राकेश बिहारी शर्मा—–हिन्दी कथा साहित्य में प्रेमचंद जी का नाम सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार एवं कहानीकार के रूप में अग्रगण्य है। युग प्रवर्तक प्रेमचंद ने अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से भारतीय समाज की समस्त स्थितियों का अत्यन्त मनोवैज्ञानिक, यथार्थ चित्रण किया है। उनका सम्पूर्ण साहित्य तत्कालीन भारतीय जनजीवन का महाकाव्य कहा जा सकता है। उनकी रचनाओं में भारतीय किसान की ऋणग्रस्त स्थिति, भारतीय नारियों की जीवन व नियति की ऐसी कथा समाहित है, जो उसकी कारुणिक त्रासदीपूर्ण स्थितियों को अत्यन्त मर्मस्पर्शी एवं संवेदनात्मक स्तर पर चित्रित करती है। पूंजीपतियों और जमींदारों का अमानवीयतापूर्ण क्रूर शोषण व आतंक उनके कथा साहित्य में उनकी भाषा के साथ जीवन्त हो उठता है। तत्कालीन समाज की कुप्रथाओं, कुरीतियों का जो बेबाक एवं सत्यता भरा चित्रण प्रेमचंद की रचनाओं में मिलता है, वह बड़ा मर्मस्पर्शी है। अपनी आदर्शवादी और यथार्थवादी रचनाओं में पराधीनता से मुक्ति का संकल्प भी राष्ट्रीय भावना के साथ व्यक्त होता है।
प्रेमचंद का जन्म और पारिवारिक जीवन
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 को बनारस शहर से चार किलोमीटर दूर लमही गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम अजायब राय और माता आनंदी देवी था। पिताजी डाकखाने में मामूली नौकर के तौर पर 7 रूपये मासिक पाते थे। प्रेमचंद का असली नाम धनपतराय था। जब ये केवल आठ साल के थे तो इनकी माता का स्वर्गवास हो गया तो पिताजी ने दूसरी शादी कर ली जिसके कारण बालक धनपतराय प्रेम व स्नेह को चाहते हुए भी ना पा सका। आपका जीवन गरीबी में ही पला। कहा जाता है कि धनपतराय के घर में भयंकर गरीबी थी। पहनने के लिए कपड़े न होते थे और न ही खाने के लिए पर्याप्त भोजन मिलता था। इन सबके अलावा घर में सौतेली माँ का व्यवहार भी हालत को खस्ता करने वाला था।
प्रेमचंद की शादी और पारिवारिक परेशानियाँ
प्रेमचंद के पिता ने केवल 15 साल की आयू में प्रेमचंद का विवाह करा दिया। पत्नी उम्र में प्रेमचंद से बड़ी और बदसूरत थी। पत्नी की सूरत और उसके जबान ने प्रेमचंद के जले पर नमक का काम किया। प्रेमचंद ने स्वयं लिखा है, “उम्र में वह मुझसे ज्यादा थी। जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया।…….” उसके साथ-साथ जबान की भी मीठी न थी। प्रेमचंद ने अपनी शादी के फैसले पर पिता के बारे में लिखा है “पिताजी ने जीवन के अंतिम सालों में एक ठोकर खाई और स्वयं तो गिरे ही, साथ में मुझे भी डुबो दिया: मेरी शादी बिना सोंचे समझे कर डाली।” हालांकि प्रेमचंद के पिताजी को भी बाद में इसका एहसास हुआ और काफी अफसोस किया।
विवाह के एक साल बाद ही प्रेमचंद के पिताजी का देहान्त हो गया। अचानक प्रेमचंद के सिर पर पूरे घर का बोझ आ गया। एक साथ पाँच लोगों का खर्चा सहन करना पड़ा। पाँच लोगों में विमाता, उसके दो बच्चे पत्नी और स्वयं। प्रेमचंद की आर्थिक विपत्तियों का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि पैसे के अभाव में उन्हें अपना कोट बेचना पड़ा और पुस्तकें बेचनी पड़ी। एक दिन ऐसी हालत हो गई कि वे अपनी सारी पुस्तकों को लेकर एक बुकसेलर के पास पहुंच गए। वहाँ एक हेडमास्टर मिले जिन्होंने प्रेमचंद को अपने स्कूल में अध्यापक पद पर नियुक्त किया।
प्रेमचंद की शिक्षा-दीक्षा और अभाव में संघर्ष
अपनी गरीबी से लड़ते हुए प्रेमचंद ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में प्रेमचंद ने गाँव से दूर बनारस पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाया करते थे। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे। मगर गरीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने-जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी जिन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। इस दो रुपये से क्या होता महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में मैट्रिक पास किया।
प्रेमचंद की साहित्यिक रुचि और साहित्यिक जीवन
प्रेमचन्द उन साहित्यकारों में से हैं, जो साहित्यकार होने के साथ-साथ स्वतंत्रता सेनानी भी थे। गरीबी, अभाव, शोषण तथा उत्पीड़न जैसी जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियाँ भी प्रेमचंद के साहित्य की ओर उनके झुकाव को रोक न सकी। प्रेमचंद जब मिडिल में थे तभी से आपने उपन्यास पढ़ना आरंभ कर दिया था। आपको बचपन से ही उर्दू आती थी। प्रेमचंद पर हिंदी और उर्दू उपन्यास का ऐसा उन्माद छाया कि आप पुस्तक विक्रेता की दुकान पर बैठकर ही सब उपन्यास पढ़ गए। आपने दो-तीन साल के अन्दर ही सैकड़ों उपन्यासों को पढ़ डाला।
प्रेमचंद ने बचपन में ही उर्दू के समकालीन उपन्यासकार सरुर मोलमा शार, रतन नाथ सरशार आदि के दीवाने हो गये कि जहाँ भी इनकी किताब मिलती उसे पढ़ने का हर संभव प्रयास करते थे। आपकी रुचि इस बात से साफ झलकती है कि एक किताब को पढ़ने के लिए प्रेमचंद ने एक तम्बाकू वाले से दोस्ती करली और उसकी दुकान पर मौजूद “तिलस्मे-होशरुबा” पढ़ डाली। अंग्रेजी के अपने जमाने के मशहूर उपन्यासकार रोनाल्ड की किताबों के उर्दू तरजुमो को आपने काफी कम उम्र में ही पढ़ लिया था। इतनी बड़ी-बड़ी किताबों और उपन्यासकारों को पढ़ने के बावजूद प्रेमचंद ने अपने मार्ग को अपने व्यक्तिगत विषम जीवन अनुभव तक ही सिमित रखा। तेरह वर्ष की उम्र में से ही प्रेमचंद ने लिखना आरंभ कर दिया था। शुरु में प्रेमचंद ने कुछ नाटक लिखे फिर बाद में उर्दू में उपन्यास लिखना आरंभ किया। इस तरह प्रेमचंद का साहित्यिक सफर शुरु हुआ जो मरते दम तक साथ-साथ रहा।
प्रेमचंद ने की दूसरी शादी विधवा शीवरानी देवी से
सन् 1905 में प्रेमचंद की पहली पत्नी पारिवारिक कटुताओं के कारण घर छोड़कर मायके चली गई फिर वह कभी नहीं आई। विच्छेद के बावजूद कुछ सालों तक वह अपनी पहली पत्नी को खर्चा भेजते रहे। सन् 1905 के अन्तिम दिनों में प्रेमचंद ने शीवरानी देवी से शादी कर ली। शीवरानी देवी एक विधवा थी और विधवा के प्रति प्रेमचंद सदा स्नेह के पात्र रहे थे। यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् प्रेमचंद के जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। प्रेमचंद के लेखन में अधिक सजगता आई। प्रेमचंद की पदोन्नति हुई तथा प्रेमचंद स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में प्रेमचंद की पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ।
प्रेमचंद का रोचक व्यक्तित्व और कृतित्व
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचंद सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। अपने जीवन की परेशानियों को लेकर उन्होंने एक बार मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में लिखा “हमारा काम तो केवल खेलना है- खूब दिल लगाकर खेलना- खूब जी- तोड़ खेलना, अपने को हार से इस तरह बचाना मानों हम दोनों लोकों की संपत्ति खो बैठेंगे। किन्तु हारने के पश्चात्-पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़ खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए कि एक बार फिर जैसा कि सूरदास कह गए हैं, “तुम जीते हम हारे। पर फिर लड़ेंगे।” कहा जाता है कि प्रेमचंद हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे।
जहां प्रेमचंद के हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं प्रेमचंद के हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। जैसा कि उनकी पत्नी कहती हैं “कि जाड़े के दिनों में चालीस-चालीस रुपये दो बार दिए गए दोनों बार उन्होंने वह रुपये प्रेस के मजदूरों को दे दिये। मेरे नाराज होने पर उन्होंने कहा कि यह कहां का इंसाफ है कि हमारे प्रेस में काम करने वाले मजदूर भूखे हों और हम गरम सूट पहनें।”
प्रेमचंद उच्चकोटि के मानव थे। प्रेमचंद को गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग प्रेमचंद ने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचंद अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
प्रेमचंद की कालजयी कृतियाँ
प्रेमचंद ने कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें तथा हजारों की संख्या में लेख आदि की रचना की। प्रेमचंद ने अपने नाते के मामू के एक विशेष प्रसंग को लेकर अपनी सबसे पहली रचना लिखी। 13 साल की आयु में इस रचना के पूरा होते ही प्रेमचंद साहित्यकार की पंक्ति में खड़े हो गए। सन् 1894 ई० में “होनहार बिरवार के चिकने-चिकने पात” नामक नाटक की रचना की। सन् 1898 में एक उपन्यास लिखा। लगभग इसी समय “रुठी रानी” नामक दूसरा उपन्यास जिसका विषय इतिहास था की रचना की। सन 1902 में प्रेमा और सन् 1904-05 में “हम खुर्मा व हम सवाब” नामक उपन्यास लिखे गए। इन उपन्यासों में विधवा-जीवन और विधवा-समस्या का चित्रण प्रेमचंद ने काफी अच्छे ढंग से किया।
जब कुछ आर्थिक मजबूती आई तो 1907 में पाँच कहानियों का संग्रह सोजे-वतन (राष्ट्र का विलाप) वतन का दुख दर्द की रचना की। जैसा कि इसके नाम से ही मालूम होता है, इसमें देश प्रेम और देश को जनता के दर्द को रचनाकार ने प्रस्तुत किया। अंग्रेज शासकों को इस संग्रह से बगावत की झलक मालूम हुई। इस समय प्रेमचंद नायाब राय के नाम से लिखा करते थे। लिहाजा नायाब राय की खोज शुरु हुई। नायाब राय पकड़ लिये गए और शासक के सामने बुलाया गया। उस दिन प्रेमचंद के सामने ही प्रेमचंद की इस कृति को अंग्रेजी शासकों ने जला दिया और बिना आज्ञा न लिखने का हिदायतें दे दिया गया।
इस हिदायत से बचने के लिए प्रेमचंद ने दयानारायण निगम को पत्र लिखा और उनको बताया कि वह अब कभी नयाबराय या धनपतराय के नाम से नहीं लिखेंगे तो मुंशी दयानारायण निगम ने पहली बार प्रेमचंद नाम सुझाया। यहीं से धनपतराय हमेशा के लिए प्रेमचंद हो गये।
“सेवा सदन”, “मिल मजदूर” तथा 1935 में गोदान की रचना की। गोदान प्रेमचंद की समस्त रचनाओं में सबसे ज्यादा मशहूर हुई अपनी जिन्दगी के आखिरी सफर में मंगलसूत्र नामक अंतिम उपन्यास लिखना आरंभ किया। दुर्भाग्यवश मंगलसूत्र को अधूरा ही छोड़ गये। इससे पहले उन्होंने महाजनी और पूँजीवादी युग प्रवृत्ति की निन्दा करते हुए “महाजनी सभ्यता” नाम से एक लेख भी लिखा था।
प्रेमचंद अपने अभावों और फाकामस्सी में खुश थे
प्रेमचंद की लेखकीय ख्याति धीरे-धीरे फैल रही थी। महात्मा गाँधी के प्रभाव में आकर उन्होंने पहले ही अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था और असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए थे। प्रेमचंद की उस दौर की कई कहानियों में भी गाँधीवादी प्रभाव दिखाई पड़ता है। उनके लेखकीय ख्याति से प्रभावित होकर अलवर रियासत के नवाब ने उन्हें अपनी यहाँ आकर साहित्य-सृजन करने का प्रस्ताव दिया। नवाब भी कुछ साहित्यिक अभिरुचि वाले थे। उन्होंने प्रेमचंद से अपनी रियासत में आकर रहने का निवेदन किया और इसके बदले उन्हें प्रतिमाह 400 रु. देने का भी वायदा किया, जो उस दौर के हिसाब से बड़ी राशि थी। साथ ही रहने के लिए एक आलीशान बंग्ला और गाड़ी भी। प्रेमचंद चाहते तो अपनी बाकी की जिंदगी तमाम ऐशो-आराम के साथ गुजार सकते थे। हिंदी में दरबारी सृजन की एक लंबी परंपरा रही है। भारत में कवि-लेखकों की सर्जना शक्ति पर राजा का आधिपत्य होता था। ये वह लिखते, जो राजा चाहता था। राजाओं के प्रशस्ति गान और गौरव गाथाओं से हिंदी साहित्य पटा पड़ा है। सम्राट के वही दरबार अब लोकतंत्र में सरकारी संस्थानों, अकादमियों और दूतावासों में परिणत हो गए हैं, लेखक की कलम पर जिनका अप्रत्यक्ष नियंत्रण होता है। प्रेमचंद को यह गुलामी स्वीकार्य नहीं थी। वे अपने अभावों और फाकामस्सी में ही खुश थे जो विद्रोही सरकारी नौकरी की बाध्यताओं के साथ समझौता नहीं कर पाया, वह भला राजा का दरबार कैसे सजाता। बड़ी विनम्रता से अलवर रियासत के नवाब को प्रेमचंद ने जवाब लिखा : मैं आपको धन्यवाद देता हूँ कि आपने मुझे याद किया। मैंने अपना जीवन साहित्य सेवा के लिए लगा दिया है। मैं जो कुछ भी लिखता हूँ, उसे आप पढ़ते हैं, इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। आप जो पद मुझे दे रहे हैं मैं वो नहीं हूँ। मैं इतने में ही अपना सौभाग्य समझता हूँ कि आप मेरे लिखे को ध्यान से पढ़ते हैं…। प्रेमचंद ने अपनी जीवन की बत्ती को जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
प्रेमचंद का गरीबी और फाकामस्सी में निधन
जब 8 अक्तूबर, 1936 को प्रेमचंद का निधन हुआ था, तब से लेकर अब तक काफी वक्त गुजर चुका है। मात्र 52 वर्ष की अवस्था में प्रेमचंद ने आखिरी साँस ली थी, उस समय उनके निकट उनकी दूसरी पत्नी शिवरानी देवी मौजूद थीं। घर पर गहरे आर्थिक संकट थे। सरस्वती प्रेस से थोड़ी-बहुत जो भी आमदनी होती सब बीमारी लीले जा रहे थी, पर इसके बावजूद ठीक होने का नाम नहीं। प्रेमचंद का आखिरी उपन्यास ‘मंगलसूत्र अधूरा पड़ा था। यह अधूरा ही रहा। आखिरी समय में अपने शैय्या पर बेजान पड़े वे अपनी पत्नी के सामने अपनी तमाम गलतियाँ और चोरियों कबूल रहे थे। अपनी पत्नी के अतिरिक्त एक अन्य स्त्री से भी प्रेमचंद के स्नेह संबंध थे। उन्होंने कभी यह बात अपनी पत्नी से नहीं कही थी। पर आज जाने उन्हें क्या हो गया था। वे अपना हर अपराध कबूल लेना चाहते थे जैसे मन पर कोई भारी बोझ था। बोझ की पीड़ा उन्हें अशक्त कर रही थी। उन्होंने शिवरानी देवी के सामने उस रिश्ते का खुलासा किया। पत्नी ने बात बीच में ही रोक दी और अधिक बोलने से मना किया। बोली, ‘मुझे सब पता है।” शिवरानी देवी ने प्रेमचंद पर लिखी एक पुस्तक में इन बातों का जिक्र किया है। प्रेमचंद के बेटे अमृतराय ने भी पिता की जीवनी लिखी है। ‘कलम का सिपाही’ नामक इस पुस्तक में प्रेमचंद के जीवन की बहुत-सी अंतरंग झलकियों मिलती है।