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केश बिहारी शर्मा – पृथ्वी पर प्रकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए जितना आवश्यक पेड़-पौधों को बचाना है, उतना ही आवश्यक जीव-जंतुओं और पक्षियों को भी बचाना है। पक्षियाँ जो प्रकृति की अनमोल देन हैं वे पर्यावरण के संतुलन और जीवन चक्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। गौरैया भी उन्हीं पक्षियों में से एक है। इन्हें हम अपने परिवेश में देख सकते हैं जो अक्सर गांवों के कच्चे घरों या शहर के पुरानी इमारतों में अपना आशियाना बनाती हैं।
मानव ने जैसे-जैसे विकास के नए आयाम स्थापित किए उसका यह विकास विश्व के अन्य जीव-जंतुओं, पशु पक्षियों के लिए दुश्मन बन गया। और यकीनन अब अगर हम नहीं चेते तो हमारी आने वाली नस्लों को यह किताबों और इंटरनेट पर ही दिखाई देगी। ऐसी ही एक चिड़िया है गौरैया। गौरैया ये नन्ही चिड़िया कभी हम सबके आंगन में चहका करती थी। लेकिन आज की तारीख में इसी गौरैया को बचाने के लिए हमें विश्व गौरैया दिवस मनाना पड़ रहा है। गौरैया को बचाने के लिए नालंदा में युवाओं की एक टीम सराहनीय पहल कर रही है। यह टीम मोहल्ले-मोहल्ले, गांव-गांव, शहर-शहर घूम-घूमकर गौरैया बचाने के लिए लोगों को प्रेरित कर रही है।
गौरेया आज संकटग्रस्त पक्षी है, जो पूरे विश्व में तेज़ी से दुर्लभ हो रही है। दस-बीस साल पहले तक गौरेया के झुंड सार्वजनिक स्थलों पर भी देखे जा सकते थे, लेकिन खुद को परिस्थितियों के अनुकूल बना लेने वाली यह चिड़िया अब भारत ही नहीं, यूरोप के कई बड़े हिस्सों में भी काफ़ी कम रह गई है। ब्रिटेन, इटली, फ़्राँस, जर्मनी और चेक गणराज्य जैसे देशों में इनकी संख्या जहाँ तेज़ी से गिर रही है, तो नीदरलैंड में तो इन्हें ‘दुर्लभ प्रजाति’ के वर्ग में रखा गया है।
एक जमाना था जब हम-आप कभी गौरैया की चहचहाहट से जागा करते थे। देखते ही देखते आधुनिकता की आंधी ने इस प्यारी सी चिड़िया को हमसे दूर कर दिया। इतना दूर कर दिया कि आज उसे वापस बुलाने कि लिए हमें विश्व गौरैया दिवस मनाना पड़ रहा है।
द नेचर फॉरएवर सोसाइटी ऑफ इंडिया एवं फ्राँस के इको-एसआईएस एक्शन फाउंडेशन द्वारा विश्व गौरैया दिवस मनाने का विचार रखा गया था। यह दिवस पहली बार वर्ष 2010 में मनाया गया था। हर वर्ष 20 मार्च को विश्व गौरैया दिवस मनाया जाता है।
इस पक्षी को संरक्षित करने के लिए समाज, सरकार व वन विभाग को संकल्प लेने की जरूरत है। घरों में चहकने वाली चिड़िया रानी (गौरैया) न जाने कहां गायब हो गई है। बच्चे भी अब ‘चिड़िया रानी बड़ी सयानी’ गाना भूल गए हैं। यहां घर आंगन में चिड़ियों के कलरव ध्वनि सुनाई देती थी। चिड़ियों की चहचहाहट कानों में शहद घोलता था। आकाश में चील, टिटही, सिल्ली और बगुला पहरेदारी किया करते थे। समय बदला तो इन पर शामत ही आ गई। अपने स्वार्थ के लिए लोग जहां इनका शिकार करने लगे। वहीं कीटनाशक दवा के बढ़ते इस्तेमाल ने इनकी दुनिया ही उजाड़ दी है। पर्यावरण संतुलन में अहम किरदार निभाने वाली चिड़िया लगातार कम हो रही है। इनकी कई प्रजातियां लुप्त हो चुकी है। बिहार में वन बहुत ही अल्प है फिर भी यहाँ छोटे-बड़े अनेक रंगो वाली आकर्षक चिड़ियों की भरमार थी। घर-आंगन में मैना, कौआ, पपीहा, बुलबुल, खंजन, कचबचिया, बगेड़ी, कठखोधी, चकवा-चकवी, चुहचुहिया, तितिर, बटेर, सुग्गा, रतवा, वन मुर्गी की मधुर आवाज सुनने को तरस रहे हैं।
गौरैया विहग फाउंडेशन के निदेशक पर्यावरणविद राजीव रंजन पाण्डेय कहते हैं कि देसी और दुर्लभ पक्षियों के प्रति मानवीय संवेदनाएं कम होती जा रही है। इस कारण इनके विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। खेतों में अंधाधुन कीटनाशक दवाओं के इस्तेमाल से इनके जीवन पर बुरा असर पड़ा है। बगुला, मैना-मैनी, बुलबुल, काग जैसी चिड़िया खेतों से ही चारा चुगते हैं। जिससे कीटनाशक से इनकी मौत हो जाती है। वहीं हरियल, धनेश, बगड़ा-बगेड़ी, दहियल, वन मुर्गी, रतवा आदि चिड़ियों का शिकार करके लोग इसे खा जाते हैं। पेड़ों की कटाई से भी इनके आशियाने उजड़ गए हैं। इनकी मानें तो बिहार और झारखंड में कई तरह के पक्षी पाए जाते थे। इनमें दो चोंच वाला स्लेटी रंग का धनेश, तालाबों में मस्ती करने वाले काले सिल्ली, दिघौंच, विभिन्न प्रकार के कठखोधी, टिटहरी, विभिन्न प्रकार के सुग्गा, सुर्ख पीले रंग का पपीहरा, चाहा, चील, दहियन, नीलकंठ, उल्लू और खजनी अब देखने को कम मिल रहे हैं। इन दुर्लभ पक्षियों को बचाने की दिशा में ठोस कदम नहीं उठाने के कारण इनकी संख्या नगण्य हो गई है।
गौरैया और गौरैया की प्रजातियां
गौरैया का सामान्य नाम ‘घरेलू गौरैया’ है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘पासेर डोमेस्टिक’ है। गौरैया की लंबाई 14 से 16 सेंटीमीटर होती है और इसका वजन 25 से 40 ग्राम तक होता है। इसकी पंखे 21 सेंटीमीटर तक होती है। दुनियाभर में गौरैया की 26 प्रजातियां पाई जाती हैं, जिसमें से पांच प्रजाति भारत में पाई जाती है। एक समय में इसके कम से कम तीन बच्चे होते है। गौरैया अधिकतर झुंड में ही रहती है। भोजन तलाशने के लिए गौरैया का एक झुंड अधिकतम दो मील की दूरी तय करते हैं। यह पक्षी कूड़े में भी अपना भोजन ढूंढ़ लेते है।
पर्यावरण से गायब होती गौरैया
गौरैया अब बड़े शहरों में दिखाई नहीं देती है। छोटे गांवों में तो अब भी आपको गौरैया दिख जाएंगी। लेकिन गौरैया अब विलुप्त होने के कगार पर है। एक रिसर्च के मुताबिक गौरैया की संख्या में करीब पहले के मुकाबले 70 प्रतिशत तक कम हो गई है। ऐसे में गौरेया की घटती संख्या को देखते हुए इसके इसके संरक्षण के लिए ही ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाने की शुरुआत की गई थी। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर गौरैया हमारे पर्यावरण से गायब क्यों हो रही हैं? जवाब है- हम और हमारा ये आधुनिक समाज। गौरया 21वीं सदी के आधुनिक जीवन शैली और पर्यावरण के प्रति उदासीनता की वजह से गायब हो रही हैं। आधुनिक बनावट वाले शहरों में जहां पेड़ों की संख्या ना के बराबर है, गौरैया को वहां अब घोंसला बनाने की जगह नहीं मिल पाती है।
मोबाइल फोन और ध्वनि प्रदूषण की वजह से भी गायब हो रही हैं गौरैया
मोबाइल फोन और प्रदूषण, खासकर ध्वनि प्रदूषण की वजह से भी गौरैया गायब होते जा रही हैं। बढ़ते ध्वनि प्रदूषण के कारण अब आमतौर पर गौरैया नहीं देखा जाता है। छोटे प्रजातियों के पक्षी ध्वनि प्रदूषण से निकलने वाली आवाज को सहन नहीं कर पाते हैं। इसके अलावा वायु प्रदूषण की वजह से भी गौरैया विलुप्त होते जा रहे हैं। इसके अलावा मोबाइल फोन के टावर या मोबाइल से निकलने वाले रे गौरैया सहित दूसरे पक्षियों के लिए एक बड़ा खतरा है। इससे निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें पक्षियों की प्रजनन क्षमता को कमजोर कर देती है। पर्यावरण की दृष्टि से बहुत सारे पेड़ों के बीजों के वितरण में तथा कीड़े और पेस्ट को समाप्त करने में गौरेया का महत्वपूर्ण योगदान रहता है। साथ ही धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी जहां गौरेया का वास होता है, वहां सुख, समृद्धि व खुशहाली के साथ साथ पाज़िटिविटी रहती है।
खटालों के घटने का भी पड़ा विपरीत असर
खटालों के आसपास गोरैया अधिक संख्या में दिखते थे क्योंकि माय, भैंस जैसे मवेशी के गोबर में विद्यमान अनाज के दाने उनके प्रिय भोजन हैं। लेकिन पटना में खटालों की संख्या घटने से गौरैया के लिए ऐसी सुविधा भी खत्म हो गयी।
पैकेट बंद अनाज के इस्तेमाल से घट गये भोजन के स्रोत
अनाजों यथा चावल, गेहूं आदि को पानी में धोकर पीसने से पहले सुखाने के लिए रखा जाता था। पानी में फूले हुए ऐसे दाने गौरैया के पसंदीदा भोजन थे। इसी तरह दाल के फटकन वे खाते थे। लेकिन पैकेट बंद अनाजों के इस्तेमाल से ये स्रोत भी खत्म हो गये जो भी गोरैया के लिए घातक साबित हो रही है।
कीट नाशक बनी बड़ी वजह कमजोर पड़ गये अंडे के शेल
कीट नाशक गौरैया की संख्या घटने की दूसरी सबसे बड़ी वजह है. अनाजों में रहनेवाले कीट और पिल्लू गौरैया का प्रमुख भोजन हैं। व्यस्क गौरैया तो अनाज के दाने खाता है, लेकिन उसके बच्चे कड़ा होने की वजह से अनाज के दाने नहीं हजम कर पाते। ऐसे में पिल्लू और कीट ही उनके प्रमुख भोजन हैं जो प्रोटीन का बड़ा स्रोत होने की वजह से उनकी सेहत के लिए भी ये बहुत फायदेमंद होता हैं। लेकिन अनाजों में कीट नाशक का इस्तेमाल बढ़ने से उनमें रहने वाले कीट और पिल्लू मर जाते हैं। ऐसे में उनके भोजन का एक प्रमुख स्रोत खत्म होता जा रहा है। साथ ही, कीट नाशक मिश्रित अनाज के दाने खाने की वजह से गोरैया के शरीर में भी हानिकारक रसायन का जमाव होने लगा है। इसके प्रभाव से उसके अंडों का शेल कमजोर पड़ने लगा है जिससे सेने के क्रम में ही वे टूटने लगती है और जन्म लेने से पहले ही बच्चा मर जाता है।
नीतीश कुमार ने गौरैया को राजकीय पक्षी घोषित किया
बिहार सरकार ने गौरैया को राजकीय पक्षी, बैल को राजकीय पशु, पीपल को राजकीय वृक्ष व गेंदा को राजकीय फूल घोषित किया है। अब सरकार इन्हें विशेष रूप से संरक्षित कर रही है। गौरैया, बैल और पीपल को विलुप्त होने से बचाने के लिए 9 जनवरी, 2013 को मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे बिहार का राजकीय पक्षी, राजकीय पशु, राजकीय वृक्ष और राजकीय फूल घोषित किया, तब से हर वर्ष गौरैया दिवस पर वन विभाग की ओर से छोटे बड़े कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहे हैं और लोगों को गोरैया और पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक करने का प्रयास किया जाता रहा है। लेकिन अफसोस है कि संरक्षण की जितनी बातें हो रहीं, उतनी ही तेजी से गोरैया कम हो रहे हैं। वर्ष 2012 में दिल्ली सरकार ने गौरैया को राज्य-पक्षी घोषित किया। भारतीय डाक विभाग ने 9 जुलाई, 2010 को गौरैया पर डाक टिकट जारी किया।