महाकवि सूरदास की जयंती पर विशेष :● सूरदास ब्रजभाषा के बाल्मीकि माने जाते हैं
● सूरदास बाल मनोविज्ञान के गहरे पारखी थेलेखक :- साहित्यकार राकेश बिहारी शर्मा, महासचिव शंखनाद साहित्यिक मंडली
सूर-सूर तुलसी शषी, उद्गन केशव दास। अब के कवि खदोत सम, जहं-तहं करत प्रकाश।। हिन्दी साहित्य में भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि महात्मा सूरदास हिंदी साहित्य के सूर्य माने जाते हैं। सूरदास 16 वीं सदी के भक्ति कवि और गायक थे। सूरदास ने सनातनी धर्म की रक्षा हेतु अनेकों प्रयास किए। इस लड़ाई में उनका एकमात्र हथियार भक्ति था। कृष्ण भक्ति शाखा के प्रमुख कवियों और लेखकों में सूरदास जी को एक महत्वपूण स्थान प्राप्त है। सूरदास जी श्री कृष्ण के परम भक्तों में से एक थे। इसलिए हर साल इस दिन को सूरदास जयंती के रूप में मनाया जाता है। इस बार सूरदास जयंती 12 मई 2024 को है। भक्ति धारा के महान कवि सूरदास की जन्म तिथि और जन्मस्थान को लेकर साहित्यकारों व इतिहासकारों में काफी मतभेद है। फिर भी धार्मिक ग्रंथों से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि महाकवि सूरदास का जन्म साल 1535 में वैशाख शुक्ल पंचमी को रुनकता नामक गांव में हुआ था। यह गांव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है। उनके पिता का नाम रामदास और माता का नाम जमुनादास था। वह भी एक गीतकार थे। कहा जाता है कि सूरदास जन्मांध थे, पर इसका भी कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलता।
कुछ लोगों का कहना है कि वह जन्म से अंधे थे, लेकिन कुछ को मानना है कि वह जन्म से अंधे नहीं थे। उनको हिंदी साहित्य में सूर्य की उपाधि दी गई है। सूरदास जी ने भगवान श्रीकृष्ण का गुणगान करते हुए सूर सारावली, सूरसागर, साहित्य लहरी जैसी महत्वपूर्ण रचनाएं की थी। धार्मिक मान्यता है कि सूरदास जी कृष्णभक्ति के चलते उन्होंने महज 6 साल की उम्र में अपने पिता की आज्ञा लेकर घर छोड़ दिया था। इसके बाद से ही वे युमना तट के गौउघाट पर रहने लगे। कहते हैं जब वह भगवान कृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन धाम की यात्रा पर निकले तो उनकी मुलाकात बल्लभाचार्य से हुई। महाकवि सूरदास ने बल्लभाचार्य से ही कृष्णभक्ति की दीक्षा प्राप्त की। महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीत हर किसी को मोहित करते हैं। उनकी पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। साहित्यिक हलकों में इस बात का जिक्र किया जाता है कि अकबर के नौ रत्नों में से एक संगीतकार तानसेन ने सम्राट अकबर और महाकवि सूरदास की मथुरा में मुलाकात भी करवाई थी। सूरदास बाल मनोविज्ञान के गहरे पारखी थे। उन्होंने बालक कृष्ण की सुन्दरता का तो वर्णन किया ही है, उसके साथ बालकों की चेष्टाओं, उनके स्वभाव, उनकी रूचि प्रवृत्ति आदि का भी इतना सटीक और मार्मिक वर्णन किया है कि इस क्षेत्र में विश्व का कोई कवि उनकी बरबरी नहीं कर सकता है। सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है। इन रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस शामिल है। सूरदास ने अपनी कल्पना के माध्यम से कृष्ण के अदभुत बाल्य स्वरूप, उनके सुंदर रुप, उनकी दिव्यता वर्णन किया है। इसके अलावा सूरदास ने उनकी लीलाओं का भी वर्णन किया है। सूरदास की रचनाओं में इतनी सजीवता है, जैसे लगता है उन्होंने समूची कृष्ण लीला अपनी आंखों से देखी हो। महाकवि सूरदास को जन्मांध बताया जाता है, लेकिन जो उन्होंने देखा वो कोई न देख पाया। उनका संपूर्ण जीवन श्रीकृष्ण की भक्ति में ही बीता। उन्हें महाकवि की उपाधि प्राप्त हुई। उन्होंने पांच ग्रंथों की रचना की। सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी, नल दमयंती, ब्याल्हो। इन पांच रचनाओं में से उनकी तीन रचना ही अभी तक प्राप्त हुई हैं। सूरसारावली सूरदास का एक प्रमुख ग्रंथ है। इसमें कुल 1107 छंद हैं। कहते हैं कि सूरदास जी ने इस ग्रंथ की रचना 67 साल की उम्र में की थी। यह पूरा ग्रंथ एक ‘वृहद् होली’ गीत के रूप में रचा गया था। इस ग्रंथ में भी कृष्ण के प्रति उनका अलौकिक प्रेम दिखता है। साहित्यलहरी भी सूरदास का अन्य प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है। ऐसा कहा जाता है कि सूरदास जी ने हजारों से अधिक रचनाओं का निर्माण किया, जिनमें से 8,000 अभी भी जीवंत है। सूरदास, ब्रजभाषा के बाल्मीकि माने जाते है। ब्रजभाषा का जैसा मधुर, समर्थ और प्रांजल प्रवाह सूर की रचनाओं में दिख पड़ता है, वह अभूतपूर्व है। सूरदास की साहित्यिक ब्रजभाषा में यत्र-तत्र फारसी और संस्कृत के शब्दों का समावेश भी हुआ है। सूरदास जी ने ही सर्वप्रथम ब्रजभाषा के साहित्यिक रूप का प्रयोग किया है। महाकवि सूरदास जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने काव्य में प्रयुक्त भाषा को इतना सुंदर, मधुर और आकर्षक बना दिया कि कई सैकड़ों वर्ष तक उत्तर-पश्चिम भारत की कविता का सारा राग-विराग, प्रेम-प्रतीति, भजन-भाव उसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त हुए हैं। सूरदास जी को वात्सल्य रस का सम्राट माना जाता है। उन्होंने वात्सल्य रस को आधार बनाकर श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का मनोहारी चित्रण किया। वात्सल्य रस उन्हीं की खोज है। उन्होंने अपने ग्रंथों की रचना बृज भाषा में की। उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है। 1 अक्टूबर 1952 को भारतीय डाक विभाग द्वारा सूरदास पर एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया है। कहा जाता है कि सूरदास 100 वर्ष से अधिक उम्र तक जीवित रहे.