Saturday, September 21, 2024
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त्याग और तपस्या का दूसरा नाम है किसान

राकेश बिहारी शर्मा – भारत गांवों का देश है। भारत की अधिकतर जनसंख्या गांवों में ही निवास करती है। उनमें से सबसे अधिक किसान हैं। भारतीय किसान का जीवन अत्यंत कठिन होता है। वह त्याग और तपस्या की सजीव मूर्ति होता है। इनका मुख्य व्यवसाय कृषि ही होता है। वह दिनभर खेतों में कार्य करते हैं। यह दिन ही नहीं अपितु जीवन भर मिट्टी से सोना उत्पन्न करने की तपस्या करता रहता है। भारतीय अर्थव्यवस्था एक कृषिप्रधान अर्थव्यवस्था है इसलिए हमारे देश में किसान का बहुत महत्व है।
मानव सभ्यता के विकास में कृषि की अमूल्य भूमिका रही है। मानव का अस्तित्व ही कृषि और शिकार पर टिका रहा। रेमंड विलियम के अनुसार तो कृषि से ही संस्कृति का जन्म होता है। कृषि ने ही हमे संस्कारित बनाया। प्रारम्भिक खेती, पशुपालन व शिकार की प्रक्रिया प्रकृति द्वारा नियंत्रित होती रही ,जिसमें संघर्ष था, मानवीयता थी और त्याग की भावना थी। प्रकृति के विरुद्ध उसमे कुछ भी नहीं था। जैसे-जैसे मानव के अन्दर संग्रह की प्रवृत्ति ने जगह बनाई मानव अधिक लालची, द्वेषी और दम्भी बनने लगा। त्याग और तपस्या का दूसरा नाम है किसान। हमारे देश की लगभग सत्तर प्रतिशत आबादी आज भी गांवों में निवास करती है। जिनका मुख्य व्यवसाय कृषि है।

भारत किसानों का देश

एक कहावत है कि भारत की आत्मा किसान है जो गांवों में निवास करते हैं। किसान हमें खाद्यान्न देने के अलावा भारतीय संस्कृति और सभ्यता को भी सहेज कर रखे हुए हैं। यही कारण है कि शहरों की अपेक्षा गांवों में भारतीय संस्कृति और सभ्यता अधिक देखने को मिलती है। किसान की कृषि ही शक्ति है और यही उसकी भक्ति है।
किसान शब्द का अर्थ रेडफील्ड ने इस प्रकार दिया है, ” किसान वे छोटे उत्पादनकर्ता हैं, जो केवल उपयोग के लिए ही उत्पादन करते हैं।’ राष्ट्रीय किसान नीति में “किसान” शब्द के अंतर्गत आते हैं-” जो भूमिहीन कृषि श्रमिक, बंटाईदार, काश्तकार, लघु, सीमान्त और उप-सीमान्त खेतीहर, बड़े धारणों वाले किसान, मछेरे, डेयरी, भेड़, कुक्कुट व अन्य किसान जो पशुपालन में लगे हों। इसके साथ ही बागान श्रमिक और साथ ही वे ग्रामीण और जनजातीय परिवार शामिल हैं, जो कृषि संबद्ध व्यवसायों, जैसे कि रेशम पालन और कृषि पालन के अनेक कार्यों में लगे हैं। इसमें वे जनजातीय परिवार सम्मिलित हैं, जो कभी-कभी भूमि, खेती में और गैर-इमारती लकड़ी वन उत्पादों के संग्रह तथा उपयोग में लगे हैं।

किसान हमारे पालनहार आधुनिक विष्णु

वर्तमान संदर्भ में हमारे देश में किसान आधुनिक विष्णु है। वह देशभर को अन्न, फल, साग, सब्जी आदि दे रहा है लेकिन बदले में उसे उसका पारिश्रमिक तक नहीं मिल पा रहा है। प्राचीन काल से लेकर अब तक किसान का जीवन अभावों में ही गुजरा है। किसान मेहनती होने के साथ-साथ सादा जीवन व्यतीत करने वाला होता है। किसान भारतीय जवान के मेरुदंड है। वे भारतीय समाज की केंद्रस्थ धुरी है। अतः उनके विकास, उद्धार एवं उन्नयन से ही भारत का विकास, उद्धार एवं उन्नयन संभव है। भारत का भविष्य भारतीय किसानों का भविष्य है।

भारतीय किसानों की गम्भीर समस्या

भारतीयों कृषकों की दिनावस्था के एक नहीं, अनेक कारण हैं। पहला कारण है- उनकी बेहद गरीबी। इस गरीबी के कारण ही वे खेती के आधुनिक और विकसित उपकरण खरीद नहीं पाते। वे न सिंचाई का प्रबंध कर पाते हैं, न खेतों में उर्वरक डाल पाते हैं, न उत्तम बीज खरीद पाते हैं तो आप ही बताइए कि उनका फसल अच्छा कैसे होगा? आज देश में खेती का योगदान कुल अर्थव्यवस्था में 15 प्रतिशत के लगभग होने पर भी इससे गरीब 60 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिल रहा। लेकिन भारत में अभी तक खेती और किसान को अर्थनीति में जितना महत्व मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है। भारत की रचना ऐसी है कि जब तक खेती संकट से नहीं निकलेगी किसान खुशहाल नहीं हो सकता। यहां खेत का औसत आकार 1.15 हैक्टेयर है, जो काफी छोटा है। यह आकार 1970-71 से लगातार घटता जा रहा है। लघु और सीमांत भू-स्वामित्व 2.0 हैक्टेयर से कम है, जो कुल भू-स्वामित्व का 72 प्रतिशत है। छोटी काश्तकारी की प्रधानता कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर आर्थिक किफायत की राह में मुख्य बाधा है। इसके अतिरिक्त छोटे और सीमांत किसानों के पास मोलभाव की शक्ति कम है क्योंकि उनके पास विक्री योग्य अधिशेष कम होता है और वे बाजार की कीमत स्वीकार करने वाले होते हैं। बड़े पैमाने पर कृषि के लाभ के लिए लघु क्षेत्र वाले किसानों की बहुलता एक बड़ी चुनौती है।
भारत में 60 प्रतिशत खेती वर्षा पर आधारित है। केवल 40 प्रतिशत खेती के लिए सिंचाई के साधन उपलब्ध है। काफी समय से फसलों के सही दाम की मांग की जा रही है। किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य मिलना चाहिए। इसी आधार पर न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली शुरू की गई थी। पहले केवल गेहूं और धान के लिए यह व्यवस्था की गई, वर्ष 1986 में यह 22 जिलों के लिए लागू किया गया है। पंजाब, हरियाणा, पूर्वी व उत्तरी राजस्थान, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश और पश्चिमी उत्तर प्रदेश आदि को छोड़कर कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली पर फसल खरीदने की कोई व्यवस्था नहीं है। इस कारण किसान साल भर मेहनत करके फसलें तैयार करता है लेकिन उसे लागत भी नहीं मिल पाती, जबकि बिचौलिए मोटा लाभ कमा रहे हैं। लेकिन इसमें भी अनेक खामियां हैं, जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है। इन खामियों को दूर करने के लिए किसान आयोग का गठन किया गया था। फल एवं मौसमी सब्जियों का न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित नहीं होता। जिन फसलों का समर्थन मूल्य निर्धारित होता है, वह भी किसानों को नहीं मिल पता है।

भारत में स्वतंत्रता पूर्व किसान आंदोलन

भारतीय संस्कृति में पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, संस्कार, कर्मकांड आदि खेती से जुड़े हुए हैं। खेती ही भारत के आत्मनिर्भर होने का मूल आधार थी लेकिन अंग्रेजों ने भारत की अर्थव्यवस्था को नष्ट करने के लिए भूमि व्यवस्था को बदलकर जमींदारी प्रथा आरंभ की। इससे वास्तविक किसान निरंतर गरीब होते रहे। खेती पर देश की आत्मनिर्भरता नष्ट होती गई। भारत में किसान आंदोलन का लगभग 200 वर्षों का इतिहास है। 19 वीं शताब्दी में बंगाल का संथाल एंव नील विद्रोह तथा मद्रास, पंजाब एवं बिहार में किसान आंदोलन इसके उदाहरण है। भारतीय किसान आंदोलन की राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका रही। किसान आंदोलन और राष्ट्रीय आंदोलन का अटूट रिश्ता था। अप्रैल, 1917 में नील कृषकों द्वारा बिहार के चम्पारण जिले में गांधी जी के नेतृत्व में चलाया गया किसान संघर्ष देश का राजनीतिक दृष्टि से पहला संगठित आंदोलन था। अंग्रेजी शासन ने किसानों के संघर्षों को दंगों और न्याय तथा कानून से संबंधित प्रशासनिक समस्या के रूप में देखा था। किसान आंदोलन वहीं उभरे जहां राष्ट्रीय आंदोलन की नींव पड़ चुकी थी उदाहरण के लिए केरल, पंजाब, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार। वर्ष 1908 में” हिंद स्वराज” में गांधी जी ने किसानों को आत्मबल युक्त समुदाय के रूप में देखा था और उसे सत्याग्रह का परंपरागत प्रयोगकर्ता बताया था। हमारे यहां की एक प्रसिद्ध कहावत थी, “उत्तम खेती मध्यम बान, करे चाकरी अधम समान” अर्थात आजीविका श्रेष्ठ साधन कृषि है, व्यापार और नौकरी का स्थान उसके बाद आता है। इसे पुनः चरितार्थ किया जा सकता है। किसान चाहे तो अपने गाँव में अपनी सरकार चला सकते हैं मगर उनके यहाँ पारस्परिक सद्भाव, बुद्धि-विचार व संगठन का आभाव हैं।

संघर्ष भरा किसानों का जीवन

वर्ष 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ो का तुलनात्मक अध्ययन कर देखें तो पता चलता है कि 70 लाख किसानों ने खेती करना बंद कर दिया है। किसानों को आत्महत्या की दशा तक पहुँचाने के मुख्य कारणों में खेती का आर्थिक दृष्टि से नुकसानदायक होना ,भारतीय कृषि का मानसून पर निर्भर होना, मानसून की असफलता, सूखा, ऋण का बोझ तथा सरकार की किसान विरोधी नीतियाँ आदि जिम्मेदार कारक हैं। उदारीकरण की नीतियों के बाद नकदी खेती को बढ़ावा मिला। सामाजिक-आर्थिक बाधाओं के कारण पिछड़ी जाती के किसानों के पास नकदी फसल उगने लायक तकनीकी जानकारी का अक्सर आभाव रहा है। यही कारण है कि आज का किसान नकदी फसलों की लालच में परम्परागत फसलों को छोड़कर कर्ज में डूब गया है।

भारतीय किसान आज भी आत्महत्या करने पर मजबूर

आजादी के बाद और उदारीकरण, औद्योगीकरण एवं अन्य आर्थिक सामाजिक सुधारों के माध्यम से उद्योगों का कायाकल्प हुआ और उद्योगों को घाटे से उबरने के लिए करोड़ों रुपये की सरकारी राहत दी जाती रही है लेकिन जब कृषि क्षेत्र की बात आती है, किसानों के कर्ज की बात आती है तो इतनी कम राशि दी जाती है, उससे किसानों को लाभ तो नहीं होता है, हां उनका मखौल जरूर उड़ाया जाता है। किसानों की बदहाली का अंदाजा उसके कर्ज पर लगाया जा सकता है। किसानों पर वर्तमान में देशभर के किसानों पर 12 लाख 60 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है। इसे माफ करने के लिए राज्य सरकारों के पास पैसा ही नहीं है। जो किसान प्रकृति की रक्षा के साथ सभी जाति वर्ग को कृषि से रोजगार देता था, आज वह समय के साथ अपने में बदलाव नहीं करने के कारण संकटों से जूझ रहा है।
पिछले लगभग 20 वर्षों से भारत के किसान लगातार आत्महत्या करने पर मजबूर हो रहे हैं। वर्ष 1997-98 में किसानों द्वारा की गई आत्महत्या विदर्भ, महाराष्ट्र के बाद बुंदेलखंड आंध्रप्रदेश और में भी सिलसिला शुरू हो गया। एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पहली बार वर्ष 1997 में आत्महत्याओं को रिकार्ड में दर्ज किया गया। इसके अनुसार वर्ष 1997-98 में लगभग 6,000 किसानों ने आत्महत्याएं की। किसानों की आत्महत्याओं का पहला कारण ऋण और दूसरा प्राकृतिक आपदाओं से फसल का नुकसान है। इसके साथ ही कृषि उपज से होने वाली कमी, खराब बीज और उर्वरक की उपलब्धता भी अन्य कारण है। इस कारण एक बड़ा वर्ग किसानी छोड़ रहा है। वह किसानी की बजाय शहरी मजदूरी को अच्छा समझने लगा है। विदेशी कंपनियों ने भी बेतहाशा शोषण किया है। देशी बीज और खाद के स्वरूप को कुछ देशी और कुछ विदेशी कंपनियों ने खत्म कर दिया है। अक्सर यह देखा जाता है कि अनाज क्रय केंद्र पर दलालो की मिलीभगत से अनाज व्यवसायी ही किसानों से सस्ते दर पर खरीद कर क्रय केंद्र पर अपना अनाज बेच देते हैं। इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसान अपना अनाज बेचने में सफल नहीं हो पाता है। जमाखोर किसानों के उत्पाद का उचित मूल्य नहीं दे रहे है। उदाहरण के लिए किसानों से कई बार प्याज 2 रुपये किलो की दर से खरीदने के बाद जमाखोर 60 रुपये की दर से बेच देते हैं। भूमि अधिग्रहण को लेकर भी देश भर के किसानों में असंतोष है। वर्ष 2013 में देश में अंग्रेजी राज के भूमि अधिग्रहण कानून को बदलकर नया कानून बनाया गया है। इस कानून में भी अनेक खामियां हैं। उचित मुआवजे के लिए किसान अदालत के दरवाजे खटखटा रहे हैं।
अभी ताजे आकड़े के अनुसार- “एक तरफ देश में लोग भूख से मर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ 670 लाख टन खाद्य पदार्थ बर्बाद हो रहा है। एक अध्ययन के मुताबिक उचित भंडारण की कमी ने खाद्यान की बर्बादी को बढ़ाया है, जिससे एक तरफ महगाई बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ किसानों को निवेश पर लाभ तो क्या, लागत की वसूली भी नहीं हो पा रही है।

किसानों के हित में बेहतर सुझाव

किसानों की बदहाली को ठीक करने के लिए सरकार को फिजूलखर्ची और भ्रष्टाचार पर रोक लगाना होगा। इस तरह से बचाई गयी धनराशि किसानों के कल्याण पर खर्च किये जा सकते हैं। देश की बदहाली बुलेट ट्रेन और एक्सप्रेस-वे से दूर नहीं होगी। देश की बदहाली कृषि क्षेत्र का विकास ही दूर करेगा। जिसके ऊपर देश की 70 प्रतिशत आबादी निर्भर करती है। सरकार के पास किसानों का कर्ज माफ़ करने के लिए पैसे नहीं हैं वहीं देश में कई सौ करोड़ रूपये खर्च करके बडें-बड़े भवन और मेमोरियल बनाया जा रहा है। समय रहते किसानों ने यदि अपनी उत्पादन प्रणाली नहीं बदली तो स्थिति शायद ही बदले। इसलिए किसानों को समय के साथ फलों की खेती, सब्जी की खेती तथा दुग्ध उत्पादन को बढ़ाना होगा। किसानों की हालात सुधारने के लिए सरकारों को विशेष प्रयास करना होगा। किसानों की कर्जमाफी को लेकर पूरे देश में कदम उठाने का वक्त आ गया है।
भारत में मॉनसून की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। इसके बावजूद देश के तमाम हिस्सों में सिंचाई व्यवस्था की उन्नत तकनीकों का प्रसार नहीं हो सका है। उदाहरण के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के क्षेत्र मंो सिंचाई के अच्छे इंतजाम है लेकिन देश का एक बड़ा हिस्सा ऐसा भी है जहां कृषि, मॉनसून पर निर्भर है। इसके इतर भूमिगत जल के गिरते स्तर ने भी लोगों की समस्याओं में इजाफा किया है।
75 साल के स्वतंत्र भारत मे विकास तो बहुत हुआ पर किसान वहीं का वहीं रह गया। जहां पहले था। उसका ह्रदय आज भी भूखा प्यासा है। वर्तमान का किसान बेचैन है, उदास है। अपने अंधकारमय भविष्य के प्रति निराश है। किसान सारी पूंजी लगाकर लगन से खेती करता है पर भरोसा नहीं रहता की खेती होगी या नहीं। अंग्रेज भारत के किसानों को सबसे धनी मानते थे क्योंकि वे किसानों के उत्पादन का लागत कम देते और ऋण भी किसानों पर लाद देते थे। भारत का वही किसान सुखी है। जिसके पास नौकरी, बिजनेस या अन्य व्यवसाय से आय प्राप्त होती है। जो मात्र कृषि पर निर्भर रहते हैं उनकी स्थिति बदतर है जिसे देख स्वयं दरिद्रता भी डरती है।
किसान की दयनीय दशा को देखने वाला कोई नहीं है। किसान कितना भी गरीब क्यों न हो उसे सरकारी आंकड़े में अमीर ही दिखाया जाता है। आत्मतृप्ति, दूसरों का पेट भरने के लिए किसान दिन-रात कड़ी परिश्रम करता है। तब जाकर अन्न पैदा होता है। जून की गर्मी हो,बरसात हो या पूस की रात किसान कोल्हू के बैल की तरह काम करता है। उसे कभी भी आराम नहीं मिलता। तब भी उसे रोटी, कपड़ा जुटाने में असमर्थता ही रहती है उसका कारण है अनाज की कम कीमत।
किसानों की स्थितियाँ सुधरने की बजाय और अधिक बिगड़ गयी हैं। किसानों के अनाज का उचित मूल्य मिलना चाहिए। जिससे कि उनके जीवन मे भी बदलाव आए। हम कितने भी मॉर्डन क्यों न हो जाएं पर रोटी गूगल से डाउनलोड नहीं होगी बल्कि वह भी किसानों के खेत से ही आएगी।
अब हमें गाँवों में स्वर्ग उतारना है, नंदनकानन बसाना है, युगों से कृषकों की मुरझाया हुआ मुखाकृति पर मुसकराहटों के फूल खिलाने है। कृषक मानवजाति की विभूति है। जिसने अनाज के दाने उपजाए, पौधों के पत्ते लहराए, वह मानवता का महान सेवक है और उसका महत्व किसी भी राजनीतिज्ञ से कम नहीं।अगर किसान बर्बाद हुए तो देश के चमकते महानगर भी बर्बाद हो जायेंगे। इस प्रकार इन तमाम सुझावों और विचार-विमर्शों के माध्यम से किसान के बदहाल जीवन को खुशहाल बनाया बनाया जा सकता हैं।

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