Monday, January 13, 2025
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सादगी और ईमानदारी से लोगों को प्रभावित किया लाल बहादुर शास्त्री

भारत रत्न लाल बहादुर शास्त्री की 59 वीं पूण्यतिथि पर विशेष :● सादगी और ईमानदारी से लोगों को प्रभावित किया लाल बहादुर शास्त्री

 राकेश बिहारी शर्मा- “क्या हुआ गर मिट गये, अपने वतन के वास्ते।
                          बुलबुले कुरबान होते हैं, चमन के वास्ते।।”
भारत की आजादी में अहम भूमिका निभाने वाले शास्त्री जी का पूरा जीवन प्रेरणादायी रहा है। वह देश के एक ऐसे प्रभावी और लोकप्रिय प्रधानमंत्री थे, जिनके आह्वान पर पूरा देश एकजुट हो गया था। आज के भारत के लिए शास्त्री जी के विचारों की प्रासंगिकता ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तित्व के धनी और भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री को उनकी गरिमानुरूप याद नहीं किया जाता। शास्त्री जी भारत के ऐसे कुछ गिने चुने सपूतों में से हैं जिनका भारत की स्वतंत्रता और स्वतंत्र भारत में बड़ी अहम भूमिका रही है। उन्होंने जहाँ भारत की आजादी के लिये जी जान एक किया तो वहीं स्वतंत्र भारत के नव निर्माण में अपना जीवन दिया। ऐसे महान चरित्र के स्वामी थे शास्त्री जी। भारत का यह लाल दो अक्टूबर सन् 1904 को उत्तर प्रदेश स्थित मुगलसराय में जन्मा था। इनके पिता का नाम शारदा प्रसाद श्रीवास्तव था। ये पेशे से अध्यापक थे।
शास्त्री जी को अपने पिता का सानिध्य ज्यादा दिनों तक नही प्राप्त हो सका, मात्र दो वर्ष की अल्पायु में ही उनके पिता का स्वर्गवास हो गया था। इसके बाद वे अपने नाना के यहाँ उन्नाव चले गये। बचपन से ही उन्होंने आर्थिक व सामाजिक समस्याओं का सामना किया। इन्हीं सब के चलते उनके व्यक्तित्व में दृढ़ता एवं जुझारूपन का रुझान बढ़ता चला गया, और जो बाद में उनके व्यक्तित्व का एक प्रमुख पहचान बना। उनका यही आत्मबल एक दिन उन्हें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी से लेकर कांग्रेस महासचिव, रेल मंत्री और प्रधानमंत्री पद तक प्रतिष्ठित किया।
लाल बहादुर ने 1925 में काशी विद्यापीठ से परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया एवं 1927 में इनका विवाह हो गया। शास्त्री जी जब युवा थे तब की एक घटना का उल्लेख है, यह घटना उनके आत्म बल, सहनशीलता दृढप्रतिज्ञ स्वभाव का एक उदाहरण है। वे विद्यालय जाने के नदी पार कर पढ़ने जाते थे, तो इसी क्रम में वे रामनगर गंगातट पर नाव घाट के पास पहुँचे तो उन्होंने देखा कि नाव में बैठने के लिये उनके पास पैसे तो हैं नहीं। नाव वाले ने भी बैठाने से इंकार कर दिया, और तो और अन्य सहपाठी जो नाव में बैठे थे, उन्होंने उनका उपहास किया। पर वे क्रोधित होने की बजाय तुरंत कपड़े उतारकर फिर पुस्तकें व कपड़े एक हाथ में रखकर पानी में कूद पड़े और तैरकर उस पार पहुँच और समय पर ही अपनी उपस्थिति स्कूल में दर्ज कराई। ऐसा एक बार नही अनेक बार हुआ। घर की आर्थिक स्थिति ने भी उन्हें ऐसा करने के लिये मजबूर किया।
जब ललितादेवी के साथ उनका व्याह हुआ तो उन्होंने पहले से ही दहेज एवं विवाह के तामझाम के लिये मना कर दिया था। लड़की वालों के यहां एकदम सादगीपूर्ण विवाह संपन्न हुआ था। शास्त्री जो सर्वगुण सम्पन्न व्यक्ति थे। देश, समाज और जनता के आम जरुरतों उनकी समस्याओं पर ही चिंतन विशेष तौर पर करते थे। ये नेकी के साक्षात् मूर्ति थे। शास्त्री जी अपने किशोरावस्था से ही स्वतंत्रता संग्राम में कुद पड़े थे। स्वतंत्रता संग्राम के उनके साथी गोविंद वल्लभ पंत, रफी अहमद किदवई. डॉ. राजेंद्र प्रसाद, जयनारायण व्यास महावीर त्यागी, कामरेड रामकिशन, आचार्य कृपलानी, मोहम्मद अब्दुल कलाम आजाद, सी. राजगोपालाचारी, गफ्फार खान शंकर राव देव, बाबू पुरुषोत्तम दास टेंडन, बाबा मग सिंह और प्रकाश नारायण आदि थे। इनके साथियों पर भी इनकी छाप का गहरा असर हुआ। गाँधीजी के साथ उन्होंने असहयोग आंदोलन के संचालन पर खूब मेहनत की।
1947 में भारत आजाद हुआ और नेहरूजी भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। 1951 में नेहरूजी जब भारत के प्रधानमंत्री एवं कांग्रेस अध्यक्ष थे, तब उन्होंने शास्त्रीजी को कांग्रेस का महासचिव नियुक्त किया। कुछ समय बाद नेहरु जी ने उन्हें रेल व परिवहन विभाग का मंत्रीपद सौपा। उनके ईमानदारी का परिचय इस पद पर भी देखने को मिला. जबकि एक रेल दुर्घटना की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुये उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया। नेहरू हर जी के लाख कहने पर भी इस्तीफा वापस नहीं लिया। यह था उनका कर्तव्य एवं दायित्व बोध ऐसी नैतिकता और सदभावता आज कहीं देखने को नहीं मिलती। दूसरे आम चुनाव मे लाल बहादुर पुनः भारी मतों से जीतकर संसद में पहुँचे और पुन: परिवहन, यातायात और उद्योग मंत्रालय का कार्यभार सम्हाला।
कुछ समय बाद सन् 1960 में गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के अस्वस्थ हो जाने पर शास्त्री जी को गृह मंत्रालय का भी कार्यभार सम्हालना पड़ा। ऐसे ही जब एक बार किसी कपड़ा मिल का अवलोकन कर रहे थे तव वहाँ के अधिकारियों व कर्मियों ने शास्त्री जी की पत्नी के लिये उन्हें एक उत्तम किस्म की साडी भेंट करनी चाही, तभी उन्होंने उसका दाम पूछा और कहा कि इतने ऊंचे दाम की साड़ी मैं नहीं खरीद सकता, जबकि वे भेंट करना चाहते थे लेकिन उन्होंने उसे वापस कर दिया। क्या ऐसी सादगी, एवं ईमानदारी व भोलापन आज के किसी मंत्री, या अधिकारी में है?
सन 1964 के 27 मई को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद सभी के सामने यह सवाल था कि अब भारत का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा..? आखिरकार सर्वसम्मति से शास्त्रीजी को प्रधानमंत्री बनाया गया। इसका मुख्य कारण था. उनका व्यवहार एवं व्यक्तित्व, चरित्र की सादगी। जिससे सभी प्रभावित थे। निम्न वर्ग के प्रति उनकी हमदर्दी प्रसिद्ध है। उनका लक्ष्य हमेशा भारत से गरीबी और बेरोजगारी दूर करने का रहा। वहीं वे अनुशासन के बड़े पाबंद थे। दूसरों से भी अनुशासन की इच्छा रखते थे। शास्त्री जी के शासनकाल में ही पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया था। वहाँ के शासकों की यह सोच थी कि अब भारत की बागडोर कमजोर प्रधानमंत्री के हाथों में है। इससे अच्छा अवसर हमले के लिये फिर नही मिलेगा। पर उनकी आशाओं के विपरीत पाकिस्तान को मुंह की खानी पड़ी और वह युद्ध में बुरी तरह से परास्त हुआ। इसी युद्ध के दौरान शास्त्री ने भारत के सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिये “जय जवान जय किसान” का जगत विख्यात नारा दिया था।”

लाल बहादुर शास्त्री ने कभी भी परिजनों को सरकारी गाड़ी में नहीं घुमाया

आजकल जन प्रतिनिधियों के परिजनों के साथ उनके करीबी लोग भी उन्हीं के सरकारी गाड़ी में घूमते हैं। एक वाक़या है, लाला लाजपत राय ने आजादी की लड़ाई लड़ रहे गरीब देशभक्तों के लिए सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी बनायीं थी जो गरीब देशभक्तों को पचास रुपये की आर्थिक मदद प्रदान करती थी, एक बार जेल से उन्होंने अपनी पत्नी ललिता जी को पत्र लिखकर पूछा कि क्या सोसाइटी की तरफ से जो 50 रुपये आर्थिक मदद मिलती हैं उन्हें, जवाब में ललिता जी ने कहा हाँ जिसमे से 40 रुपये में घर का खर्च चल जाता है, ये पता चलते ही शास्त्री जी बिना किसी देर किये सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखा कि मेरे घर का खर्च 40 रुपये में हो जाता हैं, कृपया मुझे दी जानी वाली सहयोग 50 रुपये से घटा कर 40 रुपये कर दी जाए ताकि ज्यादा से ज्यादा दूसरे लोगो को भी आर्थिक सहयोग मिल सकें।
आज का युग में तो यदि जन प्रतिनिधियों के सैलरी बढ़ोत्तरी की बात हो तो क्या सत्ता पक्ष, क्या विपक्ष दोनों एक मत हो इस मांग पर अपना समर्थन दे देते हैं, ये नहीं सोचते की वो तो सरकारी पैसे से मौज से जी रहे है और देश का किसान, मज़दूर इत्यादि अभाव की जिंदगी जी रहे हैं।
शास्त्री जी का एक किस्सा और है, शास्त्री जी जब प्रधानमंत्री थे और उन्हें मीटिंग के लिए कहीं जाना था और कपड़े पहन रहे थे तो उनका कुर्ता फटा था जिस पर परिजनों ने कहा आप नया कपड़ा क्यों नहीं ले लेते इस पर पलट कर शास्त्री जी ने कहा की मेरे देश के अब भी लाखों लोगों के तन पर कपड़े नहीं है, फटा हुआ तो क्या हुआ इसके ऊपर कोट पहन लूंगा। ऐसे थे हमारे लाल बहादुर शास्त्री जी, आज के जनप्रतिनधियों, मंत्रियों के सूट लाखों में आते हैं इन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता की देश के लाखों लोगों की वार्षिक आय भी नहीं होगी लाखों रुपये। कथनी और करनी में समानता रखते थे लाल बहादुर शास्त्री, बात सन् 1965 का जब भारत और पाकिस्तान का युद्ध चल रहा था और भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुंच गयी थी। घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिए कुछ समय के लिए युद्धविराम की अपील की उस समय हम अमेरिका की पीएल-480 स्कीम के तहत हासिल लाल गेहूं खाने को बाध्य थे हम। अमेरिका के राष्ट्रपति ने शास्त्री जी को कहा कि अगर युद्ध नहीं रुका तो गेहूं का निर्यात बंद कर दिया जाएगा। फिर, शास्त्री जी ने कहा- बंद कर दीजिए, और फिर अक्टूबर 1965 में दशहरे के दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में शास्त्री जी ने देश की जनता को संबोधित किया। उन्होंने देशवासियों से एक दिन का उपवास रखने की अपील की और साथ में खुद भी एक दिन उपवास का पालन करने का प्रण लिया और देश के सीमा के रक्षक जवान और देश के अंदर अन्नदाता के लिए “जय जवान जय किसान” का नारा दिया था। कम उम्र में ही पढ़ाई छोड़ देश की आजादी की मुहिम से जुड़े लाल बहादुर शास्त्री आज न सिर्फ एक कुशल नेता माने जाते हैं, बल्कि देश की आजादी में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका के लिए भी जाने जाते हैं। उनका पूरा जीवन हर व्यक्ति के लिए एक प्रेरणा रहा है। सादगी और ईमानदारी से अपना जीवन जीते हुए उन्होंने न सिर्फ कई बड़े काम किए, बल्कि अपने विचारों से लोगों को काफी प्रभावित भी किया।
10 जनवरी 1966 को ताशकंद में भारत के प्रधानमंत्री शास्त्री जी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के बीच बातचीत करने का समय निर्धारित थी। लाल बहादुर शास्त्री और अयूब खान तय किये गये निर्धारित समय पर मिले। बातचीत काफी लंबी चली और दोनों देशों के बीच शांति समझौता भी हो गया। ऐसे में दोनों मुल्कों के शीर्ष नेताओं और प्रतिनिधि मंडल में शामिल अधिकारियों का खुश होना उचित था। लेकिन उस दिन की रात शास्त्री जी के लिए मौत बनकर आई। 10-11 जनवरी के रात में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की संदिग्ध परिस्थितों में मौत हुई। ताशकंद समझौते के कुछ घंटों बाद ही भारत के लिए सब कुछ बदल गया। विदेशी धरती पर संदिग्ध परिस्थितियों में भारतीय प्रधानमंत्री की मौत से सन्नाटा छा गया। शास्त्री जी की मौत के बाद तमाम सवाल खड़े हुए, उनकी मौत के पीछे साज़िश की बात भी कही जाती है, क्योंकि, शास्त्री जी की मौत के दो अहम गवाह उनके निजी चिकित्सक आरएन चुग और घरेलू सहायक रामनाथ की सड़क दुर्घटनाओं में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हुई तो यह रहस्य और गहरा हो गया।
वर्तमान में कोई भी राजनीतिज्ञ शास्त्रीजी के दिखाये गये रास्तों पर नहीं चलना चाहता। शास्त्री जी सादगी, ईमानदारी दायित्वबोध, जनता से प्रत्यक्ष संबंध एवं दृढ़ता आज के असंयमित अशिष्ट अलोकतांत्रिक, स्वार्थी और पश्चिमी सभ्यता की ओढने वाले हमारे देश के कर्णधारों को रास नहीं है। अभी भी हमारे नेता मंत्री एवं अधिकारी उनके बताये मार्ग पर चले तो देश विकास की ऊंचाइयों और नैतिकता को स्पर्श कर लेगा।

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