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लोक मन के मर्मज्ञ साहित्यकार थे फणीश्वरनाथ रेणु ● हिंदी के अमर शब्द शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु
राकेश बिहारी शर्मा – हिंदी के कालजयी कथाकार साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की लेखनी किसी परिचय का मोहताज नहीं। जहां बिहार सरकार भी रेणु जयंती को राज्यकीय समारोह के रूप में पटना में मनाती आ रही है। विख्यात हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकार फणीश्वर नाथ रेणु की रचनाओं में गहरी लयबद्धता है और इसमें प्रकृति की आवाज समाहित है। अमर शब्द शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु जी के गद्य में काव्य है। उन्होंने अपनी रचनाओं को कविता की तरह लयात्मक बनाया है जिसमें देहाती माटी की महक समाहित है। वह आम जनों की भाषा में लिखने वाले साहित्यकार थे। बिहार के लाल के ‘मैला आंचल’ उपन्यास का हर कोई दिवाना है, भारतीय साहित्यकारों में इनका बहुत बड़ा नाम है।
फणीश्वर नाथ रेणु के पारिवारिक जीवन
भारत की आत्मा जिन ग्रामीण क्षेत्रों में बसती है, उन्हीं क्षेत्रों के जीवनानुभव को जिस सलीके और शैली से रेणु प्रस्तुत करते रहे, वह हिन्दी साहित्य में दुर्लभ है। यह प्रेमचंद की परंपरा ही नहीं अपितु कई संदर्भों में उसका विकास भी था। विकास इस रूप में कि प्रेमचंद के विचारों और स्वप्नों को उन्होंने अग्रगामी बनाया। प्रेमचंद का समय औपनिवेशिक था जब कि रेणु के समय का भारत स्वतंत्र हो चुका था। स्वाभाविक रूप से रेणु के ग्रामीण अंचलों में गतिशीलता और जटिलता दोनों अधिक थी। प्रेमचंद की तुलना में रेणु के गाँव अधिक डाईमेनश्नल हैं। इसलिये जैसी गलियों, गीत और नांच रेणु के यहाँ मिलते हैं वे प्रेमचंद्र के यहाँ नहीं है। आजादी के तुरंत बाद मैला आँचल जैसे उपन्यास के माध्यम से उन्होंने इस देश की भावी राजनीति की नब्ज को जिस तरह से टटोला वह उन्हें एक दृष्टा बनाता है। अपने साहित्य के माध्यम से रेणु ने भारतीय ग्रामीण अंचलों की पीड़ा का सारांश लिखा है। अशिक्षा, रूठियों, सामंती शोषण, गरीवी, महामारी, अंधविश्वास, व्यभिचार और धार्मिक आडंबरों के बीच सॉस ले रहे भारतीय ग्रामीण अंचलों के सबसे बड़े रंगरेज के रूप में रेणु को हमेशा याद किया जायेगा। आज अगर रेणु होते तो आयु के 104 वर्ष पूरे कर रहे होते। रेणु हमारे बीच नहीं है, है तो उनका लिखा हुआ साहित्य। यह साहित्य जो रेणु जी की उपस्थिति हमेशा दर्ज कराता रहेगा। संघर्ष के पक्ष में और शोषण के खिलाफ दर्ज रेणु का यह इकबालिया बयान है। फणीश्वर नाथ रेणु के साहित्य में जितनी गहरी और विवेकपूर्ण स्त्री पक्षधरता दिखायी पड़ती है वह अद्भुद है। रेणु जी के लिये जीवन कुछ और नहीं अपितु गाँव है। अपने पात्रों के माध्यम से रेणु ने विलक्षणता नहीं आत्मीयता का सृजन किया। गाँव उनके यहाँ मजबूरी नहीं आस्था के केंद्र हैं। गाँव के प्रति उनकी यह आस्था अंत तक बनी रही। फणीश्वर नाथ रेणु अपने समाज की जटिलता को अच्छे से समझते थे। एक सृजक के अंदर जिस तरह के नैतिक साहस की आवश्यकता होती है, वह रेणु में थी। जिस वैचारिकी का वे समर्थन करते थे उसके भी वे अंधभक्त नहीं रहे, अपितु उसकी कमियों या उसके पथभ्रष्ट होने की स्थितियों का भी उन्होने विरोध किया। वे एक ईमानदार सृजक थे अतः अपने अतिक्रमणों के नायक रहे। अपने साहित्य और नैतिक साहस के दम पर सत्ता का प्रतिपक्ष खड़ा करते रहे। हाशिये के समाज को केंद्र में लाते रहे। प्रोफेसर जितेंद्र श्रीवास्तव जी के अनुसार पूरे हिन्दी साहित्य में आदिवासी चेतना के प्रारम्भिक उभार को बड़े सलीके से रेणु ही प्रस्तुत करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि रेणु जी पर शुरू में ही आंचलिकता का टैग लगा दिया गया। इससे उन्हें पढ़ने-पढ़ाने की पूरी परिपाटी ही बदल गई। बहस के केंद्र में संवेदनायें, विचारधारायें, सूचनायें और शिल्प न होकर आंचलिकता हो गई, जो की विडंबनापूर्ण थी आंचलिकता की अवधारणा ने उनकी ऊंचाई को कम किया। जो की इसतरह एक षड्यंत्र लगता है। रेणु जी हिंदी साहित्य में अपनी मौलिकता, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के लिये सदैव याद किये जाते रहेंगे। रेणु की संवेदना, शिल्प और शब्द एकसाथ मिलकर पाठकों के समक्ष जो चित्र प्रस्तुत करते हैं, वह अपने समय का आख्यान बनकर संघर्ष के लिये रोमांच एवं रोमांस पैदा करता है। यह रोमांच ही हमारी चेतना को रिक्त नहीं होने देता। पद्मश्री फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म 4 मार्च 1921 को बिहार के अररिया जिले के पास औराही हिंगना नामक गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री शीलानाथ मंडल और माता का नाम पानो देवी था। उन्होंने साहित्यिक विधाओं में मौलिक रचनाएं प्रस्तुत की है। रेणु के पिता कांग्रेसी थे, रेणु का बचपन आज़ादी की लड़ाई को देखते समझते बीता। स्वाधीनता संघर्ष की चेतना रेणु में उनके पारिवारिक वातावरण से आयी थी। रेणु भी बचपन और किशोरावस्था में ही देश की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ गए थे।
फणीश्वर नाथ रेणु की शिक्षा-दीक्षा
रेणु की प्रारंभिक शिक्षा फारबिसगंज और ‘अररिया’ में हुई। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद नेपाल के कोईराला परिवार में रहकर उन्होंने वहीं के विराटनगर स्थित ‘विराटनगर आदर्श विद्यालय’ से मैट्रिक किया था। 1930-31 ई. में जब रेणु ‘अररिया हाईस्कूल’ के चौथे दर्जे में पढ़ते थे तभी महात्मा गाँधी की गिरफ्तारी के बाद अररिया में हड़ताल हुई, स्कूल के सारे छात्र भी हड़ताल पर रहे। रेणु ने अपने स्कूल के असिस्टेंट हेडमास्टर को स्कूल में जाने से रोका। रेणु को इसकी सज़ा मिली लेकिन इसके साथ ही वे इलाके के बहादुर सुराजी के रूप में प्रसिद्ध हो गए।
लेकिन रेणु ने 1936 के आसपास से कहानी लेखन की शुरुआत की। उस समय उनकी कुछ अपरिपक्व कहानियाँ प्रकाशित भी हुई थीं, लेकिन 1942 के आंदोलन में गिरफ़्तार होने के बाद जब वे 1944 में जेल से मुक्त हुए, तब घर लौटने पर उन्होंने ‘बटबाबा’ नामक पहली परिपक्व कहानी लिखी। ‘बटबाबा’ ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ के 27 अगस्त 1944 के अंक में प्रकाशित हुई। रेणु की दूसरी कहानी ‘पहलवान की ढोलक’ 11 दिसम्बर 1944 को ‘साप्ताहिक विश्वमित्र’ में छ्पी। पारिवारिक पृष्ठभूमि से प्रेरित रेणु ने न केवल 1942 में भारत के स्वाधीनता संग्राम में भाग लिया, बल्कि 1950 में नेपाली जनता को वहां की राणाशाही के दमन और अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए वहां की सशस्त्र क्रांति और राजनीति में भी अपना सक्रिय योगदान दिया। उनकी रचनाएं हिंदी कथा साहित्य के प्रणेता प्रेमचंद की रचनाओं की तरह ही सामाजिक सरोकारों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। प्रेमचंद की ‘गोदान’ जितनी लोकप्रिय है, उतनी ही रेणु की ‘मैला आंचल’ भी साहित्य प्रेमियों के मन में उतरने में कामयाब रही। ‘मैला आंचल’ नाम से ही टीवी धारावाहिक बना और इससे पहले इसी उपन्यास पर ‘डागदर बाबू’ नाम से फिल्म बननी शुरू हुई थी, जो पूरी न हो सकी। राज कपूर व वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म ‘तीसरी कमस’ रेणु की ही लंबी कहानी पर बनी थी। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। उन्होंने भूमिहीनों और खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को भी लेकर बातें की। साथ ही जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार की पनपती हुई बेल की ओर मात्र इशारा नहीं किया था, इसके समूल नष्ट करने की आवश्यकता पर भी बल दिया था। उनका जीवन और समाज के प्रति उनका सरोकार प्रेमचंद की तरह ही रहा। इस दृष्टिकोण से रेणु प्रेमचंद के संपूरक कथाकार हैं। शायद यही कारण है कि प्रेमचंद के बाद रेणु ने ही सबसे बड़े पाठक वर्ग को अपनी लेखनी से प्रभावित किया। रेणु के साहित्य में ग्रामीण भाषा की प्रमुखता देखने को मिलती है। ग्रामीणों के जनमानस को सजीवता से चित्रित करने के लिए उन्होंने ग्रामीण भाषा का भरपूर प्रयोग किया। उनकी अनेक रचनाओं में ग्रामीण परिवेश का सौंदर्य, उसकी सजीवता और मानवीय संवेदनाओं का ताना-बाना नजर आता है।
अपने उपन्यास ‘मैला आंचल’ में उन्होंने अपने क्षेत्र का इतनी गहराई से चित्रण किया है कि वह ग्रामीण साहित्य का एक सोपान बन गया। रिपोतार्ज- (“रिपोर्ताज” गद्य लेखन की एक आधुनिक विधा है। इसका विकास सन् 1936 ई० के बाद द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पाश्चात्य प्रभाव से हुआ।) रेणु को जितनी प्रसिद्धि उपन्यासों से मिली, उतनी ही प्रसिद्धि उनको अपनी सहज सरल कहानियों से भी मिली। आदिम रात्रि की महक, एक श्रावणी दोपहरी की धूप, अच्छे आदमी, सम्पूर्ण कहानियां, ठुमरी, अगिनखोर, आदि उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। उनके उपन्यासों में ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’, ‘जूलूस’, ‘दीर्घतपा’ (जो बाद में कलंक मुक्ति नाम से प्रकाशित हुई), ‘कितने चौराहे’, ‘पल्टू बाबू रोड’ आदि प्रमुख हैं। रेणु के गढ़े किरदारों में खुद उनकी जिजीविषा दिखाई देती है। उनकी कहानी ‘पहलवान का ढोलक’ का पात्र पहलवान मौत को गले लगा लेता है, लेकिन चित नहीं होता। यानी वह मर जाता है, लेकिन पराजय स्वीकार नहीं करता। रेणु के पात्र ही जिजीविषा और सिद्धांतों से ओतप्रोत नहीं दिखाई देते, उन्होंने इसे अपने जीवन में भी सार्थक किया है। सरकारी दमन और शोषण के विरुद्ध ग्रामीण जनता के साथ प्रदर्शन करते हुए वह जेल गए, उन्होंने आपातकाल का विरोध करते हुए अपना ‘पद्मश्री’ सम्मान भी लौटा दिया। इसी समय रेणु ने पटना में लोकतंत्र रक्षी साहित्य मंच की स्थापना की थी। रेणु की कहानी ‘रखवाला’ में नेपाली गांव की कहानी का चित्रण है और इसके कई संवाद भी नेपाली भाषा में हैं। नेपाल की पृष्ठभूमि पर आधारित उनकी एक अन्य कहानी ‘नेपाली क्रांतिकथा’ उन्हें हिन्दी के एकमात्र नेपाल प्रेमी कहानीकार के रूप मे प्रतिष्ठित करती है। उनकी कहानियों के साथ ही उनके कुछ संस्मरण भी काफी लोकप्रिय हुए। इनमें ‘धनजल वनजल’, ‘वन तुलसी की गंध’, ‘श्रुत-अश्रुत पूर्व’, ‘समय की शिला’ पर आदि का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। रेणु की लेखन शैली ऐसी थी जिसमें वह अपने हर किरदार की मनोदशा का ऐसा अद्भुत वर्णनात्मक चित्रण करते थे कि वह पाठक की आंखों में जीवंत हो उठता था। देश स्वाधीन होने के बाद उन्होंने एक नई दिशा में कदम बढ़ाया और बिहार के पूर्णिया से एक ‘नई दिशा’ नामक पत्रिका का संपादन प्रकाशन शुरू किया। रेणु ने अपनी अंतिम कहानी 1972 में ‘भित्तिचित्र की मयूरी’ लिखी थी।
भारत के महान कथाकार एवं उपन्यासकार फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ जी की रचना स्वयं ही काफी कुछ कह जाती है, उसकी मौखिक व्याख्या की कोई दरकार नहीं होती। रेणु ने स्वयं को न केवल लोकप्रिय कथाकार के रूप में स्थापित किया, बल्कि हर जोर-जुल्म की टक्कर में सड़कों पर भी उतरते रहे, भारत से नेपाल तक। उन्होंने वर्ष 1975 में आपातकाल का विरोध करते हुए अपना ‘पद्मश्री’ सम्मान लौटा दिया था। निस्संदेह, ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’, ‘मैला आंचल’, ‘परती परिकथा’ जैसी कृतियों के शिल्पी रेणु ने अपनी रचनाओं के माध्यम से सहज रूप में काफी कुछ कह दिया है। रेणु ऊपर से जितने सरल, मृदुल थे, अंदर से उतने ही जटिल भी।
साहित्य में खड़ी बोली का योगदान
इतिहास गवाह है कि हिंदी कथा साहित्य में बिहार के साहित्यकारों का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान रहा है जहां एक ओर खड़ी बोली में पहली कहानी “नासिकेतोपाख्यान” लिखने वाले बिहार के कथाकार पंडित सदल लाल मिश्र ने शुरू की तो वहीं दूसरी ओर बिहार ने खड़ी बोली के अनेक दिग्गज साहित्यकारों में देवकीनंदन खत्री से लेकर फणीश्वर नाथ रेणु का नाम प्रसिद्ध है। फणीश्वर नाथ रेणु की साहित्यिक रचनाएं आज भी प्रासंगिक है जिनकी रचनाएं और लेखन शैली पाठकों के अंतर्मन को छूती हैं। खड़ी बोली में रचित रेणु का प्रसिद्ध उपन्यास “मैला आंचल” है जिसमें उन्होंने मुख्य रूप से उन लोगों के समकालीन सामाजिक जीवन को दर्शाया है जो गरीब और पिछड़े होते हैं। फणीश्वर नाथ रेणु की “मैला आँचल” खड़ी बोली का अनोखा उपन्यास है। पदमश्री अवार्ड को पापश्री का अवार्ड कह किया वापस जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में लड़े गए छात्र आंदोलन के दौरान जब पटना में आंदोलनकारियों पर पुलिसिया लाठी चार्ज रेनु जी इतने व्यथित हुए की उन्होंने सरकार द्वारा दी गई पदमश्री अवार्ड को पापश्री का अवार्ड कहकर वापस लौटा दिया था।
फणीश्वर नाथ रेणु जी नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरु
नीतीश कुमार जनवरी 2020 में जल-जीवन- हरियाली यात्रा के दौरान अररिया फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म स्थान ओराही हिंगना गांव गये थे। नीतीश कुमार ने अररिया की जन सभा में कहा था, “मैं रेणु जी की जन्म भूमि को नमन करता हूं। 1974 के छात्र आंदोलन के समय मैं अक्सर रेणु जी से मिलता था। उस समय उनसे मुझे बहुत सीखने-समझने का मौका मिला था।” फणीश्वर नाथ रेणु समाजवादी थे। उन्होंने 1972 का विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। 1974 में जब जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस की निरंकुश सत्ता के खिलाफ छात्र आंदोलन का नेतृत्व किया तो फणीश्वर नाथ रेणु भी इसमें शामिल हो गये। रेणु जी जेपी आंदोलन का बौद्धिक चेहरा थे। उस समय छात्र संघर्ष वाहिनी के नेता जेपी और रेणु से मिल कर आंदोलन की रूपरेखा बनाते थे। नीतीश भी छात्र संघर्ष वाहिनी के नेता के रूप में कई बार रेणु जी से मिले थे। उसी समय नीतीश ने रेणु जी से राजनीति के कई मूलभूत सिद्धांतों को सीखा था। नीतीश कुमार जब पटना के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहे थे उसी समय से फणीश्वरनाथ रेणु उनसे बेहद प्रभावित थे। एक बार रेणुजी ने कहा था, मुझे नीतीश कुमार जैसा ही दामाद चाहिए। इतनें वर्षों के बाद नीतीश ने उन्हीं स्मृतियों को अररिया में लोगों से साझा किया। रेणु का संघर्ष सफल हुआ और मार्च 1977 को आपातकाल हटा, लेकिन इसके बाद वह अधिक दिनों तक जीवित न रह पाए। पेप्टिक अल्सर रोग से ग्रसित उनका शरीर जर्जर हो चुका था और बीमारी से लड़ते हुए 11 अप्रैल 1977 को वह इस संसार से ओझल हो गए, लेकिन अपनी तमाम कृतियों के कारण वह आज भी साहित्य प्रेमियों के मन में जीवंत हैं।