राकेश बिहारी शर्मा- भगत सिंह आज भी अपने विचारों के माध्यम से जीवित हैं, उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। आज 23 मार्च यानि देश को आजाद कराने का सपना दिखाने वाले तीन वीर सपूतों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे कर आजादी के हवन कुंड को पवित्र करते हुए फांसी के फंदे को चूम लिया था। यह दिन ना केवल भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव तीनों देशभक्त वीर सपूतों को भी भावविभोर होकर श्रद्धांजलि देने के लिए है, बल्कि उनके विचारों को याद करने और समझने के लिए भी है। जिन विचारों के कारण भारत की हर माता भगत सिंह जैसा पुत्र प्राप्त करने की प्रार्थना ईश्वर से करती थी। भगतसिंह मात्र 23 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही युगपुरुष बन गए। अपने बलिदान से क्रांति के प्रतीक बनकर देश भर के युवकों को एक दिशा दे गए इतिहास में एक बेजोड़ उदाहरण प्रस्तुत कर गए। अपने रक्त से स्वतंत्रता के वृक्ष को सींचकर ऐसा मजबूत बना गए कि फिर क्रांति को रोकना अंग्रेज सरकारके बस की बात न रही। भले ही वे स्वयं अपनी आंखो से स्वतंत्र भारत को न देख सके, लेकिन उनका अनुपम बलिदान इतिहास की धरोहर बन गया। आज भी जब हम इन्कलाब जिंदाबादका नारा सुनते हैं तो भगत सिंह हमारे दिल-दिमाग पर छा जाते हैं।हमारी भारत भूमि वीरों की भूमि रही है। इस भूमि में ऐसे वीरों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपने देश एवं समाज के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया। ऐसे वीर शिरोमणियों में से एक अमर क्रांतिकारी वीर थे- शहीद भगत सिंह’, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में अपने प्राणों का बलिदान हंसते-हंसते दे दिया। देश के इस महान् क्रांतिकारी ने न केवल फांसी को गले लगाया, वरन् अन्य नवयुवकों को भी राष्ट्रीयता का ऐसा अजस्त्र प्रेरणा-स्त्रोत दिया कि उनके पीछे-पीछे वे भी आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ कुरबान करने हेतु कूद पड़े। इतनी कम अवस्था में अंग्रेजों के नाकों दम भरने वाले इस क्रांतिकारी सिक्ख का नाम विश्व के इतिहास में सदा अमर रहेगा। आज हम जिस आजादी के साथ सुख-चैन की जिन्दगी गुजार रहे हैं, वह असंख्य जाने-अनजाने देशभक्त शूरवीर क्रांतिकारियों के असीम त्याग, बलिदान एवं शहादतों की नींव पर खड़ी है। ऐसे ही अमर क्रांतिकारियों में शहीद भगत सिंह शामिल थे, जिनका नाम लेने मात्र से ही सीना गर्व एवं गौरव से चौड़ा हो जाता है। इस देश के शहीद न तो हिन्दू थे, न मुस्लिम थे, न सिख थे, न ईसाई थे, न अगड़े थे, न पिछड़े थे, न दलित थे न ही अन्य किसी जाति या धर्म के थे। उनकी एक ही पहचान थी उनका ‘भारतीय’ होना। उनका एक ही परिवार था–‘भारत’। उनका एक ही उद्देश्य था–‘भारत माता की आज़ादी-रक्षा’। उनका एक ही सपना था–‘भारत माता का सम्मान पूरा विश्व करे’। वो भारत माता की सच्ची संतानें अपने इस पहचान, परिवार, उद्देश्य एवं सपने के लिए शहीद हो गए लेकिन हमने क्या किया ? आज हमारे बीच ऐसे कितने लोग हैं जो अपने दिल पर हाथ रखकर ये बोल सकते हैं की उन्होंने एक भी ऐसा काम सच्चे दिल के साथ किया जिस से की इन शहीदों की कुर्बानी व्यर्थ साबित न हो ? हर साल 23 मार्च को तीन शहीदों की याद में शहीदी दिवस मनाया जाता है। उन्होंने कहा कि हम भगत सिंह बन पाएं या ना बन पाएं, लेकिन भगत सिंह जैसा देश प्रेम, देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा जरूर लोगों के दिलों में हो।
जन्म व शिक्षा-दीक्षा एवं राजनीति में सक्रियता
अमर शहीद भगत सिंह का जन्म 27 सितम्बर 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर के बंगा गांव में हुआ था। उनके पिता किशन सिंह एवं छोटे चाचा स्वर्ण सिंह भी आजादी की लड़ाई लड़ने वाले गर्म दल के क्रांतिकारी नेताओं में गिने जाते थे। अंग्रेजों ने उन्हें कितनी ही बार जेल में कैद रखा। छोटे चाचा स्वर्ण सिंह की मृत्यु तो जेल की अमानुषिक यातनाओं को सहने के कारण हुई थी। उनकी माता का नाम विद्यावती था। भगत सिंह का परिवार एक आर्य-समाजी सिख परिवार था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे। परिवार में आजादी के इन परवानों के बीच पले-बढ़े भगत सिंह को राष्ट्रीयता-राष्ट्रप्रेम की शिक्षा वहीं से मिली।
परिवार से मिले थे क्रांतिकारी के संस्कार
उनके एक चाचा, सरदार अजित सिंह ने भारतीय देशभक्त संघ की स्थापना की थी। उनके एक मित्र सैयद हैदर रजा ने उनका अच्छा समर्थन किया और चिनाब नहर कॉलोनी बिल के खिलाफ किसानों को आयोजित किया। अजित सिंह के खिलाफ 22 मामले दर्ज हो चुके थे जिसके कारण वो ईरान पलायन के लिए मजबूर हो गए। उनके परिवार ग़दर पार्टी के समर्थक थे और इसी कारण से बचपन से ही भगत सिंह के दिल में देश भक्ति की भावना उत्पन्न हो गयी। भगत सिंह ने अपनी 5वीं तक की पढाई गांव में की और उसके बाद उनके पिता किशन सिंह ने 1916-17 में दयानंद एंग्लो वैदिक हाई स्कूल (डी०ए०वी० स्कूल) लाहौर में उनका दाखिला करवाया। यहां उनकी राष्ट्रीयता की भावना को काफी बल मिला। नवमीं कक्षा तक पहुंचते-पहुंचते उनका परिचय आचार्य जुगल किशोर, भाई परमानन्द, श्री जयचन्द्र विद्यालंकार जैसे क्रांतिकारियों से हुआ। कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ वे क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। विदेशी वस्त्रों की होली जलाना, रोलेट एक्ट का विरोध जैसी गतिविधियों में भाग लिया। सन् 1919 के जालियांवाला बाग हत्याकाण्ड से उनका खून खौल उठा। दूसरे दिन जाकर वहां की खून से सनी मिट्टी ले आये। सन् 1923 में जब उन्होंने एफ०ए० की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली, तो उनके विवाह की तैयारियां की जाने लगीं। मातृभूमि की राह में शहादत देने का संकल्प कर चुके भला इस क्रांतिकारी को जीवन के इन सुख-भोगों से क्या मतलब था? चुपचाप घर छोड़कर लाहौर से सीधे कानपुर पहुंचे। वहां के क्रांतिकारी जोगेशचन्द्र चटर्जी, सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य के सम्पर्क में आये। उन्होंने इस सिक्ख क्रांतिकारी की पहचान छिपाने के लिए उन्हें ‘प्रताप प्रेस’ में पत्रकार के रूप में काम पर लगा दिया। इसके साथ-साथ उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां चलती रहीं। श्री गणेश शंकर विद्यार्थी, श्री बटुकेश्वर दत्त से उनका परिचय हुआ। इसी बीच उन्होंने नवयुवकों में क्रांति की भावना जागृत करने के लिए नौजवान सभा का गठन किया। यहां पर अंग्रेजों द्वारा पहचान लिये जाने की आशंका से ग्रसित होकर वे कुछ समय के लिए दिल्ली चले आये। यहां पर उन्होंने दैनिक अर्जुन में काम किया।
राजनीति में सक्रिय प्रवेश एवं उनके क्रांतिकारी कार्य
भगत सिंह का राजनीति में सक्रिय प्रवेश 1925 में हुआ। 9 अगस्त 1922 को लखनऊ स्टेशन से 12 कि०मी० की दूरी पर काकोरी रेलवे स्टेशन पर जब क्रांतिकारियों ने अंग्रेज सरकार के सरकारी खजाने को लूटा, तो रामप्रसाद बिस्मिल और गेंदालाल के नेतृत्व में अशफाक उल्ला खां पकड़े गये। रोशन अशफाक उल्ला खां, रामप्रसाद बिस्मिल को फांसी दे दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने उनकी फांसी की सजा को रद्द करने के लिए नेहरू एवं गांधीजी से भी सहयोग मांगा था। क्रांतिकारियों के दल को पुनः संगठित करने के लिए चन्द्रशेखर आजाद भगत सिंह से मिले। बम, पिस्तौल आदि चलाना अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार एकत्र करने वाले इन क्रांतिकारियों से सरकार खौफ खाने लगी थी। 25 जुलाई 1927 को भगत सिंह दल के प्रचार-प्रसार हेतु अमृतसर पहुंचे, तो पुलिसवालों को पीछा करते देखकर एक वकील के घर जा छिपे। अपनी पिस्तौल वहीं छिपा दी। किन्तु उन पर अंग्रेज सरकार ने दशहरे के जुलूस पर बम फेंकने का झूठा आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया, ताकि उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों पर नियंत्रण लगाया जा सके। 15 दिनों की शारीरिक और मानसिक यन्त्रणाओं के बीच मजिस्ट्रेट ने उन पर संगीन आरोप लगाकर 40,000 की जमानत राशि (उस समय की सबसे बड़ी रकम थी) की मांग की। दो देशभक्त नागरिकों ने उस समय उनकी सहायता की। इसी बीच भगत सिंह डेयरी चलाने की आड़ में क्रांति साधना में पुनः जुट गये। सन् 1928 को उन्होंने इलाहाबाद से “चांद” तथा “विप्लव यज्ञ की आहुतियां’ शीर्षक से भारतीय क्रांतिकारियों के चित्र व चरित्र संग्रहित किये। इसी के साथ भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी दल का पुनर्गठन एवं नवीनीकरण कर सितम्बर 1928 की 8 तारीख को गुप्त बैठक कर “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशियन” का गठन किया। दल का पुनर्गठन कर कुछ क्रांतिकारियों के साथ बनाये गये संगठन को नाम दिया – “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी” जिसका सेनापति बनाया गया- चन्द्रशेखर आजाद को इन सब क्रांतिकारी गतिविधियों के बीच सन् 1928 को साइमन कमीशन बम्बई पहुंचा, तो उसका जमकर विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को जब साइमन कमीशन लाहौर पहुंचा, तो लाला लाजपत राय के नेतृत्व में विरोध प्रदर्शन करने वाले इस दल पर साण्डर्स ने लाठियां बरसाना शुरू कर दिया। लाल लाजपत राय की इस हमले से मृत्यु हो गयी। इस घटना से क्षुब्ध होकर भगत सिंह ने साण्डर्स से बदला लेने की ठानी। इस काम में राजगुरु, सुखदेव, आजाद के साथ वे साण्डर्स को मारकर सफाई से भाग निकले। दूसरे दिन लाल स्याही से छपे पोस्टर पर उन्होंने “अंग्रेज सावधान हो जाओ” चिपकवा दिया। सम्पूर्ण देश में भगत सिंह और उनके दल की सराहना हो रही थी। अपने पीछे पड़ी पुलिस को छकाने के लिए उन्होंने सुन्दर कोट, पैंट, हैट के साथ ऊंची सैण्डल में उनकी सुन्दर सी पत्नी बनी क्रांतिकारी भगवत चरण की बहू दुर्गा भाभी के साथ गोद में ढाई साल का बेटा लिये भाग निकले। उनके पीछे फर्स्ट क्लास के डिब्बे में नौकर बने राजगुरु चल रहे थे। कलकत्ता में आकर भगत सिंह बंगाली का वेश धारण करके निकलते थे। यहां रहकर उन्होंने बम बनाना सीखा। वहां से वे दिल्ली पहुंचे। यहां की केन्द्रीय असेम्बली में बम फेंकना निश्चित हुआ। इस कार्य का बीड़ा उठाया स्वयं भगत सिंह एवं उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने 18 अप्रैल 1929 को असेम्बली में बम फेंककर उन्होंने नारा लगाया- “इकलाब जिन्दाबाद, अंग्रेज साम्राज्यवाद का नाश हो।” अंग्रेज सरकार ने उनको गिरफ्तार कर लिया। 12 जून 1929 को सेशन जज ने धारा 307 के तहत उन पर विस्फोटक पदार्थ रखने के आरोप में आजीवन कारावास की सजा मान्य की। इसी बीच सुखदेव को फांसी की सजा दे दी गयी। विभिन्न अदालतों में की गयी अपीलों पर कोई सुनवाई नहीं हुई।
भगत सिंह एक अच्छे वक्ता एवं लेखक भी थे
भगत सिंह एक अच्छे वक्ता, पाठक व लेखक भी थे। उन्होंने कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखा व संपादन भी किया। उनकी मुख्य कृतियां हैं, “मैं नास्तिक क्यों हूँ?” ‘एक शहीद की जेल नोटबुक (संपादन: भूपेंद्र हूजा), सरदार भगत सिंह : पत्र और दस्तावेज (संकलन : वीरेंद्र संधू), भगत सिंह के संपूर्ण दस्तावेज (संपादक: चमन लाल)।
आज से ठिक 92 वर्ष पहले यानि 23 मार्च, 1931 शाम के 7:30 बजे अंग्रेजी हुकूमत ने छल से भगत सिंह, शिवराम हरिनारायण राजगुरु और सुखदेव थापर को फांसी दे दी थी। आजादी के परवाने “मेरा रंग दे बसंती चोला” कहते हुए फांसी पर झूल गये। ब्रिटिश सरकार ने उनकी देह को सतलुज किनारे जला दिया। अंग्रेजों ने भगत सिंह और उनके साथियों को तो मार दिया लेकिन आजादी की अलख करोड़ों हिन्दुस्तानियों के दिलों में जगा गए। सम्पूर्ण देशवासियों को भगत सिंह की शहादत पर गर्व रहेगा। भगत सिंह चाहते, तो देश से बाहर रहकर काम करते, किन्तु उन्होंने स्वेच्छा से बलिदान का रास्ता चुना। उनका मानना था कि जीवन की सार्थकता देश-सेवा, समाज सेवा में है।
भगत सिंह चाहते तो माफी मांग कर फांसी की सजा से बच सकते थे
भगत सिंह चाहते तो माफी मांग कर फांसी की सजा से बच सकते थे, लेकिन मातृभूमि के सच्चे सपूत को झुकना पसंद नहीं था। इसलिए महज 30 वर्ष की उम्र में ही इस वीर सपूत ने हंसते हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था। आज हमारे देश में पूंजीवादी शक्तियों का बोलबाला है। जिसकी वजह से अमीर गरीब के बीच की खाई चौड़ी होती जा रही है। देश का आम नागरिक सरकार की तथाकथित उदारीकरण नीतियों के कारण आजादी के बाद से आज तक भ्रम की स्थिति में है। देश का होनहार युवक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का टेक्नो-कुली बनकर रह गया है। इन कंपनियों का भ्रमजाल ऐसा बना हुआ है कि इनकी कंपनी में कार्य करने वाले रोजगारियों का पैसा भी घूम फिर कर इन्हीं की जेबों में वापस आ जाता है। भगत सिंह ने एक लेख: “लेटर टू यंग पॉलिटिकल वर्कर्स” में युवाओं को संबोधित करते हुए आधुनिक वैज्ञानिक समाजवाद की बात कही, जिसका सीधा-सा उद्देश्य साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद से आजादी से था। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव आज भी अपने विचारों के माध्यम से जीवित हैं, उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उस समय थे। सारा भारतवर्ष युगों-युगों तक उन्हें याद करता रहेगा। उनके चरित्र तथा आदर्शों से प्रेरणा लेता रहेगा। धन्य है भगतसिंह का बलिदान। शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।