जहां-जहां अंधेरा है उन तमाम जगहों पर उजाले का साम्राज्य कायम हो।
चाहे कितना घना हो अंधेरा
किसके रोके रुकेगा सवेरा
मानव समाज प्रारंभ से ही अंधेरों से लड़ता आया है । और धीरे-धीरे क्रमबद्ध विकास की ओर अग्रसर है।
जो लोग हार कर बैठे हैं
उम्मीद मार कर बैठे हैं।
हम उनके बुझे चिरागों पर
फिर से दिया जलाएंगे
हम नया सवेरा लायेगे।।
इस सोच के साथ दुनिया भर के त्यागी और कर्मठ लोग समाज को सुसभ्य और सुंदर बनाने में जुटे हैं। वे सभी वास्तव में युग निर्माता है ।
जरा सोचे कि प्रारंभ में हमारे जीवन में क्या वजूद था ?मगर शिक्षा ने हमारे जीवन में अद्भुत क्रांति का संचार करते हुए हमारे घर संसार को खुशियों के दामन से भर दिया।
पत्थर युग से लेकर आधुनिक युग तक मानव का सफर काफी चुनौती पूर्ण और संघर्ष पूर्ण रहा है।इस संघर्ष के सफर में अनेको संतो, ऋषियों ,समाजसुधारको , वैज्ञानिको सहित तमाम प्रगतिशील सोच रखने वाले बुद्धिजीवियों की अहम भूमिका है फलस्वरूप मानव समाज विकास की ओर अग्रसर हुआ ।
पर गौर करने की बात है कि वर्तमान समय में हम सभी जिस परिवेश में जी रहे हैं वह परिवेश प्रत्येक मानव के लिए ठीक नहीं है ।आधुनिकता की चकाचौंध के बीच भी मानव समाज घुटन भरी जिंदगी जीने को मजबूर है।हमारे वर्तमान समाज में जाति, धर्म ,संप्रदाय ,लिंग ,भाषा, नस्ल आदि के नाम पर भेदभाव मौजूद है ।पढ़े लिखे लोग भी अपने शिक्षित होने के गुमान तले समाज के दर्द को रौंद रहे हैं।
आज समाज में हर तरफ नफरत, उन्माद , चोरी ,हिंसा ,आतंक का माहौल है । संगीनों के साए में लोकतंत्र सिसक रहा है ।
प्रगतिशील मानव का कर्तव्य बनता है की समाज में व्याप्त इन सभी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंके।
वैसे तो दुनिया में कई प्रमुख सिद्धांत और विचार है ।दुनिया के बड़े-बड़े विचारक, लेखक, कवि,वैज्ञानिक ,अर्थशास्त्री , समाजशास्त्री, शिक्षाशास्त्री,दार्शनिक आदि के अपने अपने विचार और सिद्धांत हो सकते है । मगर मैने अब तक के जीवन में जो भ्रमण ,चिंतन और मनन किया उसके अनुभव के आधार पर यह कर सकता हूं की पूरी दुनिया में मनुष्य के मस्तिष्क में मात्र दो ही विचार का उदय होता है। वो है सद्भावना और दुर्भावना ।
सद्भावना अर्थात एक दूसरे के प्रति मन में अच्छी भावना रखना । और दुर्भावना अर्थात एक दूसरे के प्रति मन में दुर्भाव रखना।
जो मनुष्य अपने भीतर सद्भाव रखता है वह मनुष्य प्रगति की ओर अग्रसर होता है और वह समाज को भी अधिक से अधिक अच्छा संदेश देने की कोशिश करता है।
अपने मन में सद्भावना रखने वाला मनुष्य जाति, धर्म,भाषा , संप्रदाय, लिंग, नस्ल आदि के नाम पर कभी भेदभाव नही रखता ।वो सभी को समान रूप से देखता है ।इसके विपरीत यदि जो मनुष्य अपने मन में दुर्भावना रखता है तो वह जाति, धर्म,भाषा , संप्रदाय, लिंग, नस्ल आदि के नाम पर भेदभाव रखता है और समाज में इसके नाम पर नफरत और उन्माद का वातावरण पैदा करता है ।जिससे कि एक दूसरे को नीचा गिराने , हीन भावना से देखने की प्रवृत्ति आदि का जन्म होता है और समाज में वैमनश्यता का उदय होता है।फिर समाज में अशांति पैदा होता है ।इसलिए
हम सभी को दुर्भावना का त्याग कर सद्भावना को गले लगाना चाहिए।जब हम अपने मन में बिना किसी भेदभाव के एक दूसरे के प्रति सच्चा प्यार रखते हैं तब समाज का उत्कर्ष होता है।
अपने मन में हमेशा सद्भाव का दीप जलाएं।
ज्योत से ज्योत जलाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो।
हमारा समाज तभी प्रगति कर सकता है जब समाज में हर तरफ अमन चैन का माहौल हो।जीवन और मरण प्रकृति के दो शाश्वत सत्य हैं।
निःसंदेह प्रकृति के दो विशिष्ट भौतिक गुण होते हैं ।भौतिक पिंडों का धड़ तिरोहित हो जाता है लेकिन सत्कर्म की शाखा सदा सर्वदा लहलहाती रहती है।
हम सभी से जितना संभव हो सके समाज को अच्छा बनाने की दिशा में अवश्य प्रयास करें।
आइए हम सभी मिलकर यह संकल्प ले कि समाज में व्याप्त बुराई और अंधेरे को हमेशा हमेशा के लिए मिटा दें । सद्भाव का दीप जले तभी इस धरा पर प्रकाश फैलेगा।