Friday, September 20, 2024
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भारतीय राजनीति में जाति बहुत पेचीदा मुद्दा है

भारतीय राजनीति में जाति बहुत पेचीदा मुद्दा है

●वर्तमान राजनीति में कथनी और करनी में अंतर है
●भारतीय राजनीति में जातिवाद कोढ़ है
●सियासत ने बढ़ाई जाति से जाति की खाई
● भारतीय राजनीति में जाति बहुत पेचीदा मुद्दा है

राकेश बिहारी शर्मा…..

भारतीय राजनीति और समाज में जाति बहुत पेचीदा मुद्दा रहा है। जाति व्यवस्था को सामाजिक कोढ़ बताने वालों का मानना था कि विकास और आधुनिकता के आने से जाति व्यवस्था अपने आप टूटती जाएगी। गांधी मानते थे कि अछूतोद्धार के जरिए समाज में बराबरी का संदेश जाएगा। उन्होंने इसकी कोशिश भी की। दूसरी तरफ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर मानते थे कि सामाजिक विकास यात्रा में पीछे छूट गए लोगों को आरक्षण देकर पहले सबल बनाया जाना चाहिए। वह तबका सबल होगा तो जाति व्यवस्था में बराबरी का भाव आएगा। लोहिया सोचते थे कि पिछड़ों को आर्थिक रूप से ताकतवर बनाकर आगे लाया जाए तो सामाजिक समानता का लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। कुछ ऐसी ही सोच दीनदयाल उपाध्याय की भी रही। लेकिन बहुजन आंदोलन के अगुआ कांशीराम की मान्यता रही कि पिछड़ों और दलितों को सत्ता मिले तभी जाति टूटेगी। चारों वैचारिकी के आधार पर देखें तो सामाजिक रूप से जाति टूटती नजर आ रही है, लेकिन जैसे-जैसे आरक्षण की राजनीति आंबेडकर की बुनियादी सोच से आगे बढ़ने लगी, राजनीतिक रूप से जातियां अपने-अपने दायरे में और मजबूत होती गईं। “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” की सोच बढ़ने लगी। इसलिए हर जाति नए सिरे से गोलबंद होने लगी। अपनी राजनीतिक ताकत दिखाने और बढ़ाने के लिए ये जातियां अपने किले को पहले से कहीं ज्यादा मजबूत करने लगीं। वोट बैंक की राजनीति ने इस प्रक्रिया को बढ़ावा दिया। सत्ता के लिए बहुमत हासिल करने के लक्ष्य को लेकर लगातार सक्रिय राजनीति ने जातीय समूहों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश में उनकी मांगों को उछालना शुरू किया। हर राजनीतिक समूह अपने हिसाब से अपनी समर्थक जातियों की राजनीतिक मांगों को जायज ठहराने लगा। इस पूरी प्रक्रिया में सामाजिक रूप से जाति को तोड़ने की सोच पीछे छूटती चली गई। दिलचस्प यह है कि जब कोई जातीय समूह किसी खास राजनीतिक ताकत का साथ छोड़ने लगा तो उसके हक और अधिकारों की मांग उस राजनीतिक ताकत के लिए गौण होने लगी। पूरी भारतीय राजनीति इसी प्रक्रिया के साथ आगे बढ़ रही है। भारतीय संविधान में दलितों और आदिवासी समूहों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करते वक्त आंबेडकर ने इसे अनंतकाल तक चलाने से चेताया था। संविधान में शुरूआती दस साल के लिए ही आरक्षण की व्यवस्था रखी गई थी। लेकिन जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था ना सिर्फ आंबेडकर की सोच से आगे निकल गई है, बल्कि वह अनंतकाल तक चलते रहने के लिए अभिशप्त है। जाति जनगणना की मांग राजनीतिक समूहों द्वारा जातीय समूहों को यह यकीन दिलाने की कोशिश है कि वे उनके लक्ष्य के साथ खड़े हैं। चाहे गांधी रहे हों या आंबेडकर या फिर लोहिया, उनके विचारों और सिद्धांतों का बुनियादी मकसद सत्ता की राजनीति नहीं, सामाजिक समानता के जरिए भारतीय समाज का निर्माण था। लेकिन उनके नाम पर राजनीति करने वाले आधुनिक समूहों के साथ यह बात नहीं दिखती। समाजवादी धारा की मौजूदा राजनीति की प्रभावी ताकतों के पास भारतीय समाज बनाने का कोई ठोस सामाजिक कार्यक्रम नहीं है। उनमें जातीय उन्माद बढ़ाने और फैलाने का भाव ज्यादा नजर आता है। कांग्रेस की राजनीति अतीत में ऐसी अतिवादी नहीं रही है, लेकिन अब उसकी भी राजनीति उसी राह पर चल रही है। गौर करने की बात है कि जिन सवर्ण जातियों के खिलाफ बाकी जातियों को गुस्से से भरने में ये शक्तियां मशगूल हैं, उन्हीं जातीय समूहों में कुछ ऐसी जातियां भी हैं, जिनकी दोयम हैसियत रही है। उदाहरण के लिए, ब्राह्मणों में महाब्राह्मण और शाकद्वीपीय ब्राह्मण, शकलद्वीपीय ब्राह्मण अथवा मग ब्राह्मण समुदाय को लिया जा सकता है, जिनसे सामान्य ब्राह्मण समाज भी परहेज करता रहा है। क्षत्रिय और बनिया के बीच भी ऐसी कई छोटे समुदाय हैं, जो मौजूदा जातीय विमर्श में पिछड़े नजर आते हैं। लेकिन इस राजनीति को इस ओर ध्यान देने की फुरसत नहीं है। बेहतर होता कि यह राजनीति इस नजरिए से भी सोचती। सच तो यह है कि जब भी जाति व्यवस्था कुछ कमजोर पड़ती दिखती है, राजनीति उसकी दरार को और बढ़ाने के लिए आगे आ जाती है। जातीय समूह भी अपने पारंपरिक भाईचारे को भूल अपने पड़ोस के ही जातीय समुदाय के खिलाफ राजनीति की ओर से पकड़ाई गई तलवार लेकर निकल पड़ते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में आखिरकार सामाजिक ताना बाना ही छिन्न-भिन्न होता है। हालांकि हर राजनीतिक समूह इसी ताने-बाने को बनाए रखना अपना उद्देश्य भी बताता है। संसद में अनुराग ठाकुर द्वारा राहुल गांधी की जाति का सवाल उठाने पर उठे राजनीतिक बवाल के बीच कुछ सवाल भी बनते हैं। सवाल यह है कि क्या राहुल गांधी या अखिलेश यादव ने कभी किसी की जाति नहीं पूछी ? अपनी भारत यात्रा के दौरान ही राहुल गांधी रायबरेली पहुंचे तो वहां एक रिपोर्टर ने उनसे कुछ असहज सा सवाल पूछ लिया, जिस पर उन्होंने उससे जाति पूछ ली थी। इसी तरह अखिलेश यादव से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पिछले ही साल लखनऊ में एक रिपोर्टर ने असहज सा सवाल पूछ लिया था, तो उन्होंने भी उस रिपोर्टर को जाति पूछकर जलील किया था। कथनी करनी का फर्क सार्वजनिक जीवन बिताने वालों से उम्मीद की जाती है कि वह दूसरों से जैसे व्यवहार की अपेक्षा करते हैं, वैसा ही व्यवहार खुद भी करें। कोई भी जाति हों या कोई राजनैतिक दल हों उनकी प्रतिक्रियाओं से उनकी चिढ़ दिख रही है। इसे राजनीति में कथनी और करनी के अंतर का एक अच्छा उदाहरण माना जा सकता है।

भारतीय राजनीति में जातिवाद कोढ़ है

भारतीय राजनीति के प्रमुख मुद्दों में जातिवाद सर्वोपरि है, जातिवाद किसी न किसी प्रकार हमारी राजनीति को प्रभावित करती है, संविधान निर्माण के समय से ही इनमें कुछ सुधार किये जा रहे हैं, कभी किन्हीं राजनेताओं के द्वारा तो कभी सुधार प्रस्ताव के द्वारा जातिवाद नामक मानसिकता को सुधारने का प्रयास किया जाता रहा है। इसका गवाह इतिहास स्वयं है, आज राजनीति में या मनुष्य के जीवन को यदि सबसे ज्यादा प्रभावित कुछ करता है, तो वह है- “जातिवाद”। इसकी जड़े प्राचीनकाल से ही इस कदर भारतीय राजनीति में जमी हुई है, कि इसे निकाल फेंकने का प्रयास भर मानव मात्र कर पाया है। तमाम प्रयासों के बावजूद भी भारतीय राजनीति में अपनी जड़ों को जमाये हुए हैं, जो वर्तमान राजनीति में एक भयंकर बीमारी प्रतीत होता है।
हमारे समाज में एक बड़ी ही व्यापक और मुख्य भूमिका अति-पिछड़ों तथा दलितों की है, दलितों का हमारे जीवन में प्राचीन काल से ही विशेष भूमिकाएँ रही हैं, ये समाज के ऐसे वर्ग है, जो अपना एक अलग महत्व रखते हैं, अब प्रश्न ये है, कि ये दलित आये कहाँ से इसकी जड़ में जातिवाद है। भारत में ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व में जातिप्रथा किसी न किसी रूप में व्याप्त है, जो एक गंभीर सामाजिक कुरीति है।
वैदिक काल में वर्ग-विभाजन किया जाता था, जिसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता था। यह जातिगत न होकर गुण एवं कर्म पर आधारित था। समाज चार वर्गों में विभाजित था। ब्राह्मण धार्मिक तथा वेदों से जुड़े कार्य करते थे। क्षत्रिय-देश की रक्षा तथा प्रशासन से जुड़े कार्य करते थे। वैश्य कृषि और व्यापार का कार्य करते थे तथा शूद्र को इन तीनों वर्णों की चाकरी करनी पड़ती थी। वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था में सबसे बड़ा अंतर यह है कि वर्ण का निर्धारण व्यवसाय से होता था, जबकि जाति का निश्चय जन्म से होता था। इस प्रकार जाति-प्रथा भ्रष्ट सिद्ध होती गई।
भारतीय समाज जातिगत भेद-भाव से इस कदर भरा पड़ा है, जो भयानक बीमारियों की तरह हमारे समाज को जकड़े हुए है, इसका निदान खोज पाना कठिन मालुम पड़ता है। यह केवल व्यक्ति-व्यक्ति के बीच खाई पैदा नहीं कर रही, बल्कि राष्ट्रीय एकता के मार्ग में भी बाधा पहुंचाने का कार्य कर रही है।
कई समाजशास्त्रियों का मत है कि “परंपरावादी जाति व्यवस्था ने प्रगतिशील और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को इस तरह प्रभावित किया है, कि ये राजनीतिक संस्थाएँ अपने मूलरूप में कार्य करने में समर्थ नहीं है।” अतः जातिवाद देश समाज और राजनीति के लिए बाधक सिद्ध प्रतीत होती है।
यह दुर्भाग्य की ही तो बात है, कि भारतीय राजनीति में जाति व्यवस्था इस प्रकार की स्थितियों का निर्धारण कर रही है और गरीब हमेशा, दलित अशिक्षित सामंतवादी उपनिवेश बने रहे। जात-पात बहुल हमारे इस समाज से यह अपेक्षा भी कैसे की जा सकती है, कि समाज में व्याप्त यह भयंकर बीमारी अचानक से चमत्कारिक ढंग से ठीक हो जाय। इस सच्चाई को कोई कितना भी नकारे लेकिन आज भी भारतीय जनतंत्र की राजनीति के केन्द्र में नागरिक न होकर जाति ही है। देश के स्वतंत्र होने के बावजूद भी समाज से यह बीमारी दूर नहीं हो सकी है। भारतीय संविधान ने अस्पृश्यता को तो गैरकानूनी घोषित कर दिया, लेकिन अभी भी अस्पृश्यता समाज से मिटी नहीं। इसके फलस्वरूप आज भी समाज का काफी बड़ा हिस्सा मानवाधिकारों से वंचित है।

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