Monday, December 23, 2024
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सामाजिक योद्धा जननायक कर्पूरी ठाकुर की 99 वीं जयंती पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – बिहार की सियासत और समस्तीपुर कि जब भी चर्चा होती है, तो सबसे पहले एक नाम सामने आता है। वह नाम है गुदड़ी के लाल जननायक कर्पूरी ठाकुर का। जिनका विचार और दर्शन आज भी वर्तमान दौर के सियासतदानों को आईना दिखाती है। वर्तमान दौर की सियासत की बात करें तो चाहे वह सत्ताधारी पार्टी का हो या विपक्ष। यह वही चेहरे हैं जो कर्पूरी ठाकुर के चेले रहे हैं या फिर वह कर्पूरी ठाकुर से गहरे तौर पर जुड़े रहे हैं।
बिहार की राजनीति में जननायक कर्पूरी ठाकुर विरले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने निहायत विपरीत परिस्थितियों में भी साहसिक निर्णय लिए और अपनी सत्ता को दाव पर लगा दिया। उनकी यह विलक्षणता सादगीपूर्ण जीवन शैली और उनके रणनीतिक कौशल तक में हर कहीं दिखलाई पड़ती है।

कर्पूरी ठाकुर का जन्म एवं पारिवारिक जीवन

24 जनवरी को कर्पूरी ठाकुर का जन्म दिन है। युगों-युगों से उंच-नीच व्यवस्था में शिक्षा से वंचित समाज में जन्मे कर्पूरी ठाकुर का यह जन्मदिन वास्तविक नही है, जैसाकि वो अपने कार्यकर्ताओं से बोला करते थे।
जननायक कर्पूरी ठाकुर का जन्म 24 जनवरी 1924 को समस्तीपुर जिला के पितौंझिया गांव में हुआ उनकी माता “राम दुलारी देवी” और उनके पिताजी का नाम “गोकुल ठाकुर” था और उनकी पत्नी का नाम ‘फुलेशरी देवी’ था ठाकुर जी के बाल्यावस्था अन्य गरीब परिवार के बच्चों की तरह खेलकूद तथा गाय, भैंस और पशुओं के चराने में बीता उन्हें दौड़ने, तैरने, गीत गाने तथा डफली बजाने का शौक था। इनके पिता गांव के सीमांत किसान थे तथा अपने पारंपरिक पेशा नाई का काम करते थे।

कर्पूरी ठाकुर का शिक्षा-दीक्षा और राजनीति में प्रवेश

6 वर्ष की आयु में कर्पूरी जी को गांव की ही पाठशाला में पिताजी के द्वारा दाखिला कराया गया था। इनके अंदर बचपन से ही नेतृत्व क्षमता ने जन्म लेना शुरू कर दिया था। छात्र जीवन के दौरान युवाओं के बीच लोकप्रियता हासिल कर चुके कर्पूरी ठाकुर ने अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। इसके बाद उन्होंने 1940 में मैट्रिक प्रथम श्रेणी से पास किया और दरभंगा के चंद्रधारी मिथिला महाविद्यालय में आई.ए. में नामांकन करा लिया। कर्पूरी ठाकुर अपने घर से कॉलेज रोज 50-60 किलोमीटर तक यात्रा करते हुए 1942 में आइ.ए. द्वितीय श्रेणी से पास किया और पुनः उसी कॉलेज से B.A. में नामांकन करा लिया। जब भारत छोड़ो आंदोलन चल रहा था, तब उन्होंने 1942 में अपनी पढ़ाई छोड़ दी और उस आंदोलन में हिस्सा लिया और जयप्रकाश नारायण के द्वारा गठित “आजाद दस्ता” के सक्रिय सदस्य बने। तंग आर्थिक स्थिति से निजात पाने के लिए उन्होंने गांव के ही मध्य विद्यालय में 30 रूपये प्रति माह पर प्रधानाध्यापक का पद स्वीकार किया। ये दिन में स्कूल के अध्यापक और रात में आजाद दस्ता के सदस्य के रूप में जो भी जिम्मेदारी मिलती उसे बखूबी निभाते थे।

समतामूलक सोच के धनी कर्पूरी ठाकुर

समतामूलक सोच के धनी कर्पूरी ठाकुर वंचित समाज के आवाज थे। बिहार में सामंतवाद का खात्मा करने हेतु वंचित समाज को जागृत करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था। कर्पूरी ठाकुर संक्षिप्त काल तक बिहार के मुख्यमंत्री 22 दिसंबर 1970 से 2 जून 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल 1979 के दौरान दो बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर रहे। और क्रांतिकारी बदलाव के पुरोधा बने। कर्पूरी ठाकुर ने ही सबसे पहले बिहार में पिछड़े, अतिपिछड़े और महिलाओ के लिए नौकरियों में आरक्षण लागू किया था। उन्होंने गरीबी को देखा ही नहीं भोगा भी था। बिहार के मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर की ईमानदारी और सादगी बेमिसाल थी। मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने अपनी बेटी की शादी लालटेन की रोशनी में की थी।

सम्राट महापद्मनंद की कुशल शासन परम्परा को कर्पूरी ने आगे बढ़ाया

कर्पूरी ठाकुर देश में अति पिछड़े वर्ग के पहले ऐसे नेता थे जिन्हे बिहार जैसे प्रदेश में दो बार मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। सम्राट महापद्मनंद की कुशल शासन करने की परम्परा को कर्पूरी ठाकुर जी ने आगे बढ़ाया और जनता से जननायक की उपाधि प्राप्त की। भारतीय इतिहास में कर्पूरी ठाकुर ही अब तक पहले और शायद आखिरी मुख्यमंत्री हुए हैं, जिन्होंने सिर्फ डिग्री के आधार पर बेरोजगारों को बुलाकर सरकारी नौकरी का नियुक्ति पत्र बाटने का ऐतिहासिक कार्य किया। बहुत आश्चर्य होता है ये देखकर कि सिर्फ एक बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने पंडित गोविन्द बल्लभ पंत को भारत रत्न दे दिया गया लेकिन बिहार प्रदेश के दो बार लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहे देश भक्त जननायक कर्पूरी ठाकुर को आज तक भारत रत्न के योग्य भी नहीं समझा गया।

कर्पूरी ठाकुर ने हिन्दी के उपयोग को बनाया था अनिवार्य

जननायक कर्पूरी ठाकुर देश के पहले मुख्यमंत्री बने, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की। वहीं, उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का भी दर्जा दिया। वहीं, राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बनाया। राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया। बिहार में सामाजिक बदलाव के प्रणेता थे कर्पूरी ठाकुर, हिन्दी के उपयोग को बनाया था अनिवार्य।

सामाजिक योद्धा थे कर्पूरी ठाकुर, चार दशक पहले ही दिया था महिलाओं, गरीब सवर्णों को आरक्षण

1952 में हुए पहली विधानसभा के चुनाव में जीतकर कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने और आजीवन विधानसभा के सदस्य रहे। वो बिहार में दो बार मुख्यमंत्री और एक बार उप मुख्यमंत्री रहे। 1952 में हुए पहली विधानसभा के चुनाव में जीतकर कर्पूरी ठाकुर पहली बार विधायक बने और आजीवन विधानसभा के सदस्य रहे। 1967 में जब पहली बार देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो बिहार की महामाया प्रसाद सरकार में वे शिक्षा मंत्री और उपमुख्यमंत्री बने।
“आज जब वोटों के गणित, सामाजिक ध्रुवीकरण और सियासी नफा-नुकसान के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष के लोग संवैधानिक मर्यादाओं और संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ा रहे हों और चाहे-अनचाहे वेबजह टकराव ले रहे हों तब जननायक कर्पूरी ठाकुर की विचारधारा और अधिक प्रासंगिक हो जाती है। कर्पूरी जी का मानना था कि संसदीय परंपरा और संसदीय जीवन राजनीति की पूंजी होती है जिसे हर हाल में निभाया जाना चाहिए। उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा गरीब, पिछड़े, अति पिछड़े और समाज के शोषित-पीड़ित-प्रताड़ित लोग रहे हैं। शायद यही वजह रही है कि उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए कर्पूरी ठाकुर ने सदैव लोकतांत्रिक प्रणालियों का सहारा लिया। मसलन, उन्होंने प्रश्न काल, ध्यानाकर्षण, शून्य काल, कार्य स्थगन, निवेदन, वाद-विवाद, संकल्प आदि सभी संसदीय विधानों-प्रावधानों का इस्तेमाल जनहित में किया। उनका मानना था कि लोकतंत्र के मंदिर में ही जनता-जनार्दन से जुड़े अहम मुद्दों पर फैसले लिए जाएं। मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जब 1977 में लोकसभा का चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे थे, तब कर्पूरी जी ने अपने संबोधन में कहा था, ‘संसद के विशेषाधिकार कायम रहें लेकिन जनता के अधिकार भी। यदि जनता के अधिकार कुचले जायेंगे तो एक न एक दिन जनता संसद के विशेषाधिकारों को चुनौती देगी।’ आज की स्थितियां कमोबेश यही हैं। सरकारें जनहित को हाशिए पर धकेल चंद लोगों की भलाई और चंद लोगों की सलाह पर जनविरोधी फैसले लेने लगी हैं।

आज नेता और जनता के बीच का अपनापन विलुप्त हो गया है

आज वर्तमान समय में नेता और जनता के बीच का वह अपनापन विलुप्त हो चला है। न तो लोहिया और चौधरी चरण सिंह के चेलों की राजनीति में, न ही जयप्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर की विरासत संभाल रहे नेताओं में और न ही दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हेडगेवार की वैचारिक परंपरा के वाहक और अटल-आडवाणी के चेलों की राजनीतिक कार्यप्रणाली में। कहना न होगा कि सभी विचारधारा की राजनीति में आज जन मानस के लिए लोक कल्याण की राजनीति कुंद हो गई है। सभी दलों के नेता जनता को सिर्फ मतदाता समझने की भूल कर रहे हैं। अगर राजनेताओं ने ऐसी भूल नहीं सुधारी तो इसका खामियाजा संसदीय मूल्यों को लंबे समय तक भुगतना पड़ सकता है।

कर्पूरी ठाकुर का संसदीय जीवन एवं विपक्ष की राजनीति

कर्पूरी ठाकुर का संसदीय जीवन सत्ता से ओत-प्रोत कम ही रहा। उन्होंने अधिकांश समय तक विपक्ष की राजनीति की। बावजूद उनकी जड़ें जनता-जनार्दन के बीच गहरी थीं। तब संचार के इतने सशक्त माध्यम नहीं थे। फिर भी कोई घटना होने पर वह सबसे पहले उनके बीच पहुंचते थे। यह जनता के बीच उनकी गहरी पैठ और आपसी सामंजस्य का प्रतिफलन था। वो हमेशा जनता की बेहतरी के लिए प्रयत्नशील रहे। जब उन्होंने 1977 में पहली बार मुख्यमंत्री का पद संभाला था तब उन्होंने बिहार में शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए कई उपाय किए। वो जानते थे कि समाज को बिना शिक्षित किए उनकी कोशिश रंग नहीं ला सकेगी। नाई जाति में पैदा होकर भी कर्पूरी ठाकुर कभी एक जाति, समुदाय के नेता नहीं रहे। वो सर्वजन के नेता थे। पक्ष, विपक्ष से जुड़े सभी लोग उनकी राजनीतिक शूचिता और दूरदर्शिता के कायल थे।

देश में पहली बार ओबीसी को आरक्षण दिलाया

सामाजिक न्याय के हिमायती कर्पूरी ठाकुर ने उस वक्त सर्वसमाज को आरक्षण देने का गजट निकाला था, जब इसे लागू करने की कल्पना कठिन थी। बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने 1973-77 के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन में अहम भूमिका निभाई। इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ जेल गए और जब 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो वो समस्तीपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए। उन्होंने 11 नवंबर 1977 को मुंगेरी लाल समिति की सिफारिशें लागू कर दीं, जिसके चलते पिछड़े वर्ग को सरकारी सेवाओं में उन्होंने कुल 27% कोटा लागू किया था। एससी-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना। तीन दशक बाद नीतीश कुमार ने उसी बिहार में महादलित और महापिछड़ा वर्ग बनाकर और महिलाओं को नौकरियों और पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण देकर कर्पूरी जी के सपनों को साकार किया है। बिहार सरकार ने सरकारी ठेकों में भी आरक्षण का प्रावधान किया है। कहना न होगा कि एक गरीब परिवार में जन्में विचारों के धनी कर्पूरी ठाकुर ने जिस राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय आज से करीब 40 साल पहले दिया था वो देश के लिए आज और भी प्रासंगिक बन चुके हैं। उन्होंने देशी और मातृभाषा को बढ़ावा देने के लिए तब की शिक्षा नीति में बदलाव किया था। वो भाषा को रोजी-रोटी से जोड़कर देखते थे। देश आज भी नई शिक्षा नीति की बाट जोह रहा है। उन्होंने गरीबों और भूमिहीनों के खातिर भूमि सुधार लागू करने की बात कही थी जो आज भी लंबित है। वो जानते थे कि इससे न केवल सामाजिक विषमता दूर होगी बल्कि कृषि उत्पादन में भी आशातीत बढ़ोत्तरी होगी। देश में आज भी भूमि अधिग्रहण पर एक मुकम्मल कानून बनाने में सरकारों को पसीने छूट रहे हैं क्योंकि वे जनमानस की जगह कॉरपोरेट घरानों से प्रेरित हो रही हैं।

कर्पूरी ठाकुर का निधन

कर्पूरी ठाकुर देशी माटी में जन्में देशी मिजाज के राजनेता थे जिन्हें न पद का लोभ था, न उसकी लालसा और जब कुर्सी मिली भी तो उन्होंने कभी उसका न तो धौंस दिखाया और न ही तामझाम। मुख्यमंत्री रहते हुए सार्वजनिक जीवन में ऐसे कई उदाहरण हैं जब उन्होंने कई मौकों पर सादगी की अनूठी मिसाल पेश की। भारतीय राजनीति में ऐसे विलक्षण राजनेता कम ही मिलते हैं। शायद इसीलिए कर्पूरी ठाकुर को सिर्फ नायक नहीं अपितु जननायक कहा गया। कर्पूरी ठाकुर जी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरू थे। इन दोनों नेताओं ने जनता पार्टी के दौर में कर्पूरी ठाकुर की उंगली पकड़कर सियासत के गुर सीखें हैं। इसीलिए लालू यादव ने जब सत्ता की कमान संभाली तो कर्पूरी ठाकुर के कामों को ही आगे बढ़ाने का काम किया। दलित और पिछड़ों के हक में कई काम किए। 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था, लेकिन उनका सामाजिक न्याय का नारा आज भी बिहार में बुलंद है। कर्पूरी ठाकुर सर्व समाज के नेता थे। वह पिछड़ों और मजलूमों की आवाज थे, उनके सतत प्रयासों से ही समाज के दलित, शोषित, वंचित लोगों के अधिकार सुरक्षित हो सके।
कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के तीन दशक बाद भी उनकी राजनीतिक विरासत को संभालने के लिए आज सभी दलों में जिस तरह की हाय-तौबा मची हुई है, यह उनकी प्रासंगिकता को प्रमाणित करती है।

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