राकेश बिहारी शर्मा – राणिक कथाओं के भागवत पुराण की उस घटना की याद दिलाता है जब कृष्ण ने वृन्दावन के ग्रामीणों को मूसलाधार बारिश से आश्रय प्रदान करने के लिए गोवर्धन पर्वत को उठाया था। यह घटना भगवान द्वारा उन भक्तों को सुरक्षा प्रदान करने का प्रतीक है जो उनकी शरण में आते हैं।
दीपावली के अगले दिन भारत में गोवर्धन पूजा का पर्व मनाया जाता है। इस पर्व को अन्नकूट पूजा भी कहते हैं। कार्तिक माहीने की प्रतिपदा को भगवान गोवर्धन या गिरिराज जी की पूजा का विधान है उनके साथ ही भगवान कृष्ण, गोवर्धन पर्वत और गाय की भी पूजा करते हैं। कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने ही लोगों को गौ की पूजा करने को कहा था, जिस पर इंद्र देव नाराज हो गए थे और फिर श्रीकृष्ण ने लोगों की रक्षा की थी। लेकिन इस कथा के बारे में बहुत से लोग यह नहीं जानते हैं आखिर श्रीकृष्ण ने लोगों से ऐसा करने को क्यों कहा था। इसी में गोवर्धन पर्व का सार छिपा है।
इंद्र के प्रकोप से वृंदावन के लोगों की रक्षा की
पौराणिक कथाओं अनुसार कि इस दिन भगवान कृष्ण ने इंद्र देव के प्रकोप से वृंदावन के लोगों की रक्षा के लिए अपने हाथ में गोवर्धन पर्वत अपनी छोटी उंगली पर उठाया था। तब उन्होंने लोगों को इंद्र की पूजा की जगह गाय की पूजा करने को कहा था। दरअसल ब्रज वृंदावन में लोग इंद्र देव की पूजा किया करते थे। जब भगवान कृष्ण ने देखा के लोग अंधविश्वास की तरह इंद्रदेव की पूजा कर रहे हैं, तो उन्होंने लोगों से ऐसा करने से मना किया।
लोगों को गाय और गोवर्धन की पूजा करना चाहिए
श्रीकृष्ण ने कहा कि वर्षा करना तो इंद्रदेव का कर्तव्य है। यदि पूजा करनी है तो हमें गोवर्धन पर्वत की करनी चाहिए, क्योंकि हमारी गायें तो वहीं चरती हैं और हमें फल-फूल, सब्जियां आदि भी गोवर्धन पर्वत से प्राप्त होती हैं। इसके बाद सभी ब्रजवासी इंद्रदेव की बजाए गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे। इस बात को देवराज इंद्र ने अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर प्रलयदायक मूसलाधार बारिश शुरू कर दी, जिससे चारों ओर त्राहि-त्राहि होने लगी। सभी अपने परिवार और पशुओं को बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे। तब ब्रजवासी कहने लगे कि ये सब कृष्णा की बात मानने का कारण हुआ है, अब हमें इंद्रदेव का कोप सहना पड़ेगा।
इसके बाद कृष्ण ने इंद्रदेव का अहंकार दूर करने और सभी ब्रजवासियों की रक्षा करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठा लिया। तब सभी ब्रजवासियों ने गोवर्धन पर्वत के नीचे शरण ली। इसके बाद इंद्रदेव को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने श्री कृष्ण से क्षमा याचना की। इसी के बाद से गोवर्धन पर्वत के पूजन की परंपरा आरंभ हुई। इस पूरी घटना के बाद ब्रदवासियों ने उत्सव मनाया और तब से हर दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पूजन की परंपरा शुरू हो गई। श्रीकृष्ण की इसी लीला के कारण उनका नाम गिरिधर या गोवर्धनधारी नाम भी पड़ा था।
श्रीकृष्ण ने गाय का विशेष महत्व दिया
गोवर्धन पूजा के साथ गाय की पूजा को भी विशेष महत्व दिया जाता है। शास्त्रों के अनुसार गाय को देवी लक्ष्मी का रूप माना गया है कि क्योंकि उनके दूध से लोगों को सेहत मिलती है और वे सम्पदा और समृद्धि का भी प्रतीक हैं। इसलिए गाय को एक प्रकार का धन भी कहा जाता है। गाय के दूध को नदियों के जल जितना पवित्र माना जाता है।
शास्त्रों के अनुसार गाय में सभी देवी देवताओं का वास होता है। उनकी पूजा करने से घर में सुख और शांति का आती है, ऐसी मान्यता है। गोवर्धन पूजा में गाय बैलों को भी स्नान कराकर उन्हें रंग लगाकर, विधिवत पूजा कर उन्हें पकवानों का भोग लगाया जाता है। उनके गले में नई रस्सी लगाई जाती है। श्रीकृष्ण का कहना का गोवर्धन पूजा करवाने में वृंदावन के लोगों की सोच का सुधारना मकसद था। उनकी इस लीला के पीछे एक संदेश यह भी छिपा है कि हम इंद्र देव की पूजा तो करते हैं, लेकिन गाय को यथोचित सम्मान नहीं देते उनसे मिलने वाली कृपा के प्रति कृतज्ञता का भाव बिलकुल नहीं रखते। ऐसा केवल गाय के साथ ही अपने से जुड़ी हर चीज के साथ हमें करना चाहिए, गोवर्धन पर्वत के पूजन के पीछे भी यही शिक्षा है। प्रकृति से हमें इतना कुछ मिलता है और हमें उसके प्रति उदासीन नहीं बल्कि कृतज्ञ होना चाहिए।
गोपाष्टमी या गोवर्धन पूजन की कहानी
शास्त्रज्ञों एवं विद्वान आचार्यों के अनुसार कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को गोपाष्टमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन से श्रीकृष्ण ने गोचारण की सेवा प्रारंभ की। इसके पूर्व वे केवल बछड़ों की देखभाल करते थे। गोपाष्टमी, ब्रज में भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है। अतिप्रिय गाय की रक्षा तथा गोचारण करने के कारण श्रीकृष्ण को ‘गोविंद’ और ‘गोपाल’ नाम से संबोधित किया जाता है। उन्होंने कार्तिक शुक्ल पक्ष, प्रतिपदा से सप्तमी तक ‘गो-गोप-गोपियों’ की रक्षा के लिए गोवर्धन पर्वत को धारण किया था। तभी से अष्टमी को ‘गोपाष्टमी’ का पर्व मनाया जाने लगा।
धार्मिक ग्रंथो के अनुसार श्रीकृष्ण पहले केवल बछड़ों को चराने जाते थे और उन्हें अधिक दूर जाने की भी अनुमति नहीं थी। इसी दिन बालक कृष्ण ने मां यशोदा से गायों की सेवा करने की इच्छा व्यक्त की और कहा कि मां मुझे गाय चराने की अनुमति चाहिए। उनके अनुग्रह पर नंद बाबा और यशोदा मैया ने शांडिल्य ऋषि से अच्छा समय देखकर मुहूर्त निकालने के लिए कहा। ऋषि ने गाय चराने ले जाने के लिए जो समय निकाला, वह गोपाष्टमी का शुभ दिन था। मैया ने श्रीकृष्ण को अच्छे से तैयार किया। उन्हें बड़े गोप-सखाओं जैसे वस्त्र पहनाए। सिर पर मोर-मुकुट, पैरों में पैजनिया पहनाई। परंतु जब मैया उन्हें सुंदर-सी पादुका पहनाने लगीं तो वे बोले यदि सभी गौओं और गोप-सखाओं को भी पादुकाएं पहनाएंगी, तभी वे भी पहनेंगे। श्रीकृष्ण के इस प्रेमपूर्ण व्यवहार से मैया का हृदय भर आया और वे भावविभोर हो गईं। इसके पश्चात बालक कृष्ण ने गायों की पूजा की तथा प्रदक्षिणा करते हुए साष्टांग प्रणाम किया और बिना पादुका पहने गोचारण के लिए निकल पड़े।
ब्रज में किंवदंती यह भी है कि राधारानी भी भगवान के साथ गोचारण के लिए जाना चाहती थीं परंतु स्त्रियों को इसकी अनुमति नहीं थी इसलिए वे और उनकी सखियां गोप-सखाओं का भेष धारण करके उनके समूह में जा मिलीं। परंतु भगवान ने राधारानी को तुरंत पहचान लिया। इसी लीला के कारण आज के दिन ब्रज के सभी मंदिरों में राधारानी का गोप-सखा के रूप में शृंगार किया जाता है।
गोपाष्टमी के शुभ अवसर पर गौशाला में गोसंवर्धन हेतु गौ पूजन का आयोजन किया जाता है। गौमाता पूजन कार्यक्रम में सभी लोग परिवार सहित उपस्थित होकर पूजा अर्चना करते हैं। महिलाएं श्रीकृष्ण की पूजा कर गऊओं को तिलक लगाती हैं। गायों को हरा चारा, गुड़ इत्यादि खिलाया जाता है तथा सुख-समृद्धि की कामना की जाती है।