पानी मूल्यवान राष्ट्रीय संपत्ति है, इसे सभी को मिलकर बचाना चाहिए
●पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरै, मोती मानुष चून।।
●हम अपनी व्यक्तिगत सोच के तरीकों में बदलाव लाकर पानी बचा सकते हैं
लेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
जल एक अनमोल संसाधन है जो मनुष्य को प्रकृति से विरासत में मिला है। मनुष्य भोजन के बिना कुछ दिनों तक जीवित रह सकता है। लेकिन इंसान पानी के बिना अपना जीवन नहीं जी सकता। पानी की एक-एक बूंद महत्वपूर्ण है। कहा जा रहा है, जल ही जीवन है। भारत सहित दुनिया भर के कई देश जल संकट से परेशान हैं। अभी यह संकट कुछ राज्यों के कुछ हिस्सों में है। अनुमान है कि आने वाले समय में इसका दायरा और अधिक बढ़ेगा। पानी के वास्तविक मूल्य को समझने का दिन अब आ गया है, पानी बचाने के लिए लोगों को जागरूक होना होगा। पानी के महत्व को घर-घर बताने और जल संरक्षण के विषय पर चर्चा कर और समय रहते सचेत हो जाना है। देश के आँकड़े बताते हैं कि विश्व के 1.6 अरब लोगों को पीने का शुद्ध पानी नही मिल रहा है। पानी की इसी जंग को खत्म करने और इसके प्रभाव को कम करने के लिए विश्व सहित भारत में कई तरह के आंदोलन चल रहे हैं। लोगों में जल के संरक्षण और रखरखाव पर जागरुकता फैलाने का कार्य किया जा रहा है। पिछले दिनों कई जल योद्धाओं ने चेतावनी दी है कि विश्व के अनेक हिस्सों में पानी की भारी समस्या है और इसकी बर्बादी नहीं रोकी गई तो स्थिति और विकराल हो जाएगी क्योंकि भोजन की मांग और जलवायु परिवर्तन की समस्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है।
प्रकृति जीवनदायी संपदा जल हमें एक चक्र के रूप में प्रदान करती है, हम भी इस चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। चक्र को गतिमान रखना हमारी जि़म्मेदारी है, चक्र के थमने का अर्थ है, हमारे जीवन का थम जाना। प्रकृति के ख़ज़ाने से हम जितना पानी लेते हैं, उसे वापस भी हमें ही लौटाना है। हम स्वयं पानी का निर्माण नहीं कर सकते, अतः प्राकृतिक संसाधनों को दूषित न होने दें और पानी को व्यर्थ न गंवाए यह प्रण लेना है। धरातल पर तीन चैथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही है। उस सीमित मात्रा के पानी का इंसान ने अंधाधुध दोहन किया है। नदी, तालाबों और झरनों को पहले ही हम कैमिकल की भेंट चढ़ा चुके हैं, जो बचा खुचा है उसे अब हम अपनी अमानत समझ कर अंधाधुंध खर्च कर रहे हैं।
संसार इस समय जहां अधिक टिकाऊ भविष्य के निर्माण में व्यस्त हैं वहीं पानी, खाद्य तथा ऊर्जा की पारस्परिक निर्भरता की चुनौतियों का सामना हमें करना पड़ रहा है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुद्ध पानी तक पहुंच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई, संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य तक पहुंचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं। एक पीढ़ी से कुछ अधिक समय में दुनिया की आबादी के 60 प्रतिशत लोग कस्बों और शहरों में रहने लगेंगे और इसमें सबसे अधिक बढ़ोतरी विकासशील देशों में शहरों के अंदर उभरी गंदे बस्तियों तथा झोपड़-पट्टियों के रूप में होगी।
भारत में शहरीकरण के कारण अधिक सक्षम जल प्रबंधन तथा समुन्नत पेय जल और (सैनिटेशन) सफ़ाई व्यवस्था की जरूरत पड़ेगी। क्योंकि शहरों में अक्सर समस्याएं विकराल रूप धारण कर लेती हैं, और इस समय तो समस्याओं का हल निकालने में हमारी क्षमताएं बहुत कमजोर पड़ रही हैं।
जिन लोगों के घरों या नजदीक के किसी स्थान में पानी का नल उपलब्ध नहीं है ऐसे शहरी बाशिंदों की संख्या विश्व परिद्रश्य में पिछले दस वर्षों के दौरान लगभग ग्यारह करोड़ चालीस लाख तक पहुंच गई है, और साफ-सफाई की सुविधाओं से वंचित लोगों की तादाद तेरह करोड़ 40 लाख बतायी जाती है। बीस प्रतिशत की इस बढ़ोतरी का हानिकारक असर लोगों के स्वास्थ्य और आर्थिक उत्पादकता पर पड़ा है। लोग बीमार होने के कारण काम नहीं कर सकते।
भारत में विश्व की लगभग 16 प्रतिशत आबादी निवास करती है। लेकिन, उसके लिए मात्र 4 प्रतिशत पानी ही उपलब्य है। विकास के शुरुआती चरण में पानी का अधिकतर इस्तेमाल सिंचाई के लिए होता था। लेकिन, समय के साथ स्थिति बदलती गयी और पानी के नये क्षेत्र-औद्योगिक व घरेलू-महत्वपूर्ण होते गये। भारत में जल संबंधी मौजूदा समस्याओं से निपटने में वर्षाजल को भी एक सशक्त साधन समझा जाए। पानी के गंभीर संकट को देखते हुए पानी की उत्पादकता बढ़ाने की जरूरत है। चूंकि एक टन अनाज उत्पादन में 1000 टन पानी की जरूरत होती है और पानी का 70 फीसदी हिस्सा सिंचाई में खर्च होता है, इसलिए पानी की उत्पादकता बढ़ाने के लिए जरूरी है कि सिंचाई का तरीका बढ़ाया जाए। यानी कम पानी से अधिकाधिक सिंचाई की जाए। अभी होता यह है कि बांधों से नहरों के माध्यम से पानी छोड़ा जाता है, जो किसानों के खेतों तक पहुंचता है। जल परियोजनाओं के आंकड़े बताते हैं कि छोड़ा गया पानी शत-प्रतिशत खेतों तक नहीं पहुंचता। कुछ पानी रास्ते में भाप बनकर उड़ जाता है, कुछ जमीन में रिस जाता है और कुछ बर्बाद हो जाता है।
पानी का महत्व भारत के लिए कितना है यह हम इसी बात से जान सकते हैं कि हमारी हिंदी भाषा में पानी के कितने अधिक मुहावरे हैं। अगर हम इसी तरह कथित विकास के कारण अपने जल संसाधनों को नष्ट करते रहें तो वह दिन दूर नहीं, जब सारा पानी हमारी आँखों के सामने से बह जाएगा और हम कुछ नहीं कर पाएँगे।
जल नीति के विश्लेषक सैंड्रा पोस्टल और एमी वाइकर्स ने पाया कि बर्बादी का एक बड़ा कारण यह है कि पानी बहुत सस्ता और आसानी से सुलभ है। कई देशों में सरकारी सब्सिडी के कारण पानी की कीमत बेहद कम है। इससे लोगों को लगता है कि पानी बहुतायत में उपलब्ध है, जबकि हकीकत उलटी है।
इस निराशाजनक परिदृश्य में कुछ उदाहरण उम्मीद जगाने वाले हैं। पहला उदाहरण चेन्नई का है, जहां अनिवार्य जल संचय के लिए एक सुस्थापित प्रणाली काम कर रही है। दूसरा उदाहरण कर्नाटक के हुबली-धारवाड़ में विश्व बैंक द्वारा समर्थित सफल योजना का है। यहां बेहतर ढांचागत संरचना, प्रभावी आपूर्ति तंत्र और वसूली के जरिए वाजिब कीमत पर 24 घंटे पानी की आपूर्ति की जा रही है।
समय आ गया है जब हम वर्षा का पानी अधिक से अधिक बचाने की कोशिश करें। बारिश की एक-एक बूंदे कीमती है। इन्हें सहेजना बहुत ही आवश्यक है। यदि अभी पानी नहीं सहेजा गया, तो संभव है पानी केवल हमारी आँखों में ही बच पाएगा। पहले कहा गया था कि हमारा देश वह देश है जिसकी गोदी में हज़ारों नदियां खेलती थी, आज वे नदियां हज़ारों में से केवल सैकड़ों में ही बची हैं। कहाँ गई वे नदियां, कोई नहीं बता सकता। नदियों की बात छोड़ दो, हमारे गांव-मोहल्लों से तालाब आज गायब हो गए हैं, इनके रख-रखाव और संरक्षण के विषय में बहुत कम कार्य किया गया है।
ऐसा नहीं है कि पानी की समस्या से हम जीत नहीं सकते। अगर सही ढ़ंग से पानी का सरंक्षण किया जाए और जितना हो सके पानी को बर्बाद करने से रोका जाए तो इस समस्या का समाधान बेहद आसान हो जाएगा। लेकिन इसके लिए जरुरत है जागरुकता की। एक ऐसी जागरुकता की जिसमें छोटे से छोटे बच्चे से लेकर बड़े-बूढ़े भी पानी को बचाना अपना धर्म समझें।
वर्ष 1987 की राष्ट्रीय जलनीति के अनुसार जल एक प्रमुख प्राकृतिक संसाधन, मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता और मूल्यवान राष्ट्रीय संपत्ति है। इसके बाद जल संसाधनों पर संवैधानिक अधिकार केंद्र सरकार का नहीं बल्कि राज्य सरकारों का है और अधिकतर राज्य राष्ट्रीय जलनीति लागू नहीं कर सके हैं। पानी मानव जीवन के लिये एक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य अंग है। प्रत्येक व्यक्ति को एक न्यूनतम मात्रा में पानी चाहिए ही लेकिन अगर देखा जाए तो यह न्यूनतम स्तर किसी निश्चित मात्रा में निर्धारित नहीं किया जाना चाहिए। एक सर्वेक्षण के अनुसार डेनमार्क (ग्रीनलैण्ड) में 1980 में प्रतिव्यक्ति जल का उपयोग 238 क्यूबिक मीटर था जो 2000 में कम हो करके 198 क्यूबिक मीटर रह गया। इसका यह मतलब तो नहीं है कि वहाँ के निवासियों ने नहाना या पानी पीना कम कर दिया। इसका कारण यह है कि वहाँ की जनता को पानी निःशुल्क नहीं मिलता है। इसलिये वे जागरूक हुए, पानी बचाने नये-नये उपाय खोजे और पानी के उपभोग पर अंकुश लगाया। इसी तरह की कुछ पहल करने की जरूरत हमारे यहाँ भी है। गांव और शहरों में पानी का मीटर लगाया जाना चाहिए। यह व्यवस्था अमीरों और गरीबों के लिये अलग-अलग होनी चाहिए। क्योंकि कुछ लोग इसका विरोध करते हैं। अगर आप यह सोचते हो कि पानी का मीटर लगाना या उसकी रीडिंग करना बहुत कठिन कार्य है तो इस भ्रम से बाहर आइये। वर्तमान दौर में जब मोबाइल और टेलीफोन के एक-एक कॉल की अलग-अलग रीडिंग की जा सकती है तो प्रत्येक घर में भी खर्च होने वाले एक-एक बूँद पानी का हिसाब लगाया जा सकता है। अन्तर इतना ही है कि अगर यह सब कुछ तकनीकी के माध्यम से नहीं हो सकता तो हमें व्यक्तिगत रूप से अपनी सोच के तरीकों में बदलाव लाना होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो भविष्य में आने वाली परिस्थितियों के लिये तैयार रहें। यह एक निर्विवाद सत्य है कि पानी एक बुनियादी और अपरिहार्य आवश्यकता है। इसके आगे राजनीति, दर्शन और अध्यात्म सब गौण पड़ जाते हैं। शताब्दियों पूर्व रहीम खान ने इसी तथ्य को इन मार्मिक शब्दों में रेखांकित किया था।
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न ऊबरै, मोती मानुष चून।।
ये पंक्तियाँ न सिर्फ देशवासियों बल्कि समस्त विश्ववासियों पर लागू होती हैं। असल में आज सारे विश्व के सामने पानी की विकट समस्या मुँह बाए खड़ी है कुछ क्षेत्रों में तो यह आशंका व्यक्त की गई है कि अगर अब कोई विश्व-युद्ध हुआ तो यह पेट्रोल की आपाधापी के कारण नहीं, बल्कि पानी के अभाव के कारण होगा। पेट्रोल की कमी से मात्र मूल्य ही बढ़ेंगे, लेकिन पानी की कमी कहर ढहाएगी। राष्ट्रों के बीच पानी के अभाव से उत्पन्न छटपटाहट कभी भी हिंसक रूप ले सकती है। हमारे मनीषी कहा करते थे कि पानी, हवा और प्रकाश ईश्वर की देन है। इन पर नियंत्रण नहीं होना चाहिए। भारत में तो पानी पिलाना पुण्य माना जाता रहा है। निर्जला एकादशी, सजला हो उठती है। लेकिन इस नजरिये को नजर लगती जा रही है। उल्टा ऐसा जमाना आने वाला है जब पानी के लिये न सिर्फ लोगों में छीना झपटी होगी, बल्कि देश-देश में पानी के लेने-देने के लिये नये विवाद उठ खड़े होंगे। वह दिन दूर नहीं जब पानी के स्रोतों और जलमार्गों पर कब्जे के लिये देश एक-दूसरे के खिलाफ उठ खड़े होंगे।
स्वीडन में आयोजित जल सम्मेलन में इस तथ्य को चिंताजनक बताया गया है कि एशिया महाद्वीप के किसानों ने कुओं के माध्यम से जल निष्कासित करके इस महाद्वीप के भूमिगत जल संसाधन को प्रायः समाप्त कर दिया है। जिससे आने वाले दशकों में अकाल पड़ने की सम्भावना काफी बढ़ गई है। टाटा एनर्जी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने अपने अध्ययन में यह संकेत दिया है कि भारत में गुजरात के मेहसाणा और तमिलनाडु के कोयम्बटूर जिलों में भूजल स्रोत स्थाई तौर पर सूख चुके हैं। ऐसा भी अनुमान लगाया गया है कि इन राज्यों के 95 प्रतिशत से ज्यादा क्षेत्रों में भूमिगत जलस्तर तेजी से घट रहा है, परिणामतः डार्क जोन एरिया में वृद्धि होती जा रही है। आज देश के 50 प्रतिशत जिले पानी की दृष्टि से सूखे क्षेत्रों की श्रेणी में शामिल हैं। यही नहीं बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, महाराष्ट्र व पंजाब में भी भूजल स्तर 40 प्रतिशत तक नीचे चला गया है जिससे इन प्रदेशों के भूखंड रेगिस्तान में तब्दील होते जा रहे हैं। भूजल के अति दोहन से राजस्थान की राजधानी जयपुर के रामगढ़ बाँध तथा मावड़ा में तो धरती तक फटने लगी है। वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि जयपुर में आने वाले पाँच दस वर्षों में तथा सम्पूर्ण राजस्थान में 2025 के बाद भूजल भंडार खत्म हो जायेंगे। इस चेतावनी का मुकाबला करने के लिये अभी से वैकल्पिक उपायों की खोज करते हुए ठोस व रचनात्मक कार्यनीति बनाने व क्रियान्वित करने की आवश्यकता है।
●जब तक जल सुरक्षित है,तब तक कल सुरक्षित है।
●हर बच्चा, बुड्ढा और जवान, पानी को बचाकर बने महान।
●आज नहीं बचाओगे, तो कल बोतल में बंद जल पाओगे।