Monday, December 23, 2024
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 संवेदनशील समाजसुधारक पं. मदन मोहन मालवीय की 160 वीं जयंती पर विशेष: ● मालवीय जी का जीवन व्रत था- ‘सिर जाए तो जाए, प्रभु मेरा धर्म न जाए।’ ● मालवीय जी ने सामाजिक न्याय और समानता का पक्ष मजबूती से रखा

प्रस्तुति :-  राकेश बिहारी शर्मा – भारत रत्न महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी का जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में पंडित बृजनाथ और मूना देवी जी के घर 25 दिसंबर 1861 में को भारतीय संस्कृति से ओतप्रोत परिवार में हुआ था। पिता बृजनाथ जी संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। अतः प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत भाषा में पंडित हर देव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में हुई। म्योर सेण्ट्रल कॉलेज, कलकत्ता विश्वविद्यालय सहित विभिन्न शिक्षण संस्थानों से शिक्षा हासिल करके एक कुशल अधिवक्ता, निर्भीक पत्रकार, संवेदनशील समाजसुधारक, भारत की भावी पीढ़ी को भारतीयता का पाठ पढ़ाने वाले एक सफल शिक्षक के रूप में जाने गए। ब्रिटिश साम्राज्य के उस दौर में मालवीय जी ने सामाजिक न्याय और समानता पर मजबूती से अपना पक्ष रखा। अस्पृश्यता, अशिक्षा, बाल विवाह, विधवा विवाह पर खुल कर प्रहार किया। समाज की रूढ़िवादी परंपराओं का न सिर्फ विरोध किया अपितु जीवन भर उन्हें दूर करने का प्रयास करते रहे। उनके सरल स्वभाव का प्रभाव ही था कि वे उस दौर के सबसे लोकप्रिय शख्सियत बन गए। सहज ही लोग उनकी बातों को अनसुना कर पाते थे। फिर वो ताकतवर ब्रिटिश हुकूमत हो या भारतीय जनमानस का असाधारण नुमाइंदा। संभवतः इसीलिए उन्हें आज भी उदारवादी और राष्ट्रवादियों के मध्य सेतु के रूप में जाना जाता है। हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान को समर्पित उनके जीवन में समाज के प्रत्येक तबके को जोड़ कर रखने की गजब की शक्ति थी। उन्होंने ‘सत्यमेव जयते’ के नारे को जन जन तक लोकप्रिय बनाया। 4 फरवरी 1916 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की नींव डाल कर भारतीयों को अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी का एक विषय के रूप में अध्यापन आरंभ कराया। पंडित मालवीय बनारस हिंदू विश्व विद्यालय के लिए देशभर से चंदा एकत्रित कर रहे थे, उस समय की एक बड़ी रोचक घटना है। हैदराबाद के निजाम ने चंदे के रूप में मालवीय जी को अपनी जूती देने की बात कह दी। निजाम ने दान देने से साफ मना करते हुए बदतमीजी से कहा- ‘दान में देने के लिए हमारे पास सिर्फ जूती है।’ महामना ने मन ही मन कुछ निर्णय किया और निजाम की जूती ही उठा कर ले आए। बाजार में आकर पंडित मालवीय ने निजाम की जूतियों की नीलामी शुरू कर दी। खबर निजाम तक पहुंची तो उसे लगा उसकी जूतियां की ही नहीं, उसकी इज्जत भी नीलाम हो रही है। निजाम ने तत्काल मालवीय जी को बुला भेजा और उन्हें भारी भरकम दान देकर सम्मान विदा किया। मालवीय जी ने वाराणसी में हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए उन्होंने पूरे देश भर में जनजागृति और भिक्षाटन किया। अंग्रेजी राज में एक स्वदेशी विश्वविद्यालय का निर्माण मालवीय जी की महानतम उपलब्धियों में से एक है। पंडित मालवीय ने पेशावर से कन्याकुमारी तक की यात्रा करके उस जमाने में एक करोड़ 64 लाख रुपए की बड़ी रकम इकट्ठा की थी। मालवीय जी के अथक प्रयासों से विश्वविद्यालय के लिए 1360 एकड़ जमीन दान में मिली थी, जिसमें 11 गांव, 70 हजार पेड़, 100 पक्के कुएं, 20 कच्चे कुएं, 860 कच्चे मकान, 40 पक्के मकान, एक मंदिर और धर्मशाला शामिल थे। 1915 तक पूरा पैसा जमाकर 5 लाख गायत्री मंत्रों के जाप के साथ विश्व विद्यालय का भूमि पूजन हुआ था। देश की स्वतंत्रता में भी पंडित मदन मोहन मालवीय का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मालवीय जी को हम बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक के रुप में याद करते हैं, जो आज देश के प्रमुख राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों में से एक है। इस विश्वविद्यालय में सामाजिक-विज्ञान से लेकर चिकित्सा और इंजिनियरिंग के 140 विभाग हैं और करीब 20 हजार से अधिक छात्र इसमें पढ़ते हैं। मालवीय जी चाहते थे कि भारत के युवाओं को सम्पूर्ण शिक्षा का लाभ मिले जिसमें आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान, व्यवहारिक प्रशिक्षण, नैतिक मानदंडों और कौशल अध्ययन को शामिल किया जाए। वह चाहते थे कि भारतीय ज्ञान को पश्चिम के आधुनिक वैज्ञानिक विचारों के साथ मिला दिया जाए। महामना मदन मोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रणेता तो थे ही इस युग के आदर्श पुरुष भी थे। वे भारत के पहले और अन्तिम व्यक्ति थे जिन्हें महामना की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस विश्वविद्यालय की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। मदन मोहन मालवीय अपने हृदय की महानता के कारण ‘महामना’ कहलाए। आज तक उनके अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति इस उपाधि का अधिकारी नहीं बन पाया है। मालवीय जी का जीवन व्रत था- ‘सिर जाए तो जाए, प्रभु मेरा धर्म न जाए।’ मालवीय जी ने भारत में शिक्षा की क्रांति की मशाल जगाई। उन्होंने स्वयं ‘मकरंद ‘ उपनाम से रचनाएं लिखी, जो उस दौर में बेहद पसंद की जाने लगी। हिंदी को प्रोत्साहन देने में उनका अप्रतिम योगदान है। उन्होंने भविष्यवाणी की थी, कि हिंदी एक दिन राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होगी। तत्कालीन ब्रिटिश शासन में कालाकांकर के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर हिंदी, अंग्रेजी अखबार हिंदुस्तान का 1887 से संपादन किया, इंडियन ओपीनियन के संपादन में सहयोग दिया साथ ही वर्ष 1907 में साप्ताहिक अभ्युदय को निकालकर कुछ समय तक संपादित किया, वर्ष 1909 में लीडर एवं मर्यादा पत्रिका निकालकर लोगों को जागरूक करने का काम किया। भारत की पत्रकारिता के क्षेत्र में आज भी उनका स्थान सर्वप्रथम है। स्वतंत्रता संग्राम में इन अखबारों का अहम रोल रहा है। जब ब्रिटिश सरकार ने चौरी-चौरा कांड में लगभग 170 लोगों को फांसी की सजा सुनाई तब पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने मुकदमें की पैरवी करके लगभग 151 लोगों को बचाया। उनकी योग्यता का लोहा अंग्रेजी हुकूमत भी मानती थी। वर्ष 1920 में असहयोग आंदोलन, लाला लाजपतराय के साथ साइमन कमीशन का विरोध, नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपनी अहम भूमिका निभाई। मालवीय जी ने वर्ष 1931 में पहले गोलमेज सम्मेलन में देश का प्रतिनिधित्व किया और वर्ष 1937 में राजनीति से सन्यास लेकर समाज सेवा से जुड़ गए। भारतीय स्वतंत्रता अभियान में स्वतंत्रता सेनानी की भूमिका के जरिए उन्होंने इतिहास में अपनी अमिट छाप छोडी। हिन्दू राष्ट्रवाद के समर्थक मदन मोहन मालवीय देश से जातिगत बेड़ियों को तोड़ना चाहते थे। उन्होंने दलितों के मन्दिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन चलाया। 24 दिसम्बर, 2014 को भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने पंडित मदनमोहन मालवीय को मरणोपरांत देश के सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाजा। महामना की देशभक्ति से प्रभावित होकर महात्मा गांधी उन्हें बड़े भाई और भारत निर्माता की संज्ञा देते थे। भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी का योगदान अमर है, उनकी तपस्या औऱ संघर्ष के इतिहास को पढ़ कर हर भारतीय हमेशा प्रेरणा लेता रहेगा।

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