Friday, July 11, 2025
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शिवाजी ने हिन्दुस्थान का माथा हमेशा ऊंचा रखा
●व्यवहारकुशल शिवाजी ने धार्मिक संस्कारों का निर्माण किया
● छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्ध का अविष्कार किया

छत्रपति शिवाजी महाराज की 395 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – राष्ट्र की वास्तविक ताकत अपनी सेना के आकार में नहीं है, बल्कि अपने लोगों की एकता में है।शिवाजी महाराज के साहस, बुद्धिमत्ता और दृढ़ संकल्प ने शक्तिशाली मराठा साम्राज्य की नींव रखी। स्वराज्य (स्व-शासन), न्याय और समावेशिता के उनके आदर्श आज भी पीढ़ियों को प्रेरित करते हैं। हृदय सम्राट संकृति गौरव छत्रपति शिवाजी महाराज एक कट्टर सनातनी थे, वह सभी धर्मों का सम्मान करते थे। उनके राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी। शिवाजी ने कई मस्जिदों के निर्माण के लिए दान भी दिए था। सनातनी पण्डितों की तरह मुसलमान संतों और फ़कीरों को बराबर का सम्मान देते थे। उनकी सेना में कई मुस्लिम सैनिक भी थे। शिवाजी सनातनी संकृति का प्रचार किया करते थे। वह अक्सर दशहरा पर अपने अभियानों का आरम्भ किया करते थे। शिवाजी महाराज का नाम मराठा समाज में ही नहीं, बल्कि समूचे भारतवर्ष में अत्यधिक सम्मान और श्रद्धा से लिया जाता है। उनका जीवन केवल युद्धों और विजयों की गाथा नहीं है, बल्कि एक प्रेरणा है, जो हमें यह सिखाती है कि सच्चे नेता वही होते हैं, जो अपने लोगों के लिए बिना किसी भेदभाव के कार्य करते हैं।

छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म और पारिवारिक जीवन

सनातनी हृदय सम्राट मराठा गौरव भारतीय गणराज्य के महानायक थे छत्रपति शिवाजी महाराज। छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी 1630 को मराठा परिवार में पुणे के पास स्थित शिवनेरी दुर्ग में पिता शाहजी भोंसले और माता जीजाबाई के यहाँ हुआ था। वीर शिवाजी का पूरा नाम शिवाजी राजे भोंसले था। लेकिन लोग श्रद्धा प्रेम पूर्वक उन्हें शिवाजी महाराज के नाम से पुकारते थे। उनके जीवन और विरासत ने भारतीय इतिहास पर गहरी छाप छोड़ी है। छत्रपति शिवाजी महाराज भारत के महान योद्धा और कुशल प्रशासक थे। श्रीमंत छत्रपति वीर शिवाजी पर मुस्लिम विरोधी होने का दोषारोपण किया जाता रहा है, पर यह बिल्कुल गलत है। उनकी सेना में अनेक मुस्लिम नायक एवं सेनानी तथा अनेकों मुस्लिम सरदार और सूबेदार भी थे। भारत में शिवाजी का संघर्ष कट्टरता और उद्दंडता के विरुद्ध था।

शिवाजी का संपूर्ण जीवन राष्ट्रीयता एवं स्वाभिमान के लिए समर्पित था

शिवाजी का संपूर्ण जीवन ही भारत में राष्ट्रीयता एवं स्वाभिमान को विकसित करने के लिए समर्पित रहा। उन्होंने हिंदू संस्कृति की रक्षा करने का प्रयास किया,पर इसके साथ ही उन्होंने दूसरे धर्मों को भी सम्मान दिया। यही कारण था कि शिवाजी ने यह नियम बना दिया था कि उनके सैनिक, धार्मिक एवं पवित्र स्थानों, मस्जिदों, स्त्रियों और कुरान शरीफ को किसी भी प्रकार की हानि नहीं पहुंचायेंगें और न इनका अपमान करेंगे। कुरान की कोई प्रति जब उन्हें मिल जाती थी तो वे उसका पूरी तरह आदर एवं सम्मान करते थे। किसी हिन्दू या मुस्लिम स्त्री को जब बंदी बना लिया जाता था तो शिवाजी उस समय तक उसकी देखरेख करते थे, जब तक कि वह स्त्री उसके परिजनों को सौंप नहीं दी जाती थी। कई मुस्लिम स्त्रियों को उन्होंने मां के संबोधन से संबोधित किया था। उन्होंने मकबरों तथा धार्मिक स्थानों को अनुदान देने की प्रथा को पुन: लागू किया था। यही कारण था कि उनकी सेना में कई मुस्लिम अधिकारी थे, जिसमें मुंशी हैदर, सिद्दी सम्बल, सिद्दी मिसरा दरिया, सांरग, दौलत खां, सिद्दी हलाल और नूर खां के नाम उल्लेखनीय हैं। ये सभी शिवाजी के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं आस्था रखते थे। शिवाजी ने पहली बार भारत में सुव्यवस्थित जलसेना की स्थापना की थी। इस जलसेना का सेनापति भी एक मुस्लिम दौलत खां था।

शिवाजी सर्वधर्म समभाव के हिमायती थे

सर्वधर्म समभाव के साथ-साथ शिवाजी ने हिंदू धर्म में व्याप्त जाति प्रथा के आधार पर भेदभाव की भावना को समाप्त करने का भी प्रयास किया था। उनकी धारणा थी कि व्यक्ति का सम्मान जाति के आधार पर नहीं होना चाहिए। इसलिए जहां उन्होंने ब्राह्राण विद्वानों को सम्मान एवं आदर दिया, वहीं उन्होंने मल्लाह, कोली, बाघर, संधर, एवं अन्य उपेक्षित जातियों को संगठित करके उन्हें भी अपनी सेना में स्थान दिया। अंग्रेज इतिहासकारों ने शिवाजी के जिस संघर्ष को हिंदू-मुस्लिम संघर्ष का नाम दिया, वस्तुत: वह धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध सर्वधर्म समभाव का संघर्ष था।
औरंगजेब ने दिल्ली में सत्ता सम्हालते ही जो आदेश जारी किए थे, उनसे हिंदू ही नहीं अपितु मुसलमानों का स्वाभिमान एवं धार्मिक भावनाएं आहत हो रही थीं। उसने राज दरबार में उपस्थित होने वाले हिन्दुओं द्वारा मस्तक पर तिलक लगाना रोक दिया था, होली के उत्सव एवं जुलूस बंद कर दिए थे, नये मंदिरों के निर्माण पर पाबंदी लगा दी थी, सैकड़ों पुराने मंदिरों को तोड़ दिया गया था। यही नहीं ताजियों के जुलूसों पर रोक लगा दी गई थी, कई सूफियों, दरवेशों और फकीरों को उसने कड़ी सजाएं दी थीं, संगीत तक पर रोक लगा दी गई थी। औरंगजेब की इस कट्टरता से सारा देश त्राहि-त्राहि कर रहा था। औरंगजेब की इसी कट्टरता के विरुद्ध शिवाजी ने जब संघर्ष का शंखनाद किया तो स्वाभिमानी और राष्ट्रीयता के प्रेमी भारतीय, शिवाजी के नेतृत्व में एकजुट हुए, इनमें हिंदू और मुसलमान सभी थे। शिवाजी के औरंगजेब से संघर्ष को हिंदू-मुसलमान संघर्ष निरूपित करने वाले इस तथ्य को भूल जाते हैं कि शिवाजी ने हिंदू राजाओं से भी संघर्ष किया था। इनमें घोरपड़े, मोरे, निम्बालकर, सावंत, जाधव आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। महाराष्ट्र और कर्नाटक के जिन किलों पर उन्होंने अधिकार किया, उनमें से अधिकांश पर हिंदू ही काबिज थे।

शिवाजी आदर्शवादी एवं व्यावहारिक प्रशासक थे

शिवाजी जहां आदर्शवादी थे वहीं वे व्यावहारिक भी थे। वे जानते थे कि कांटे को कांटे से ही निकाला जा सकता है। इसीलिए उन्होंने अपने कपटी और चालाक दुश्मनों से वैसा ही व्यवहार किया। इसके लिए वे कभी झुके, कभी पीछे हटे और कभी-कभी दुश्मनों से ऐसे समझौते भी किये, जिनसे उन्हें अपमान भी झेलना पड़ा। उनके शत्रु न सिर्फ कपटी और चालाक थे, बल्कि वे शक्तिशाली और साधन संपन्न भी थे, ऐसे शत्रुओं से लडऩे के लिए साधनों की व्यवस्था करने हेतु शिवाजी ने शत्रुओं को लूटकर भी धन जमा किया था। शिवाजी ने औरंगजेब को उसी की नीतियों पर चलते हुए झुकने के लिए विवश किया। जब बीजापुर के सरदार अफजल खां ने शिवाजी को धोखे से मारने की कोशिश की तो शिवाजी ने उसे ही मार गिराया। इस विजय से शिवाजी का नाम घर-घर में लोकप्रिय हो गया और बीजापुर की सेना के अफगान सैनिक भी शिवाजी की सेना में शामिल हो गये। वहीं दूसरी ओर औरंगजेब के मामा शाइस्ता खां ने भी जब शिवाजी को धोखा देना चाहा तो शिवाजी ने उस पर सोते समय ही आक्रमण करके उसे मार दिया। शाइस्ता खां का बेटा भी इस हमले में मारा गया।

व्यवहारकुशल शिवाजी ने धार्मिक संस्कारों का निर्माण किया

 

शिवाजी की माता जीजाबाई धार्मिक प्रवृति और सरल स्वभाव तथा निर्भीक वीरंगना नारी थीं। इसी कारण जीजाबाई ने शिवाजी का पालन-पोषण धार्मिक ग्रन्थों तथा अन्य भारतीय वीरात्माओं की कहानियां सुना और शिक्षा देकर निर्भीक और बहादुर बनाया था। शिवाजी के दादा कोणदेव ने सभी तरह की सामयिक युद्ध कौशल आदि विधाओं में भी निपुण बनाया था। वीर शिवाजी को धर्म, संस्कृति और राजनीति की भी उचित शिक्षा दिलवाई थी। उस समय के कई संतों ने शिवाजी को राष्ट्रप्रेम, कर्त्तव्यपरायण एवं कर्मठ योद्धा का प्रशिक्षण दिया।

वीर शिवाजी ने खेल-खेल मे सीखा युद्ध कौशल

बचपन से ही शिवाजी अपने हम-उम्र के बालकों को एकत्रित कर तथा उनका सेनापति बनकर युद्ध करने और किले जीतने का खेल बराबर खेला करते थे। युवावस्था में आते ही उनका खेल वास्तविक कर्म शत्रु बनकर शत्रुओं पर आक्रमण कर उनके किले आदि भी जीतने लगे। जैसे ही सेनानायक शिवाजी ने पुरंदर और तोरण जैसे किलों पर अपना अधिकार जमाया, वैसे ही उनके नाम और कार्य की सभी जगह धूम मचने लगी, यह खबर आग की तरह आगरा और दिल्ली तक जा पहुंची। अत्याचारी किस्म के तुर्क, यवन और उनके सहायक सभी शासक उनका नाम सुनकर ही आतंकित होकर चिंतित होने लगे।

सेनानायक शिवाजी ने विशाल सेना बनाई

सेनानायक छत्रपति वीर शिवाजी महाराज ने अपनी एक स्थायी विशाल सेना बनाई थी। शिवाजी की मृत्यु के समय उनकी सेना में 30-40 हजार नियमित और स्थायी रूप से नियुक्त घुड़सवार, एक लाख पदाति और 1260 हाथी थे। उनके शानदार सशक्त तोपखाने थे, और वीर शिवाजी के सेना में घुड़सवार सेना दो श्रेणियों में बटे हुए थे। बारगीर व घुड़सवार सैनिक थे जिन्हें राज्य की ओर से घोड़े और शस्त्र दिए जाते थे सिल्हदार जिन्हें व्यवस्था आप करनी पड़ती थी। घुड़सवार सेना की सबसे छोटी इकाई में 25 जवान होते थे, जिनके ऊपर एक हवलदार होता था। पांच हवलदारों का एक जुमला होता था। जिसके ऊपर एक जुमलादार होता था। दस जुमलादारों की एक हजारी होती थी और पांच हजारियों के ऊपर एक पंजहजारी होता था। वह सरनोबत के अंतर्गत आता था। प्रत्येक 25 टुकड़ियों के लिए राज्य की ओर से एक नाविक और भिश्ती दिया जाता था। शिवाजी एक धर्मनिरपेक्ष राजा थे और उनकी सेना में 1,50,000 मुस्लिम सैनिक थे। शिवाजी के साम्राज्य में महिलाओं से जुड़े किसी भी अपराध को लेकर कड़े नियम थे। शिवाजी ने काफी कुशलता से अपनी सेना को खड़ा किया था। उनके पास एक विशाल नौसेना भी थी। जिसके प्रमुख मयंक भंडारी थे। शिवाजी ने अनुशासित सेना तथा सुस्थापित प्रशासनिक संगठनों की मदद से एक निपुण तथा प्रगतिशील सभ्य शासन स्थापित किया। उन्होंने सैन्य रणनीति में नवीन तरीके अपनाएं जिसमें दुश्मनों पर अचानक आक्रमण करना जैसे तरीके शामिल थे।

सेनानायक शिवाजी के अभेद्य किले

मराठा सैन्य व्यवस्था के विशिष्ट लक्षण थे क़िले। इतिहासकारों के अनुसार शिवाजी के पास 250 किले थे। जिनकी मरम्मत पर वे बड़ी रकम खर्च करते थे। शिवाजी ने कई दुर्गों पर अधिकार किया जिनमें से एक था सिंहगढ़ दुर्ग, जिसे जीतने के लिए उन्होंने तानाजी को भेजा था। इस दुर्ग को जीतने के दौरान तानाजी ने वीरगति पाई थी। बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गए। अपनी सुरक्षा का पूर्ण आश्वासन प्राप्त कर छत्रपति शिवाजी आगरा के दरबार में औरंगजेब से मिलने के लिए तैयार हो गए। वह 9 मई, 1666 ई को अपने पुत्र शम्भाजी एवं 4000 मराठा सैनिकों के साथ मुगल दरबार में उपस्थित हुए, परन्तु औरंगजेब द्वारा उचित सम्मान न प्राप्त करने पर शिवाजी ने भरे हुए दरबार में औरंगजेब को ‘विश्वासघाती’ कहा, जिसके परिणमस्वरूप औरंगजेब ने शिवाजी एवं उनके पुत्र को ‘जयपुर भवन’ में कैद कर दिया। वहां से शिवाजी 13 अगस्त, 1666 ई को फलों की टोकरी में छिपकर फरार हो गए और 22 सितम्बर 1666 ई. को रायगढ़ पहुंचे थे।

वीर शिवाजी ने गुरिल्ला युद्ध का अविष्कार किया

 

छत्रपति शिवाजी ने ही भारत में पहली बार गुरिल्ला युद्ध का आरम्भ किया था। उनकी इस युद्ध नीती से प्रेरित होकर ही वियतनामियों ने अमेरिका से जंगल जीत ली थी। इस युद्ध का उल्लेख उस काल में रचित ‘शिव सूत्र’ में मिलता है। गोरिल्ला युद्ध एक प्रकार का छापामार युद्ध। मोटे तौर पर छापामार युद्ध अर्धसैनिकों की टुकड़ियों अथवा अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना के पीछे या पार्श्व में आक्रमण करके लड़े जाते हैं।

क्षत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक और मनुवादियों का विरोध

वर्ष 1674 तक शिवाजी के सम्राज्य का अच्छा खासा विस्तार हो चूका था। पश्चिमी महाराष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध किया। क्योंकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे उन्होंने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा। बालाजी राव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया और उन्होंने राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद भी पुणे के ब्राह्मणों ने शिवाजी को राजा मानने से इनकार कर दिया। इसके बाद शिवाजी ने अष्टप्रधान मंडल की स्थापना कि। विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। इस समारोह में लगभग रायगढ़ के 5000 लोग इकट्ठा हुए थे और समारोह में ही वीर शिवाजी महाराज को छत्रपति का खिताब भी दिया गया था।

शिवाजी के प्रशासकीय मदद में अष्टप्रधान मंत्री

शिवाजी महराज ने प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी,जिसे अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था। अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का खयाल रखाता था। सचिव दफ़तरी काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे। सुमन्त विदेश मंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था। एक स्वतंत्र शासक की तरह शिवाजी महराज ने अपने नाम का सिक्का चलवाया। जिसे “शिवराई” कहते थे, और यह सिक्का संस्कृत भाषा में था।

शिवाजी ने हिन्दुस्थान का माथा हमेशा ऊंचा रखा

संस्कृति रक्षक शिवाजी महाराज की मृत्यु लंबी बीमारी के चलते रायगढ़ मराठा साम्राज्य, वर्तमान महाराष्ट्र में 3 अप्रैल 1680 को हुई थी। और उनके साम्राज्य को उनके बेटे संभाजी ने संभाल लिया था। छत्रपति वीर शिवाजी भारतीय अस्मिता और संस्कृति के एक ऐसे पुरोधा थे जिन्होंने हिन्दुस्थान का माथा सदा सर्वदा गर्व से ऊंचा रखा।
छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती मनाने की शुरुआत 19 फरवरी 1870 को पुणे में महात्मा ज्योतिराव फुले ने की थी। ज्योतिराव फुले ने पुणे से करीब 100 किलोमीटर दूर रायगढ़ किला, रायगढ़, मराठा साम्राज्य जो अब महाराष्ट्र में पड़ता है जहाँ शिवाजी महाराज की समाधि की खोज की थी। जो आगे चलकर महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने शिवाजी जयंती मनाने की परंपरा को आगे बढ़ाया।

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