राकेश बिहारी शर्मा – भारत माता के गौरव एवं सम्मान की रक्षा के लिए जिन महान् विभूतियों ने संघर्ष किया है, उनमें महाराष्ट्र भूमि से अपना सर्वस्व बलिदान करने वालों में वीरसावरकर का नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। स्वतंत्रता के लिए विदेशियों से जूझने वालों में इस भूमि से नाना साहब, वासुदेव बलवंत फड़के, चाफेकर बन्धु, रानाडे, तिलक भी हुए हैं, किन्तु वीर सावरकर का इसमें विशिष्ट योगदान रहा है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सेनानी और राष्ट्रवादी नेता विनायक दामोदर सावरकर एक हिंदुत्ववादी, राजनैतिक चिंतक और स्वतंत्रता सेनानी थे। सावरकर पहले स्वतंत्रता सेनानी व राजनेता थे जिन्होंने ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। उन्हें प्रायः वीर सावरकर के नाम से सम्बोधित किया जाता है। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रांतिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, ओजस्वी कवि, प्रखर वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया है।
वीर सावरकर का जन्म, शिक्षा और परिवार- भारतीय स्वतंत्रता के अग्रदूत वीर सावरकर का जन्म आज ही के दिन 28 मई, 1883 में महाराष्ट्र के नासिक जिले के भागुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम राधाबाई सावरकर और पिता दामोदर पंत सावरकर था। उनके माता-पिता राधाबाई और दामोदर पंत की चार संतानें थीं। वीर सावरकर के तीन भाई और एक बहन भी थी। उनकी प्रारंभिक शिक्षा नासिक के शिवाजी स्कूल से हुयी थी। वे बचपन में ही गीता के श्लोक कंठस्थ कर लिए थे। ऐसी प्रखर मेधा शक्ति वाले शिष्य के प्रति शिक्षकों का असीम स्नेह होना स्वाभाविक ही था। मात्र 9 साल की उम्र में हैजा बीमारी से उनकी मां का देहांत हो गया था जिसके कुछ वर्ष बाद ही उनके पिता की भी मृत्यु हो गई।भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई और भारत में हिंदूत्व का प्रचार-प्रसार करने का श्रेय क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर को जाता है। सावरकर जी भारतीय स्वतंत्रता संग्राम सफलतम व्यक्त्वि रहे किन्तु आज भी लोग उनकी नाम पर तुष्टिकरण की राजनीति करते है। सावरकर पहले स्वतंत्रता सेनानी व राजनेता थे जिन्होंने ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अग्रिम पंक्ति के सेनानी और प्रखर राष्ट्रवादी नेता थे। हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बडा श्रेय सावरकर को जाता है। वे न केवल स्वाधीनता-संग्राम के एक तेजस्वी सेनानी थे अपितु महान क्रांतिकारी, चिन्तक, सिद्धहस्त लेखक, कवि, ओजस्वी वक्ता तथा दूरदर्शी राजनेता भी थे। वे एक ऐसे इतिहासकार भी हैं जिन्होंने हिन्दू राष्ट्र की विजय के इतिहास को प्रामाणिक ढंग से लिपिबद्ध किया है।
स्वतंत्रता आन्दोलन में सावरकर का योगदान और उपहास – उनके व्यक्तित्व का गलत आकलन और उनकी मृत्यु के इतने वर्षों बाद भी उनका उपहास उड़ाने वालों की एक लंबी सूची है। किंतु काला पानी की भयावह सजा का अनुमान उनके आलोचकों को नहीं है। यदि होता तो वे वीर सावरकर की पूजा करते, आलोचना नहीं। काला पानी की विभीषिका, यातना और त्रासदी किसी नरक से कम नहीं है। सावरकर ने न सिर्फ इसे भोगा, बल्कि उन्होंने इस अनुभव से ‘काला पानी’ नामक एक उपन्यास भी लिखा। यह उपन्यास अंडमान की जेल में बंद सश्रम कारावास काट रहे बंदियों पर हो रहे अत्याचारों और क्रूरतापूर्ण व्यवहार के बारे में त्रासद वर्णन करता है। वर्ष 1906 में इंग्लैंड चले गए और लंदन के इंडिया हाउस में रहते हुए क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ लेखन कार्य में जुट गए। इंडिया हाउस उन दिनों राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था जिसे पंडित श्यामजी चला रहे थे। सावरकर ने ‘फ्री इंडिया’ सोसाइटी का निर्माण किया जिससे वह भारतीय छात्रों को स्वतंत्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। उनकी एक लेखक के तौर पर यहीं से पहचान बननी प्रारंभ हुई। वर्ष 1907 में ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ नामक पुस्तक लिखनी प्रारंभ की। उनके मन में आजादी की अलख जल रही थी। अपने जीवनकाल में संघर्षों के बाद भी उन्होंने विपुल लेखन किया। गांधीजी की हत्या के बाद नाथूराम गोडसे के अलावा सावरकर को भी गिरफ्तार किया गया था, क्योंकि गोडसे भी हिंदू महासभा का कार्यकर्ता था जिसके सावरकर 1943 तक अध्यक्ष रह चुके थे। हत्या की साजिश में शामिल होने का उन पर भी आरोप लगाया गया। हालांकि नाथूराम गोडसे ने हत्या की योजना के लिए खुद को ही जिम्मेदार बताया। बाद में आरोप मुक्त करते हुए सावरकर को रिहा कर दिया गया। तमाम उपलब्धियों के बावजूद जब सावरकर का नाम महात्मा गांधी की हत्या के आरोप से जुड़ गया, तो सावरकर की छवि को भी धूमिल करने का निरंतर प्रयास किया गया। देखा जाए तो सावरकर अकेले ऐसे नहीं हैं जिन्हें इतिहास में उपेक्षा मिली। ऐसे अनेक क्रांतिवीर हैं जो अंग्रेजों से लड़े, किंतु स्वतंत्र भारत की बदली राजनीति ने उन्हें अप्रासंगिक कर दिया। बावजूद इसके इससे सावरकर का संघर्ष और त्याग कहीं से कम नहीं होता। कई बार उनकी भगत सिंह से तुलना की जाती है कि आखिर भगत सिंह ने माफी क्यों नहीं मांगी। सावरकर अपने माफीनामे को रणनीति की तरह इस्तेमाल करते हैं। वे शायद यह मानते रहे होंगे कि यहां से निकलकर वे देश के लिए कुछ कर पाएं। हिंदुत्व की विचारधारा के विरोधी जनों ने उनके स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को भी लांछित करना प्रारंभ किया, ताकि उन्हें अंग्रेजों का पिट्ठू बताकर हिंदुत्व को भी लांछित किया जा सके। निशाने पर दरअसल सावरकर नहीं, हिंदुत्व का विचार है। सावरकर की सारी तपस्या पर पानी फेरने के यह जतन तब किए जा रहे हैं, जब महात्मा गांधी भी उन्हें ‘वीर’ कहकर संबोधित करते थे। सरदार भगत सिंह भी सावरकर को ‘आदर्श’ के रूप में देखते थे। ‘मतवाला’ के नवंबर 1924 के एक अंक में भगत सिंह का लेख बलवंत सिंह के छद्म नाम से छपा है। ‘विश्व प्रेम’ शीर्षक से छपे इस लेख में भगत सिंह लिखते हैं, ‘विश्व प्रेमी वह वीर है जिसे भीषण विप्लववादी, कट्टर अराजकतावादी कहने में हम लोग तनिक भी लज्जा नहीं समझते- वही वीर सावरकर। हालांकि वर्ष 1966 में इंदिरा गांधी ने सावरकर के बलिदान, देशभक्ति और साहस को प्रणाम करते हुए अपनी श्रद्धांजलि र्अिपत की थी। वर्ष 1970 में इंदिरा सरकार ने सावरकर के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।
सावरकर का राजनैतिक जीवन और संघर्ष – सावरकर बचपन से ही क्रांतिकारी थे। उनके ह्रदय में राष्ट्रभावना कूट-कूट के भरी थी। पुणे में उन्होंने ̔अभिनव भारत सोसाइटी ̕का गठन किया और बाद में स्वदेशी आंदोलन का भी हिस्सा बने। कुछ समय बाद वह तिलक के साथ ̔स्वराज दल ̕में शामिल हो गए। वर्ष 1906 जून में बैरिस्टर बनने के लिए वे इंग्लैंड चले गए और वहां भारतीय छात्रों को भारत में हो रहे ब्रिटिश शासन के विरोध में एक जुट किया। उन्होंने वहीं पर ̔आजाद भारत सोसाइटी का गठन किया। सावरकर द्वारा लिखे गए लेख ̔इंडियन सोशियोलाजिस्ट’ और ̔तलवार’̕ नामक पत्रिका में प्रकाशित होते थे। वे ऐसे लेखक थे जिनकी रचना के प्रकाशित होने के पहले ही प्रतिबंध लगा दिया गया था। सावरकर ने इस पुस्तक में 1857 के ̔सिपाही विद्रोह’ को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतंत्रता की पहली लड़ाई बताया था। वर्ष 1909 में मदनलाल धिंगरा, सावरकर के सहयोगी, ने वायसराय, लार्ड कर्जन पर असफल हत्या के प्रयास के बाद सर विएली को गोली मार दी। उसी दौरान नासिक के तत्कालीन ब्रिटिश कलेक्टर ए.एम.टी जैक्सन की भी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। इस हत्या के बाद सावरकर पूरी तरह ब्रिटिश सरकार के चंगुल में फंस चुके थे। उसी दौरान सावरकर को 13 मार्च 1910 को लंदन में कैद कर लिया गया। अदालत में उनपर गंभीर आरोप लगाये गए, और 50 साल की सजा सुनाई गयी। उनको काला पानी की सज़ा देकर अंडमान के सेलुलर जेलभेज दिया गया और लगभग 14 साल के बाद रिहा कर दिया गया। वहां पर उन्होंने कील और कोयले से कविताएं लिखीं और उनको याद कर लिया था। दस हजार पंक्तियों की कविता को जेल से छूटने के बाद उन्होंने दोबारा लिखा। वर्ष 1920 में महात्मा गाँधी, विट्ठलभाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक ने सावरकर को रिहा करने की मांग की। 2 मई 1921 में उनको रत्नागिरी जेल भेजा गया और वहां से सावरकर को यरवदा जेल भेज दिया गया। रत्नागिरी जेल में उन्होंने “हिंदुत्व पुस्तक” की रचना की। वर्ष 1924 में उनको रिहाई मिली मगर रिहाई की शर्तों के अनुसार उनको न तो रत्नागिरी से बाहर जाने की अनुमति थी और न ही वह पांच साल तक कोई राजनीति कार्य कर सकते थे। रिहा होने के बाद उन्होंने 23 जनवरी 1924 को ̔रत्नागिरी ‘हिंदू सभा’ का गठन किया और भारतीय संस्कृति और समाज कल्याण के लिए काम करना शुरू किया। थोड़े समय बाद सावरकर तिलक की स्वराज पार्टी में शामिल हो गए और बाद में हिंदू महासभा नाम की एक अलग पार्टी बना ली। वर्ष 1937 में अखिल भारतीय हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और आगे जाकर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का हिस्सा भी बने। सावरकर ने पाकिस्तान निर्माण का विरोध किया और गांधीजी को ऐसा करने के लिए निवेदन किया।
सावरकर के सामाजिक कार्य – वीर सावरकर ने समाज मे हिंदूत्व के प्रचार-प्रसार के लिए कई कार्य किए। 1897 की गर्मियों में महाराष्ट्र में प्लेग फैला हुआ था, जिसपर अंग्रेजी हुकूमत ध्यान नहीं दे रही थी। इस बात से क्षुब्ध हो कर दामोदर चापेकर ने ब्रिटिश ऑफिसर को गोली मार दी, जिस कारण उन्हें मौत की सजा दे दी गयी। इस घटना के बाद सावरकर ने अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी गतिविधियाँ बढाने के लिए “मित्र मेला” का गठन किया। फर्ग्युसन कॉलेज में पढ़ते हुए उन्होंने छात्रों को एकत्रित किया और स्वतंत्रता सेनानियों की फ़ौज खड़ी करने के लिए वर्ष 1904 में अभिनव भारत संगठन की स्थापना की। इस दौरान सावरकर ने क़ानून, इतिहास, और दर्शनशास्त्र से सम्बंधित कई किताबें पढ़ीं और व्यायामशालाओं में जाकर प्रशिक्षण भी लिया। इन्ही दिनों वे लोकमान्य तिलक से भारत की आज़ादी के लिए विचार-विमर्श भी किया करते थे। वर्ष 1905 बंगाल के विभाजन के विरोध में उन्होने विदेशी वस्त्रों की होली जलायी थी। वर्षों बाद महात्मा गाँधी ने भी स्वदेशी आन्दोलन में ऐसा ही किया था। इस घटना से कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन नाराज हो गया और सावरकर को डिसमिस कर दिया गया। लन्दन प्रवास पर उनकी मुलाकात लाला हरदयाल, मदनलाल ढींगरा, आदि छात्रों से हुई। सावरकर ने सभी को अभिनव भारत से जोड़ दिया। अपने लन्दन प्रावास के दौरान ही वर्ष 1908 में वीर सावरकर ने एक किताब भी लिखी थी, जिसका नाम था- “फर्स्ट वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस”।
सावरकर को कैसे मिली ‘वीर’ की उपाधि – सावरकर को कैसे मिली ‘वीर’ की उपाधि इस घटना के पीछे एक पूरी कहानी है। बात साल 1936 की है, जब कांग्रेस पार्टी में एक बयान को लेकर सावरकर का विरोध होने लगा था। पार्टी के सभी कार्यकर्ता उनके खिलाफ हो गए थे। लेकिन एक व्यक्ति ऐसा था, जो सावरकर के साथ खड़ा था। उस शख्स का नाम था- पीके अत्रे। आचार्य पीके अत्रे नौजवानी की उम्र से ही सावरकर से काफी प्रभावित थे। पीके अत्रे एक मशहूर पत्रकार, शिक्षाविद, कवि और नाटककार थे। इसके बाद पीके अत्रे ने सावरकर के स्वागत के लिए एक कार्यक्रम का आयोजन किया। ये कार्यक्रम बालमोहन थिएटर के तहत आयोजित किया गया था। कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने इस कार्यक्रम का काफी विरोध किया। उनके खिलाफ पर्चें बांटे और काले झंडे दिखाने की धमकी दी। लेकिन फिर भी सावरकर स्वागत कार्यक्रम में शामिल होने हजारों लोग आए। इसी दौरान पीके अत्रे ने सावरकर को ‘स्वातंत्र्यवीर’ की उपाधि से संबोधित किया। बाद में सावरकर के नाम के आगे वीर जोड़ दिया गया और उन्हें वीर सावरकर के नाम से जाना जाने लगा, जो आज तक चर्चित है।
सावरकर ने चुकाया नाम का कर्ज – सावरकर ने चुकाया नाम का कर्ज ये कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। खास बात ये है कि जिसने सावरकर को ‘वीर’ की उपाधि दी, सावरकर ने भी उन्हें ‘आचार्य’ नाम दिया। पीके अत्रे को सबसे पहले आचार्य कहकर सावरकर ने ही पुकारा था। पुणे में सावरकर के स्वागत में आयोजित कार्यक्रम के बाद एक और कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इसका आयोजन वीर सावरकर ने किया। यहां वीर सावरकर ने पीके अत्रे को महान शिक्षाविद, लेखक और कलाकार कहते हुए आचार्य शब्द से पुकारा। बाद में पीके अन्ने के नाम के साथ भी ‘आचार्य’ जुड़ गया, ठीक वैसे ही जैसे सावरकर के नाम के साथ ‘वीर’ जुड़ा। सावरकर से विवाद सावरकर को लेकर अनेक विवाद हैं। उनमें एक विवाद ये है कि साल 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के छठे दिन ही उन्हें गाँधी की हत्या की साजिश में शामिल होने के आरोप में मुंबई से गिरफ़्तार किया गया था, लेकिन फ़रवरी 1949 में उन्हें बरी कर दिया गया था।
एक फरवरी 1966 को, सावरकर ने घोषणा की कि वह मृत्यु तक उपवास रखेंगे और इस कृत्य को ‘आत्मरक्षा’ करार देंगे। जिसके बाद उन्होंने खाना बंद कर दिया और दवाएँ भी त्याग दीं जिससे अंततः 26 फरवरी, 1966 को 83 वर्ष की अवस्था में उनकी मृत्यु हो गई। विनायक दामोदर सावरकर के कार्य ने उन्हें अमर कर दिया।