संस्था के विखंडन और विवाह जैसे पवित्र बंधन को एक हँसी- खेल बना दिए जाने की स्थिति में राम एक अपवाद हैं। सीता का हरण होने पर राम उनकी खोज में व्याकुल होकर वन- वन भटकते रहे, उनका पता मिलने पर सौ योजन के अथाह सागर पर सेतु बनाया, रावण से युद्ध लड़ा और अंतत: उन्हें पुन: पाया। अयोध्या आने पर सीता के परित्याग के समय राम के सामने दूसरे विवाह का भी विकल्प था, यदि वे चाहते। वे राजा थे, ऐसा करना उनके लिए कोई कठिन कार्य नहीं था परंतु उन्होंने आजीवन सीता के सिवाय अपनी पत्नी के रूप में किसी और की अपने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की।
राम नवमी एक सनातनी त्योहार
राम नवमी एक सनातनी त्योहार है, जो श्रीराम के जन्म का जश्न मनाता है। यह दिन नौ दिवसीय चैत्र-नवरात्रि उत्सव के समापन का भी प्रतीक है। श्रीराम चन्द्र जी का जन्म चैत्र शुक्ल की नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र तथा कर्क लग्न में रानी कौशल्या की कोख से, राजा दशरथ के घर में हुआ था। रामनवमी के दिन ही चैत्र नवरात्र की समाप्ति भी हो जाती है। सनातनी धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन श्री राम जी का जन्म हुआ था। राम नवमी पर्व भारत में श्रद्धा और आस्था के साथ मनाया जाता है। वाल्मीकि रामायण के आधार पर भारतीय संस्कृति में राम की सबसे बड़ी विशेषता या देन अगर कोई है, तो वह उनका ‘एकपत्नीव्रत’ होना है। उनके पहले किसी धर्मग्रन्थ, शास्त्र, पुराण, यहाँ तक कि किसी भी ‘स्मृति’ में यह विधान नहीं था कि पुरुष केवल एक विवाह करेगा। स्वयं कृष्ण के बारे में मिथक है कि उनकी सोलह हज़ार एक सौ आठ रानियाँ थीं। राजाओं में विलासिता के अलावा राजनीतिक कारणों से भी बहुविवाह प्रथा बेहद प्रचलित थी।
तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ के प्रभाव में हम जानते हैं कि राजा दशरथ की तीन ही रानियाँ थीं, लेकिन वाल्मीकि के अनुसार उनकी तीन सौ पचास रानियाँ थीं। रामायण के अयोध्या कांड (अध्याय 34, श्लोक 10-13) के अनुसार, राजा दशरथ की लगभग 350 पत्नियाँ थीं, जिनमें से तीन उनकी पसंदीदा रानियाँ थीं: कौशल्या दशरथ की प्रमुख रानी थीं, जबकि सुमित्रा और कैकेयी उनकी अन्य थीं। इस वजह से अन्तःपुर में बहुत कलह थी। राम उस दारुण यथार्थ से वाक़िफ़ थे। कौशल्या वृद्ध हो गई थीं, इसलिए वनवास को जाते समय उन्हें अपनी माँ की सबसे ज़्यादा चिन्ता होती है और वह पिता से कहते हैं : ‘मेरी माँ का ध्यान रखिएगा, कहीं इनके साथ कोई अनिष्ट न घटने पाए!’ सबसे युवा रानी कैकेयी बेहद तेजस्वी एवं वीरांगना थीं। यह काल्पनिक बात है कि देवासुर संग्राम में दशरथ के रथ का पहिया धुरी से निकला जा रहा था, इसलिए वहाँ उन्होंने अपनी उँगली लगाकर पहिए को निकलने नहीं दिया। सच यह है कि दशरथ बुरी तरह क्षत-विक्षत हो गए और युद्धभूमि में अचेत पड़े थे। कैकेयी विस्मयजनक पराक्रम और साहस का परिचय देती हुई उन्हें उसी हालत में वहाँ से उठा लाईं। जब दशरथ को होश आया, तो अपनी प्राण-रक्षा से अभिभूत होकर वह जीवन में कभी भी कैकेयी से दो वर माँग लेने को कहते हैं।
उसके पहले कैकेयी के पिता उनसे विवाह के लिए दशरथ के प्रस्ताव पर इस शर्त पर तैयार हुए थे कि राजा कैकेयी के बेटे का राज्याभिषेक करेंगे। इसे तत्कालीन शब्दावली में ‘राज्य-शुल्क’ देकर विवाह करना कहा जाता था। बाद में अयोध्या की प्रजा में राम की अपार लोकप्रियता के कारण लोकहित की दृष्टि से दशरथ उन्हें युवराज बनाने का फ़ैसला करते हैं। पूरी अयोध्या कैकेयी को खलनायिका मानती और उनके लिए अपशब्द कहती है, क्योंकि वह राज्य-शुल्क वाली बात नहीं जानती, मगर राम जानते थे कि मेरे पिता ने राज्य-शुल्क देकर यह विवाह किया है। इसलिए वह जीवन में कैकेयी की कभी निन्दा नहीं करते। उन्हें लगता है कि पिता की इच्छा को ध्यान में रखकर अगर वह राजा बन गए, तो यह धर्मसम्मत नहीं होगा। वह केवल अपना समय नहीं, बल्कि भविष्य देख रहे थे और उनके मन में यह सवाल था कि इतिहास क्या कहेगा?
बाद में जनमत के दबाव को वह सह नहीं पाते और सीता को वनवास देते हैं, लेकिन एकनिष्ठ प्रेम के कारण उनकी सोने की प्रतिमा बनवाकर अपने साथ रखते हैं। अश्वमेध यज्ञ का यह धार्मिक विधान था कि राजा की चार रानियाँ होनी चाहिए, इसलिए पुरोहित उनसे ऐसा अनुरोध करते हैं। धार्मिक विधि-विधान से जो राजा अश्वमेध यज्ञ कर लेता था, उसे इन्द्र के समकक्ष माना जाता था। इसके बावजूद राम कहते हैं कि मैंने जीवन में केवल सीता से प्रेम किया है, चार तो क्या, मैं कोई दूसरा विवाह भी नहीं कर सकता। धार्मिक विधान टूट जाने दीजिए, आप सीता की स्वर्ण-प्रतिमा को साक्षी रखकर अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कीजिए!
समुद्र पार कर लेने के बाद राम जब त्रिकूट पर्वत पर स्थित लंका के भव्य भवन और अट्टालिकाएँ देखते हैं, तो सोचते हैं कि मेरी सीता भी इन्हीं राजभवनों में कहीं होगी। हनुमान उन्हें बता चुके हैं कि सीता वहाँ हैं और सकुशल हैं। इसी बिना पर राम कहते हैं कि उधर से आने वाली हवाएँ जब मुझे स्पर्श करती हैं, तो मेरे जीवन के लिए इतना काफ़ी है, क्योंकि मुझे एहसास होता है कि ये हवाएँ सीता को छूकर आ रही हैं।
इतने प्रेम के बावजूद, लंका का युद्ध जीत लेने के बाद, वाल्मीकि के राम, सीता से कहते हैं कि ये युद्ध मैंने तुम्हारे लिये नहीं अपने कुल की मर्यादा के लिये लड़़ा था। अब तुम जहां जाना चाहो जा सकती हो। ये विरोधाभास कैसा? वाल्मीकि रामायण मैंने पढ़ी नहीं है। क्या ये सच है?
कई बार विश्वास नहीं होता कि ये वही राम हैं, जो अभी सीता के बारे में इतना प्रेममय आख्यान कर रहे थे और उन्हें वनवास देने के बाद भी करते रहे। एक यह कि राम के भीतर अन्तर्द्वन्द्व हैं। दूसरी यह कि उनके भीतर से और उनके माध्यम से उनके समय का समाज बोलने लगता है, यह केवल राम की वाणी नहीं है। तीसरी यह कि रामायण के कई अंश प्रक्षिप्त माने गए हैं, यानी वे बाद में दूसरे रचनाकारों द्वारा गढ़े और मूल पाठ में जोड़े और मिलाए गए हैं। ख़ास तौर पर वाल्मीकि रामायण के ‘उत्तरकांड’ के कई अंश प्रक्षिप्त और विवादास्पद हैं। मसलन अहल्या जैसी अभिशप्त स्त्री से मिलने और शबरी को गले लगाने वाले, अपनी प्रजा से अगाध प्रेम करने वाले राम शम्बूक वध नहीं कर सकते। इसका कारण यह है कि वाल्मीकि रामायण रची जाने के बाद लगभग एक हज़ार साल तक वाचिक एवं श्रुति परम्परा द्वारा रक्षित रही और आगामी पीढ़ियाँ अपनी स्मृतियों में उसे धारण करती रहीं। कई सदियों बाद उसे लिपिबद्ध किया जा सका। इस विराट् समयान्तराल में उसमें बहुत-से प्रक्षिप्त अंश जोड़ और मिला दिए गए। इतने प्रक्षेपण या मिलावट के बावजूद राम कोई दूसरा विवाह नहीं करते, न अपने जीवन में किसी और स्त्री से प्रेम ही करते हैं। राम कौन हैं ? राम सर्वज्ञ हैं, जिनका नाम लेकर एक बूढ़ा महात्मा गांधी जी ने अंग्रेज़ी साम्राज्य से लड़ गये। जिसके नाम पर इस देश में आदर्श शासन की कल्पना की गयी। उसी राम राज्य के सपने को देख कर देश आजाद हुआ। गॉंधी जी ने यही सपना देखे, विनोबा इसे प्रेम योग और साम्ययोग के तौर पर देखते थे। वाल्मीकि राम राज्य की व्याख्या करते है।
राम जैसा मित्र कहां
रघुकुल शिरोमणि राम सच्चे मैत्री भाव को परिभाषित करते हैं और बताते हैं कि जीवन में मित्र कैसा होना चाहिए। राम ने सुग्रीव से मित्रता करने के पश्चात उसके भाई बालि का वध करके उसकी पत्नी से उसका मेल कराया व राज्य वापस दिलाया। राम की दृष्टि में सच्चे मित्रों के सुख- दुख साझा होते हैं। ऐसा तथाकथित मित्र जो मुँह पर तो प्रिय बोले परंतु पीछे बुराई करे, हमें ऐसे मित्र से दूर रहना चाहिए। लंका विजय के पश्चात राम विभीषण को लंका सौंप देते हैं। भाई लक्ष्मण के कहने पर कि क्यों न लंका में ही रहा जाए, वह उत्तर देते हैं –
“अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”।
(वाल्मीकि रामायण)
पग-पग पर मर्यादा का पालन करने वाले मर्यादापुरुषोत्तम राम सहृदयता, दयालुता करुणा के साथ पारिवारिक मूल्यों, सामाजिक मूल्यों की आधारशिला हैं।