राकेश बिहारी शर्मा– भारतीय संस्कृति में त्योहारों का आदिकाल से ही महत्त्व रहा है। हर त्योहार भारत के साथ धार्मिक मान्यताओं, मिथकों, सामाजिक व ऐतिहासिक घटनाओं और परंपरागत विश्वासों का अद्भुत संयोग प्रदर्शित होता है। त्योहार सिर्फ एक अनुष्ठान मात्र नहीं है, बल्कि इसके साथ-साथ सामाजिक समरसता, संस्कृति एवं सभ्यताओं की खोज तथा अपने अतीत से जुड़े रहने का सुखद अहसास भी जुड़ा होता है।
रक्षाबंधन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का एक प्रमुख त्योहार है जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को राखी बाँधती है। भारतीय परंपरा में विश्वास का बंधन ही मूल है और रक्षाबंधन इसी विश्वास का बंधन है। यह पर्व मात्र रक्षासूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता, बल्कि प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षाबंधन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिए किसी को भी रक्षासूत्र (राखी) बाँधा या भेजा जाता था। भगवान् श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि- मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव- अर्थात् सूत्र अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षासूत्र भी लोगों को जोड़ता है।
महाभारत काल में भगवान् श्रीकृष्ण के हाथ में एक बार चोट लगने से खून की धारा बहने लगी तब द्रौपदी ने तत्काल अपनी साड़ी का किनारा फाड़कर भगवान् कृष्ण के घाव पर बाँध दिया। कालांतर में श्रीकृष्ण ने दुःशासन द्वारा द्रौपदी के वस्त्रहरण के प्रयास को विफल कर इस रक्षासूत्र की लाज रखी। द्वापर युग में ही एक बार युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा कि मैं महाभारत के युद्ध में कैसे बचा तो उन्होंने तपाक से जवाब दिया: ‘राखी का धागा ही तुम्हारी रक्षा करेगा।’ रक्षाबंधन भारत का प्राचीनतम त्योहार है। कालगति में परिवर्तन के साथ इसका स्वरूप बदलता रहा है। सतयुग में देवासुर संग्राम में निरंतर पराजय को सहन में करते हुए इंद्रदेव गुरु वृहस्पति से विजय का उपाय पूछ रहे थे। शची (इंद्राणी) ने भी चर्चा सुनी। बृहस्पति देव ने शची को रक्षासूत्र बनाने की विधि बताई। शी ने श्रावणी पूर्णिमा को रक्षासूत्र बनाकर दिया, जिसे इंद्रदेव ने ब्राह्मणों से अपने हाथ में बँधवाया। इसके पश्चात् उन्होंने असुरों पर विजय प्राप्त की।
पौराणिक कथा विख्यात है कि राजा बलि के सौंवे यज्ञ के संपन्न होने से पूर्व भगवान् विष्णु वामन अवतार लेकर राजा बलि के द्वार पर पहुँचे। आचार्य शुक्र ने बलि को सचेत किया कि उस रूप में ये भगवान् विष्णु हैं इन्हें दान देने का संकल्प मत करना। राजा बलि ने कहा- यदि ये साधारण ब्राह्मण हैं तो भी मैं दान दूँगा तथा यदि ये स्वयं भगवान् ही हैं तो इससे उत्तम अवसर मुझे कब मिलेगा। मैं इन्हें मुँह माँगा दान देकर मैं आत्मा-परमात्मा दोनों को संतुष्ट करूँगा। राजा बलि ने संकल्प लिया और वामन भगवान् की माँग के अनुसार तीन कदम धरती दे दी। इसी के साथ वामन ने विराट रूप धारण कर लिया। एक कदम में संपूर्ण आकाश, दूसरे कदम में पृथ्वी को नाप लिया। तीसरे कदम के लिए कहीं स्थान नहीं बचा। बलि ने भगवान् से प्रार्थना की कि अब तीसरा कदम मेरे मस्तक पर रखकर मुझे शरण में लीजिए। भगवान् ने चरण रखते हुए उसे पाताल लोक का स्वामी बना दिया तथा अमरता का वरदान दिया। अतः बलि को सात अमर विभूतियों में गिना जाता है। इस कथा को उद्धृत करने का अभिप्राय यह है कि इस पर्व पर रक्षासूत्र बाँधते हुए यह श्लोक बोला जाता है- येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः तेन त्वाम् अनुबध्नामि रक्षे माचल माचल॥ इसका भाव है कि जिस सूत्र से दानवों के राजा महाबली को बाँधा गया उसी संकल्प सूत्र से मैं आपको बाँध रहा हूँ। आप के द्वारा मेरी रक्षा हो। आप इस व्रत से टले नहीं, इससे पीछे न हटें। इस प्रकार के रक्षासूत्र को ऋषि मुनि अपने क्षेत्र के राजाओं को श्रावणी पर्व पर जाकर बाँधा करते थे। समय बदला ऋषियों की जगह ब्राह्मणों ने राजाओं की जगह उनके यजमानों ने ले ली। ब्राह्मण यजमानों के हाथ रक्षासूत्र बाँधने लगे। मध्यकाल में भारत विदेशी जातियों से आक्रांत हुआ। भारतीय नारियों को अपनी अस्मिता की रक्षा की आवश्यकता हुई। अतः बहनों ने भाइयों की कलाई पर उस रक्षासूत्र को बाँधना शुरू किया तथा श्रावणी पर्व का नाम रक्षाबंधन हो गया। भाइयों ने अपनी जान पर खेलकर बहनों की रक्षा की। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण बिखरे पड़े हैं अनेक अवसरों पर अहिंदू भाइयों ने भी इस रक्षासूत्र से बँधने पर इसकी मर्यादा का पालन किया।
धीरे-धीरे समय फिर परिवर्तित हुआ। रक्षा की आवश्यकता में कमी आई। भाइयों ने राखी बँधवा कर बहनों को उपहार तथा बाद में धनराशि देनी शुरू कर दी। उपहार देने में कोई बाधा नहीं, परंतु रक्षा के प्रण को भी स्मरण रखना अभीष्ट है। इसीलिए राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत संस्थाएँ एवं संगठन इस पर्व को विशेष महत्त्व देते हैं। सेवा भारती तथा वनवासी कल्याण आश्रम जैसी संस्थाएँ रक्षाबंधन पर पिछड़ी बस्तियों तथा ग्रामों में अपने कार्यकर्ता भेजती हैं। वहाँ आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े अपने बंधुओं को ले जाकर रक्षासूत्र बाँधते हैं। उनसे परिचय करने तथा मेल-जोल बढ़ाने के प्रयत्न करते हैं। उनकी बस्तियों में नए सेवा कार्य प्रारंभ करते हैं। संपर्क एवं आत्मीयता बढ़ाते हैं।
एक घटना 504 ईसापूर्व की है जब लोकनायक बुद्ध ने सावन पूर्णिमा के दिन अंगुलिमाल पुराना नाम अहिंसक को श्रावस्ती में धम्म दीक्षा दी थी। सावन पूर्णिमा की दूसरी महत्वपूर्ण घटना यह है कि वर्तमान में बिहार प्रदेश के राजगृह में सम्राट अजातशत्रु ने सप्तपर्णी गुफा में 483 ईसापूर्व में प्रथम बौद्ध संगीति करायी थी जिसमें 500 बौद्ध भिक्षुओं ने सहभाग किया था जिसकी अध्यक्षता महाकाश्यप ने किया था। जिसमें अर्हत उपालि को प्रधान चुना गया। विनय के सभी प्रश्नों का समुचित उत्तर विनयधर अर्हत उपालि ने दिया। यों तो सभी पिटक (विनय,सुत्त एवं अभिधम्म पिटक)महत्वपूर्ण हैं किन्तु विनय पिटक धम्म की आधारशिला है अनुशासन के बिना किसी भी धम्म का महत्व नहीं होता है। कहा गया है कि विनय ही बुद्ध शासन की आयु है जब तक विनय रहेगा तब तक बुद्ध का शासन रहेगा। यही पिटक हमारे भारतीय संविधान की आधारशिला भी है। लोकनायक बुद्ध ने अपने जीवन के 80 वर्षो में पच्चीस वर्षावास केवल श्रावस्ती में बिताया और वर्षावास से सभी प्राणियों के कल्याण का मार्ग दर्शन किया। बौद्ध दर्शन में सभी पूर्णिमा का बहुत महत्व है किन्तु श्रावणी पूर्णिमा का कुछ विशेष महत्व है।
हमें किसी भी पर्व या त्योहार को मनाने से पूर्व उसकी ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, तार्किक एवं प्राकृतिक दृष्टिकोण को अवश्य जानना, छानना ,समझना और पहचानना चाहिए। पहले जानो फिर छानो तब मानो को जीवन का आधार बनायें तो सम्यक् दृष्टि के अभाव का प्रभाव नहीं रहेगा और परिवार, समाज एवं देश का सदैव मंगल होगा। हमें विज्ञान और तर्क पूर्ण विचार यह अवगत कराता है कि कोई भी धागा चाहे जिस रंग का हो हमारी, हमारे समाज, हमारे देश की रक्षा-सुरक्षा नहीं कर सकता है। हमारी रक्षा केवल मंगलकारी सुत्त को अपने आचरण में स्थापित करने से ही होगा।