राकेश बिहारी शर्मा- मकर संक्रांति से शरद ऋतु का समापन और बसंत ऋतु का शुभारंभ माना जाता है। मकर संक्रांति से नई फसलें तैयार हो जाती है। जिसकी कटाई करने के बाद यह त्योहार माना जाता है।
हम लोग पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में रहते हैं। सूर्य जब उत्तरी गोलार्द्ध की हम लोग मुख होकर उनकी गोलाई में रहते हैं। सूर्य जब उत्तरी की लिए, कृषि प्रधान देशवासियों के लिए हर्ष और उत्सव का अवसर होता है। सूर्य ही सारी ऋतुओं का नियामक होता है। ऋतुओं के प्रभाव से ही खेती-बारी होती है। सूर्य के प्रभाव से कृषि उपयोगी वर्षा होती है। अतः मकर संक्रांति को पूरा देश, बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाता है। इस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है। दक्षिण भारत में, पोंगल, उत्तर भारत में खिचड़ी, लोहड़ी, बिहू आदि पर्व उसी उत्सव के स्वरूप हैं। वास्तव में मकर संक्रांति किसानों का त्योहार है। दक्षिण भारतवर्ष में मनाया जाने वाला पोंगल उत्सव, इसी का प्रतीक है। उस दिन घर के आँगन को लीप-पोत कर, अल्पना आदि बनाकर, आग पर खिचड़ी पकाई जाती है। फसल जब कट कर आती है तो किसान के घर के आँगन में ही लाकर रखी जाती है और आँगन में ही सूर्य का भरपूर प्रकाश आता है। अतः पोंगल का आयोजन घर के आँगन में ही किया जाता है। मध्याह्न के सूर्य में, आँगन के बीच आग पर रखी खिचड़ी में जब उफान आता है तो प्रसन्नता से वे चिल्ला उठते हैं ‘पोंगल- पोंगल’, ‘पोंगल-पोंगल’ (खिचड़ी में उफान आ गया)। यह समृद्धि का प्रतीक है, इसे पोंगल कहते हैं। वास्तव में मध्याह्न सूर्य के समय खिचड़ी या दूध में उफान आने को सूर्य को अर्घ्य देना माना जाता है
चावल और तिल पर्व
उत्तर भारत में मकर-संक्रांति को खिचड़ी पर्व कहते हैं। मकर संक्रांति तक खरीफ फसल में पैदा होने वाला चावल और दाल पककर तैयार हो जाता है। देवताओं को यही नया अन्न अर्पित किया जाता है। इसलिए मकर संक्रांति पर खिचड़ी का भोग और खिचड़ी का प्रसाद ही दिया-लिया जाता है। इसी काल में तिल भी उपलब्ध हो जाता है। अतः सरदियों में मकर- संक्रांति के आसपास, विशेषकर माघ मास में तिल का भक्षण किया जाता है। तिल पौष्टिक पदार्थ है, इसके सेवन से रूप निखर आता है। इसीलिए मकर-संक्रांति पर तिल का उबटन लगाकर स्नान करने का विधान रखा गया है। चावल से विभिन्न प्रकार की मिठाइयाँ बनाई जाती हैं। स्त्रियाँ चावल, तिल, उड़द आदि मिलाकर एक प्रकार का नमकीन बनाती हैं, जिसे ‘माह कहाड़ी’ कहते हैं।
दही और चूड़ा का लगाया जाता है भोग
दही और चूड़ा के साथ तिलकुट को मकर संक्रांति पर बनाया जाता है। ताजा-ताजा धान कटाई के बाद किसान चावल को खाते हैं। इसके साथ ही भगवान सूर्य को खिचड़ी का भोग लगाकर खाने की परंपरा है। उत्तर प्रदेश, बिहार समेत कई राज्यों में इस दिन दही-चूड़ा का भोग लगाया जाता है। साथ ही साथ ये रिश्तों की मजबूती के लिए माना जाता है। लोग दही-चूड़ा को अपने दोस्तों, रिश्तेदारों के घर जाकर आदान प्रदान भी करते हैं। इससे रिश्तों में गर्माहट बनी रहती है। मकर संक्रांति के दिन लोग सुबह और दिन के समय चूड़ा-दही, तिल के लड्डू, तिल की गजक और रात में खिचड़ी खाते हैं। बिहार और उत्तर प्रेदश में ये मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन दही-चूड़ा खाने से सौभाग्य आता है। इस शुभ दिन में सबसे पहले दही-चूड़ा का सेवन किया जाता है। साथ ही सफेद और काली तिल के लड्डू, तिल के गजक भी खाए जाते हैं।
भारत में खिचड़ी का महत्व
विद्वानों के मुताबिक मकर संक्रांति पर जो खिचड़ी बनाई जाती है उसका संबंध किसी न किसी ग्रह से रहता है। जैसे खिचड़ी में इस्तेमाल होने वाले चावल का संबंध चंद्रमा से होता है। खिचड़ी में डाली जाने वाली उड़द की दाल का संबंध शनिदेव, हल्दी का संबंध गुरु देव से और हरी सब्जियों का संबंध बुध देव से माना गया है। इसके अलावा खिचड़ी में घी का संबंध सूर्य देव से होता है। इसलिए मकर संक्रांति की खिचड़ी को बेहद खास माना जाता है।
मकर संक्रांति का लोहड़ी त्योहार
पंजाब में मकर संक्रांति के एक दिन पूर्व लोहड़ी का त्योहार मनाया जाता है। लोहड़ी का त्योहार पंजाब, हरियाणा और कश्मीर में धूमधाम से मनाया जाता है। आग जलाकर लोग तापते हैं, नाच-गाना होता है। तिल से बने पकवान खाए- खिलाए जाते हैं। इसी प्रकार उत्तराखंड के लोग भी मकर-संक्रांति के पर्व धूमधाम से मनाते हैं। अल्मोड़ा क्षेत्र में इस पर्व को ‘घुघुतिया’ कहते हैं और पिथोरागढ़ क्षेत्र में इसे ‘पुसिड़ीय’ कहते हैं। मकर संक्रांति के दिन प्रभात काल में सूर्योदय से पहले सबको स्नान करना आवश्यक माना जाता है।
पंजाब (देश विभाजन से पूर्व का पंजाब) में लोहड़ी के त्योहार के साथ पंजाब के वीर राजा दूल्हा भट्टी की वीरता को लोकगीतों के माध्यम से याद किया जाता है। वीर दूल्हा भट्टी ने लोहड़ी के मौके पर बेला (जंगल) में मुगली से छुड़वाई हुई कन्या का विवाह भी एक हिंदू लड़के से करवाया और स्वयं कन्यादान किया। इसी प्रकार उसने कई अपहृत कन्याओं को छुड़वाकर उनका कन्यादान किया। पंजाब के हिंदू आजतक लोहड़ी के त्योहार पर निम्न लोकगीत गाकर वीर दूल्हा भट्टी को याद करते हैं-
“सुंदर मुंदरीये हो, तेरा कौन बेचारा हो। दूल्हा भट्टी वाला हो, दूल्हे ने धी ब्याही हो। शेर शक्कर पाई हो, कुड़ी दा शालू पाटा हो। चाचे चूरी कुट्टी हो, जिमदाँरा चूरी लुट्टी हो॥”
मकर संक्रांति के पर्व में स्नान को बड़ा महत्त्व दिया गया है। गंगा स्नान के बाद स्फूर्ति महसूस होती है और भूख लगती है। यही कारण है कि उत्तर भारत में प्रयाग के गंगा-यमुना के संगम पर और गंगा सागर में मकर संक्रांति पर अपार भीड़ जुड़ती है।
मकर संक्रांति का माहात्म्य
मकर संक्रांति भारतियों का एक बेहद महत्वपूर्ण त्योहार है। संक्रांति का अर्थ है-गति या चाल. जीवन के रूप में हम जिसे भी जानते हैं, उसमें गति निहित है। सौभाग्य से हमसे पहले जो इस दुनिया में आये वे चले गये और जो लोग हमारे बाद आनेवाले हैं, वे हमारे जाने का इंतजार कर रहे हैं। आज के दिन राशिचक्र में महत्वपूर्ण बदलाव होता है। वैसे तो साल भर में कई संक्रांतियां होती हैं, लेकिन दो संक्रातियों का विशेष महत्व है, पहली मकर संक्रांति और दूसरी इससे बिल्कुल उलट जून महीने में होनेवाली मेष संक्रांति। हर बार जब राशि चक्र बदलता है, तो इसे संक्रांति कहा जाता है, इस शब्द का मतलब हमें पृथ्वी की गतिशीलता के बारे में याद दिलाना, और हमें यह बताना है कि हमारा जीवन इसी गतिशीलता पर आधारित और पोषित है। अगर यह गतिशीलता रुक जाये, तो हमारे जीवन से जुड़ा सब कुछ रुक जायेगा। मकर संक्रांति को फसलों से जुड़े त्योहार के रूप में भी जाना जाता है। यही वह समय है, जब फसल तैयार हो चुकी है और हम उसी का उत्सव मना रहे हैं। पशुओं का खेती में एक बड़ा योगदान होता है, इसलिए मकर संक्रांति का अगला दिन उनके लिए होता है। मकर संक्रांति यानी गति का अर्थ ही है, जो चलायमान हो. जबकि निश्चलता का मतलब है जो हमेशा रहे। गतिशीलता का अर्थ है कैद और निश्चलता का मतलब है चेतना। मकर संक्रांति का पर्व यह याद दिलाता है कि गतिशीलता का उत्सव मनाना तभी संभव है, जब आपको अपने भीतर निश्चलता का एहसास हो।
बड़ी ही महत्वपूर्ण है मकर संक्रांति
मकर संक्रांति एक खगोलीय एवं भौगोलिक परिघटना है। सूर्य के उत्तरायण एवं दक्षिणायण की सीमा को संक्रांति (सोलिस्टिक) कहा जाता है। 22 दिसंबर को सूर्य मकर रेखा पर लंबवत होता है। इसके बाद सूर्य की स्थिति उत्तरायण हो जाती है, जिसके बाद से दिन बड़ा होने लगता है और ठंड कम होने लगती है। अर्थात गरमी का संचार बढ़ जाता है। नक्षत्रीय घटना के अनुसार सूर्य जब धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है, तो उसे मकर संक्रांति कहा जाता है। परंपरागत रूप से मकर संक्रांति प्रत्येक वर्ष 14 जनवरी को मनायी जाती है, लेकिन धरती के घूर्णन और परिभ्रमण गति के कारण प्रत्येक 72 वर्ष पर एक दिन का अंतर आ जाता है। वर्ष 2012 में मकर संक्रांति 15 जनवरी को तथा इसके 73 वर्ष पूर्व 13 ‘जनवरी को मनायी गयी थी। उल्लेखनीय है कि मकर संक्रांति हमारे देश में सूर्य पंचांग पर आधारित होती है।
मकर संक्रांति को हमारे देश में कई नामों से जाना जाता है। इसे उत्तर भारत में खिचड़ी, तमिलनाडु में पोंगल, पंजाब व हरियाणा में लोहड़ी तथा असम में बिहू के रूप में मनाया जाता है। इसे अगहनी फसल को काट कर घर ले आने के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। इस उत्सव पर पतंग उड़ाने की भी परंपरा है। इस अवसर पर लोग नदियों, सरोवरों आदि में स्नान करते हैं। मान्यता है कि मकर संक्रांति के दिन गंगा, सरोवरों आदि में स्नान करने से शुद्वता और सात्विकता बढ़ जाती है। उस दिन सूर्य की अलौकिक किरणों से तन और मन की शुद्धि हो जाती है। धर्मशास्त्रों के अनुसार मकर राशि में प्रवेश करते समय सूर्य का सत्व और रज गुण दोनों ही बढ़ जाता है। इस दिन सूर्य की किरणों से हमारे शरीर को बल, स्वास्थ्य और ओज मिलता है।