Thursday, July 3, 2025
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●कुंभ मेला का आयोजन राजा हर्षवर्धन ने आरंभ किया था
●आध्यात्मिकता और परंपरा का अद्भुत संगम महाकुंभ

कुंभ मेला आस्था, परंपरा और हिंदू संस्कृति का संगम है

राकेश बिहारी शर्मा – ‘कुंभ’ संस्कृत का एक शब्द है जिसका अर्थ है, कलश,घड़ा,मटका या प्याला। कुंभ का कल्पित गाथा पुराणों शास्त्र के समुन्द्र मंथन में उल्लेख है। कुंभा मेले शब्द का सबसे पहले ज़िक्र 1695 व 1759 में खुल्सात-उत-तारीख और चाहर गुलशन के हस्तलेख में मिलता है। प्रयाग-दि साइट ऑफ कुंभ मेला के लेखक डीपी दुबे बताते हैं – प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में से किसी में भी प्रयागराज के कुंभ मेले का ज़िक्र नहीं है।

महाकुंभ करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का प्रतीक है। महाकुंभ सिर्फ एक मेला नहीं है बल्कि यह आस्था, परंपरा और हिंदू संस्कृति का संगम है। श्रद्धालुओं के लिए यह एक पवित्र एहसास है। जिसका इंतजार सभी श्रद्धालुओं को बेसब्री से रहता है। समुद्र मंथन के बारे में शिव पुराण, मत्स्य पुराण, पद्म पुराण, भविष्य पुराण समेत लगभग सभी पुराणों में जिक्र किया गया है।

कुंभ की धार्मिक और पौराणिक कथा में अमृत पाने की लालसा में देवताओं और असुरों में युद्ध छिड़ गया। इस छीना-झपती में अमृत की कुछ बूंदें धरती के 4 स्थानों, प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिर गईं। माना जाता है कि तभी से इन चार स्थानों पर हर 12 साल के अंतराल में कुंभ का आयोजन होता है। महाकुंभ की परम्परा कब चली थी, कोई प्रामाणिक इतिहास स्पष्ट नहीं। जो भी है, पौराणिक आरफानों पर आधारित है। मगर करोड़ों देशवासियों ने इसे मान्यता प्रदान की है। इस धार्मिक पर्यटन व आस्था की यात्रा पर हर 12 वर्ष बाद करोड़ों श्रद्धालु पहुंचते हैं।

कुंभ मेले के आयोजन को लेकर कई मान्यताएं :

 

हालांकि, कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य यह भी मिलते हैं जिनसे सिद्ध होता है कि कुंभ का आयोजन राजा हर्षवर्धन के राज्य काल में आरंभ हुआ था। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग जब अपनी भारत यात्रा के बाद उन्होंने कुंभ मेले के आयोजन का उल्लेख किया था। इसी के साथ उन्होंने राजा हर्षवर्धन का भी जिक्र किया है। उनके दयालु स्वभाव के बारे में भी उन्होंने जिक्र किया था। ह्वेनसांग ने कहा था कि राजा हर्षवर्धन लगभग हर 5 साल में नदियों के संगम पर एक बड़ा आयोजन करते थे। जिसमें वह अपना पूरा कोष गरीबों और धार्मिक लोगों को दान में दे दिया करते थे।

प्राचीन शिलालेखों में भी उल्लेख :

कुंभ मेला हमारे देश की एक धरोहर भी है। वैसे तो इस मेले से जुड़े कई रहस्य हैं, लेकिन उनमें से एक सबसे खास यह भी है कि पौराणिक कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश से गिरती बूंदों के कारण कुंभ मेले से जुड़े विशेष स्थलों हरिद्वार, नासिक, उज्जैन और प्रयागराज को विशेष महत्व मिला। वहीं, ऐतिहासिक दृष्टि से महाकुंभ का पहला उल्लेख प्राचीन शिलालेखों में भी मिलता है। आज भी लाखों लोग इस आयोजन से जुड़े कई रहस्यों और तथ्यों से अनजान हैं। जैसे, पहला महाकुंभ मेला कब और कहां आयोजित हुआ था? यह आयोजन किन ज्योतिषीय घटनाओं से जुड़ा है? नागा साधु और शाही स्नान की पंरपरा कैसे शुरू हुई?
महाकुंभ का आयोजन हर 12 साल में होता है और यह मेला विशेष रूप से संगम-तट पर आयोजित किया जाता है, जहां गंगा, यमुना और अदृश्य नदी सरस्वती आकर मिलती हैं। इस अवसर पर करोड़ों श्रद्धालु यहां आते हैं और पवित्र शाही स्नान करके अपने पापों से मुक्ति का एहसास अपने भीतर जीवित रखते हैं, यद्यपि स्नानादि से निवृत्ति के बाद लौटने पर सब पाप-पुण्य पूर्ववत जारी हो जाते हैं। पौराणिक मान्यताओं की मानें तो महाकुंभ मेला की शुरुआत सतयुग से हुई थी। ऐसा कहा जाता है कि इसका आधार समुद्र मंथन की उस कथा में हैं, जहां अमृत की बूंदें चार पवित्र स्थलों प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक पर गिरी थीं।

शंख ने भगवान विष्णु से की ‘कर’ देने की मांग :

पौराणिक कथाओं में महाकुंभ की शुरुआत एक पौराणिक घटना से जुड़ी है। कहते हैं कि भगवान विष्णु को एक बार समुद्र देव से श्राप मिला था। समुद्र देव का एक पुत्र था जिसका नाम शंख था। शंख को समुद्र, पाताल और नागलोक से कर वसूलने की जिम्मेदारी दी गई थी। एक दिन असुरों ने शंख को भड़काया कि वह भगवान विष्णु से भी कर वसूले, क्योंकि उनका राज्य समुद्र के पास ही था। असुरों की बातों में आकर शंख, भगवान विष्णु के पास कर मांगने पहुंच गया। विष्णु भगवान ने उसे समझाने की कोशिश की, लेकिन शंख नहीं माना। बहस के दौरान शंख ने माता लक्ष्मी के बारे में अपमानजनक बातें कह दीं। इससे नाराज होकर भगवान विष्णु ने अपनी गदा से शंख का वध कर दिया।

समुद्र देव का गुस्सा और श्राप :

जब समुद्र देव को अपने पुत्र की मृत्यु की खबर मिली, तो वे बेहद गुस्सा हुए। वे भगवान विष्णु के पास पहुंचे और बिना पूरी बात सुने ही उन्हें श्राप दे दिया। उन्होंने कहा कि मेरे बेटे की मृत्यु देवी लक्ष्मी के कारण हुई है, इसलिए लक्ष्मी जी समुद्र में समा जाएंगी। इसके बाद देवी लक्ष्मी समुद्र में चली गईं।
समुद्र मंथन और लक्ष्मी जी की वापसी :
भगवान विष्णु ने देवी लक्ष्मी को वापस लाने के लिए समुद्र मंथन करवाया। इस मंथन में कई बहुमूल्य चीजें निकलीं, जिनमें देवी लक्ष्मी भी थीं। देवी लक्ष्मी के वापस आने के बाद भगवान विष्णु ने उनसे विवाह किया।

हर 6 साल में अर्द्धकुंभ महाकुंभ :

मेला की ऐतिहासिक शुरुआत को लेकर प्राचीन ग्रंथों में सटीक जानकारी नहीं मिलती है। कई ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है, लेकिन इनमें मेले के पहले आयोजन के समय और स्थान को लेकर स्पष्टता नहीं है। वहीं कुछ विद्वानों का मानना है कि महाकुंभ की परंपरा 850 साल पहले शुरू हुई थी और अब तक हर 12 साल बाद इसका आयोजन प्रयागराज में होता है। वैसे हर 6 साल में अर्द्धकुंभ का आयोजन होता है। इस महाकुंभ मेले का इतिहास आज भी कई रहस्यों से भरा हुआ है। यद्यपि वर्तमान स्वरूप में यह आयोजन 850 साल से भी ज्यादा पुराना है। अगर हम इसकी शुरुआत की बाते करें तो इसका आयोजन सबसे पहली बार आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया था। कुछ कथाओं के अनुसार महाकुंभ मेले का अयोजन समुद्र मंथन के बाद से ही आरंभ हो गया था। जिन स्थानों पर भी समुद्र मंथन से निकले हुए अमृत कलश का अमृत गिरा था, उसी समय से वहां एक बहुत बड़े मेले का आयोजन होने लगा। ऐसी मान्यता है कि उस स्थान की नदियों के जल में भी अमृत है और उसमें स्नान करने वाले अमृत का पान कर लेते हैं और उन्हें मोक्ष मिलता है।

अखाड़ों की भी रखी गई नींव :

समुद्र मंथन के बाद ही गुरु शंकराचार्य और उनके शिष्यों द्वारा संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर शाही स्नान की व्यवस्था की गई थी और तभी से अखाड़ों की नींव भी रखी गई। महाकुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश के साथ हुई, लेकिन इससे जुड़ी एक और कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार जब देवराज इंद्र के पुत्र जयंत कौए के रूप में अमृत कलश लेकर जा रहे थे तो उनकी जीभ पर भी अमृत की कुछ बूंदें लग गई थी। इसी वजह से आज भी कौए की उम्र अन्य पक्षियों की तुलना में लंबी होती है। जब जयंत अमृत कलश लेकर भाग रहे थे तो कुछ बूंदें प्रयागराज, उज्जैन, हरिद्वार और नासिक में गिरीं जिसकी वजह से ये स्थान पवित्र स्थल बन गए और यहां महाकुंभ का आयोजन होने लगा।

प्रयागराज में ही क्यों लगता है महाकुंभ?

प्रयागराज में लगने वाले महाकुंभ का महत्व अधिक माना गया है। दरअसल, यहां तीन पवित्र नदियों गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है। जिस वजह से यह स्थान अन्य जगहों की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है। बता दें सरस्वती नदी लुप्त हो चुकी हैं लेकिन, वह धरती का धरातल में आज भी बहती हैं। ऐसी मान्यता है कि जो व्यक्ति इन तीन नदियों के संगम में शाही स्नान करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए प्रयागराज में इसका महत्व अधिक माना जाता है।

महाकुंभ के इतिहास को लेकर किसने क्या कहा?

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, कुंभ मेले की प्राचीनता को साबित करने के लिए स्कन्द पुराण का हवाला दिया जाता है। मौजूदा जानकारी के अनुसार, स्कंद पुराण हिन्दू धर्म के 18 महापुराणों में से एक प्रमुख पुराण है। इसे भगवान शिव द्वारा रचित माना जाता है और इसका नाम भगवान स्कंद (कुमार, जिन्हें हम कार्तिकेय के नाम से भी जानते हैं) के नाम पर रखा गया है।

वहीं कुछ लोग चीनी तीर्थ यात्री सिलियन त्सांग (ह्वेनसांग) का जिक्र करते हैं, जिन्होंने सातवीं सदी में प्रयाग में एक मेला का वर्णन किया था। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय (BHU) के ज्योतिष विभाग के प्रमुख प्रोफेसर गिरीजा शंकर शास्त्री ने बताया, “किसी भी शास्त्र में आज के कुंभ मेले का सीधे तौर पर उल्लेख नहीं मिलता है। समुंद्र मंथन के बारे में कई ग्रंथों में बताया गया है, लेकिन अमृत के चार जगहों पर गिरने के बारे में नहीं बताया गया है। स्कंद पुराण में कुंभ मेले की उत्पत्ति के बारे में बात है, लेकिन जिन संस्करणों का अब तक अध्ययन किया गया है, उनमें वह संदर्भ नहीं मिलते हैं।”
गोरखपुर की गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “महाकुम्भ पर्व” जिसे दीपकभाई ज्योतिषाचार्य ने लिखा है, उसमें यह दावा किया गया है कि ऋग्वेद में कुम्भ मेले में भाग लेने के फायदों के बारे में बताया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार, कई लोग यह मानते हैं कि 8वीं सदी के हिन्दू दार्शनिक आदि शंकराचार्य ने बताये गए चार स्थायी मेलों की स्थापना की थी। उनके अनुसार, इस मेले के द्वारा हिन्दू संन्यासी और विद्वान मिल सकते थे, विचारों का आदान-प्रदान कर सकते थे और आम लोगों को मार्गदर्शन दे सकते थे।

कैमा मैक्लीन जो ऑस्ट्रेलिया की न्यू साउथ वेल्स विश्वविद्यालय की दक्षिण एशियाई और विश्व इतिहास की सहायक प्रोफेसर हैं, उन्होंने लिखा कि चीनी तीर्थ यात्री ह्वेनसांग ने एक मेले के बारे में बताया था। वह मेला कुंभ था या नहीं, इसे लेकर कोई सबूत नहीं है। आगे कहा, प्राचीन समय में माघ मेले (जो हिन्दू महीने माघ में आयोजित होता था) का आयोजन प्रयाग में होता था, जिसे बाद में शहर में रहने वाले पंडितों ने 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिशों से बचने के लिए “कालातीत” (सदाबहार कुंभ मेले के रूप में नया नाम दे दिया।

रिपोर्ट के अनुसार, सभी इतिहासकार इस बात से सहमति नहीं रखते। प्रोफेसर डीपी दुबे, जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास के प्रोफेसर थे और सोसाइटी ऑफ पिलग्रिमेज स्टडीज के महासचिव हैं – उन्होंने कुंभ मेले पर गहन काम किया है। उन्होंने लिखा कि हरिद्वार का मेला संभवतः पहला मेला था जिसे “कुंभ मेला” कहा गया, क्योंकि इस मेले में बृहस्पति कुंभ राशि में होते हैं। उन्होंने बताया, “कुंभ की शुरुआत गंगा की पूजा से जुड़ी हुई है। पवित्र नदियों के किनारे मेलों का आयोजन करना एक प्राचीन हिंदू परंपरा है। धीरे-धीरे यात्रा करने वाले साधुओं ने चार कुंभ मेले का आयोजन करने का विचार फैलाया। वह जगह जहां साधू और आम लोग इकठ्ठा हो सकते थे।”

प्रोफेसर दुबे ने अपनी किताब ‘कुम्भ मेला, पिलग्रिमेज टू दि ग्रेटेस्ट कॉस्मिक फेयर’ में मुग़ल काल से लेकर संन्यासी अखाड़ों द्वारा रखे गए रिकॉर्ड्स का हवाला देते हुए कई चीज़ों के बारे में लिखा है। “कुंभ मेला बारहवीं सदी के बाद कहीं न कहीं आयोजित होने लगा। इस धार्मिक त्योहार को आयोजित करने की परंपरा भक्ति आंदोलन के दौर में विकसित हुई, जो हिंदू संतों और सुधारकों द्वारा शुरू किए गए सामाजिक-धार्मिक सुधारों का एक आंदोलन था।”

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