Saturday, December 21, 2024
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 राधाकृष्ण के अनुनय उपासक बाबू तीतन सिंह की 102 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

राकेश बिहारी शर्मा – सभी मानव जाति के हित के लिए केवल एक धर्म होता है अपनापन। एकनिष्ठ भाव से अन्तःआत्मा का चिंतन ही श्रेष्ठ धर्म है। सनातन धर्म में चार पुरुषार्थ स्वीकार किए गये हैं,धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। जिनमें धर्म सबसे प्रमुख है। तीन अन्य पुरुषार्थ ये हैं- अर्थ, काम और मोक्ष। इसके साक्षात प्रतिमान थे मुरौरा निवासी जमींदार बाबू तीतन सिंह। ‘यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म।’ अर्थात जिस काम के करने से अभ्युदय और निश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है। इसी दर्शन को अपनी जीवन में साकार रूप देने तथा संत समागम हरिकथा के आदर्श भाव को जीने वाले कृष्ण-राधा अनुरागी बाबू तीतन सिंह ताउम्र साधू जीवन जिये। उनके अंतःकरण में साक्षात भगवान कृष्ण का वास था और राधेकृष्ण मंदिर ही उनका निवास था। उनके अन्तःकरण में जो राधाकृष्ण का प्यार मौजूद था, वही उनके जीवन का वाह्यस्वरूप में भी विद्यमान था।  राधाकृष्ण के अनुनय उपासक बाबू तीतन सिंह की 102 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

बाबू तीतन सिंह का जन्म श्रावण कृष्ण पक्ष एकादशी तिथि, दिन शनिवार तदनुसार 05 अगस्त 1820 ईस्वी में नालंदा के एक जमींदार परिवार में हुआ था। इनके पिता बाबू भीखन सिंह छोटे जमींदार थे। शानदार व्यक्तित्व एवं अपनी कुशल कार्य क्षमता के बल पर इस जमींदारी को आगे बढ़ाकर बाबू तीतन सिंह ने इसका विस्तार किया। इनके पारिवारिक दस्तावेजों के अनुसार, अपनी छोटी सी पुश्तैनी 300 रुपये वार्षिक आय वाली जमींदारी को इन्होंने लगभग 65,000 रुपये वार्षिक आय वाली जमींदारी में बदल दिया। इसके अतिरिक्त इन्होंने लगभग 450 एकड़ बख़ास्त भूमि अर्जित की। पारिवारिक दस्तावेजों के अनुसार, इनका मौजा पटना (वर्तमान नालंदा) जिले के कई इलाकों में दूर-दूर तक फैला हुआ था।
बाबू भीखन सिंह के तीन पुत्रों में ज्येष्ठ पुत्र बाबू तीतन सिंह एक कर्तव्यपरायण धार्मिक व्यक्ति थे। इनके पूर्वज अरवल से मालदह (शेखपुरा) आकर बसे थे। प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए ये पटना गए। पटना में शिक्षा प्राप्ति के दौरान इनकी मित्रता एवं घनिष्टता बाबू ऐदल सिंह (रामी बिगहा) से हो गयी। जीवन का उद्देश्य और आदर्श क्या होना चाहिए? इस विषय पर दोनों मित्रों में सदैव परिचर्चा होती थी। बाबू ऐदल सिंह शिक्षा के विकास में अपना योगदान देना चाहते थे। जबकि बाबू तीतन सिंह धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों के प्रति निष्ठा एवं आस्था रखते थे। आगे चलकर बाबू ऐदल सिंह ने बिहारशरीफ में नालन्दा कॉलेज का निर्माण में अपना योगदान दिया और शिक्षा के उत्थान के लिए सदैव क्रियाशील रहे जो उनके जीवन का उद्देश्य था।
दूसरी तरफ अपने धार्मिक स्वभाव के अनुरूप बाबू तीतन सिंह आगे चलकर धर्म के प्रति अपनी निष्ठा कायम रखी। वे राधा-कृष्ण के अनुनय भक्त थे। उन्होंने अपनी धर्म निष्ठा और भगवत प्रेम का प्रतीक मुरौरा ग्राम (नालंदा, बिहार) में राधा-कृष्ण के विशाल मंदिर स्थापित किया। कहा जाता है कि इस मंदिर के निर्माण के पूर्व यहाँ के जंगलों और झाड़ियों में उन्हें बाँसुरी की आवाज सुनाई पड़ती थी। इससे प्रभावित होकर बाबू तीतन सिंह ने राधा-कृष्ण मंदिर (वृंदावन बांके बिहारी मंदिर के तर्ज पर) के निर्माण की यही नींव 1856 में रखी। मंदिर निर्माण के क्रम में उनके पुत्र रामदयाल सिंह का अकस्मात निधन हो गया। लोगों ने इसे अनिष्ट एवं अशुभ संकेत मानकर बाबू तीतन सिंह को आगे मंदिर निर्माण न करने की सलाह दी। परन्तु भगवत प्रेम और धर्म के प्रति अटूट आस्था रखने वाले बाबू साहब कहाँ मानने वाले थे। “अगर मेरे दूसरा पुत्र का भी निधन हो जाये तो भी मैं मंदिर निर्माण का कार्य नही रोक सकता”- इस घोषणा के साथ ही बाबू साहब ने मंदिर निर्माण का कार्य जारी रखा। प्रभु की परीक्षा पूर्ण हुई। आगे बिना किसी अनिष्ट के मंदिर निर्माण का कार्य सन 1864 में पूर्ण हुआ।

 राधाकृष्ण के अनुनय उपासक बाबू तीतन सिंह की 102 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

उत्तर भारतीय स्थापत्य कला से निर्मित यह मंदिर, मथुरा के बांकेबिहारी मंदिर का प्रतिरूप है। मथुरा के मंदिर के समान ही इस मंदिर में राधाकृष्ण की मनमोहक प्रतिमा स्थापित है। इसमें चाँदी के किवाड़ लगा है, जिसमें राधा और कृष्ण के सुंदर चित्र उकेरे गए हैं। यह अपने आप में बेमिसाल कृति है। इस मंदिर में दो स्वर्ण गुम्बज है। इसके विशाल प्रांगण मिर्जापुर के पत्थरो से निर्मित है। गर्भ गृह के बाहर का प्रांगण सफेद और काले चौकोर संगमरमर से सुसज्जित है। मंदिर के प्रांगण में एक फव्वारा नुमा टँकी निर्मित है जो मंदिर के छत पर बने एक जल संचयन प्रणाली से भूमिगत जुड़ी हुई है। रंग भरी एकादशी, होली आदि के अवसर पर इसमें रंग घोल मंदिर के प्रांगण में होली खेली जाती थी। यह कार्यक्रम होली से पाँच दिन पूर्व प्रारम्भ हो जाता था। वृंदावन एवं बरसाने के मंदिरों में आज भी ऐसी होली का आयोजन होता है। मंदिर के सामने के हिस्से में यात्री धर्मशाला निर्मित था। विशेषकर यह तीर्थाटन में निकले साधु-सन्यासियों के ठहरने के लिए बनवाया गया था। मंदिर के बाहर फुलवारी के समीप चार कमरों का एक नौबतखाना था। अपने जमाने के बड़े धुपन मियाँ जैसे प्रसिद्ध शहनाई वादक यहाँ की शोभा बढ़ाते थे। शहनाई की धुने सुबह-शाम की आरती के समय बजती थी। पर्वों त्योहारों के अवसर पर दिन-दिन भर शहनाई बजा करती थी। शहनाई वादकों के रहने की व्यवस्था नौबतखाने के पिछले हिस्से में थी। बाबू साहब ने संगीत की कभी विधिवत शिक्षा तो नही ली थी पर कहा जाता है कि वे संगीत के अच्छे जानकार थे। फुर्सत के लम्हों में वे शहनाई पर अक्सर राग भैरवी सुना करते थे। कई संगीतकारों और वादकों को उन्होंने प्रश्रय भी दिया था। नौबतखाना के बगल में ही नूर मियाँ के रहने की व्यवस्था थी। नूर मियाँ सिलाई-कढ़ाई के माहिर फनकार थे। वे हाथ से सिलाई कर मंदिर में प्रयोग होने वाले वस्त्रों का निर्माण करते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो तीतन बाबू जमींदार के साथ सबसे बड़े शिल्पानुरागी,सामाजिक सद्भाव एवं कला-साहित्य के संरक्षक थे।
मंदिर की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। अमावां राज के राय बहादुर हरिहर बाबू रानी संग सदैव विशिष्ट अतिथि के रूप में पधार कर इसकी ख्याति में चार चाँद लगाते थे। कहा जाता है कि काशी, मथुरा, अयोध्या आदि स्थान से साधू-सन्यासियों का जत्था यहाँ अक्सर आया करता था। मंदिर के सामने बने अतिथिशाला में इनके रहने और खाने की व्यवस्था थी । मंदिर प्रांगण के बगल वाले हिस्से में पुजारी के रहने की व्यवस्था थी। पास ही प्रसाद निर्माण के लिए पाकशाला की व्यवस्था थी। राग-भोग और प्रसाद पुजारी स्वयं अपने हाथों से बनाते थे। कहा जाता है कि बाबू साहब हवेली के पाकशाला में बने भोजन को ग्रहण नही करते थे। बाबू साहब शुद्ध शाकाहारी थे और भोजन के रूप में वे मात्र ठाकुर बांकेबिहारी लाल का प्रसाद ही ग्रहण करते थे। बाबू साहब वैष्णव थे और राधारानी के उपासक थे। बातचीत के क्रम में बाबू पशुपति नाथ ने बताया कि आज के दिनों तक उनका परिवार पूर्ण शाकाहारी ही है। कृष्ण जन्माष्टमी, राधाष्टमी एवं अन्नकूट के अवसरों पर मंदिर प्रांगण में पूजन एवं समारोह का आयोजन किया जाता था। इन अवसरों पर कई-कई दिनों तक भंडारे का आयोजन होता था। समाज के प्रत्येक वर्ग के लोगो को बाबू साहब अपने हाथ से प्रसाद देते एवं भोजन कराते। मंदिर में बहुमूल्य धातुओं से निर्मित झूला और अन्य साजो-सामान की व्यवस्था थी जो अब भी कायम है। मंदिर का मुख्य द्वार चांदी की परतों से निर्मित था। मंदिर के गर्भ गृह में मथुरा शैली में निर्मित राधा-कृष्ण की मनमोहक प्रतिमा विराजमान है। दूसरे गुम्बद के नीचे काले पत्थर का विशाल शिवलिंग है। मंदिर को सुचारू रूप से चलाने के लिए बाबू तीतन सिंह ने मंदिर के नाम सैकड़ों एकड़ जमीन लिखा था। मंदिर के राजस्व के लिए अपने प्रत्येक मौजा में एक निश्चित हिस्सेदारी मंदिर के नाम की गई। सामान्यतः यह भाग दो से चार आना था। पर कुछ मौजों में यह आठ आना तक था। इसका उल्लेख सन 1864 में लिखे गए विलेख (डीड) में किया गया है। इसके अतिरिक्त मंदिर के सामने ही एक खूबसूरत फुलवारी लगाई गई थी। अपने वचन के अनुसार बाबू तीतन सिंह का पूरा जीवन धर्मार्थ एवं समाज उत्थान में ही बीता।
बताया जाता है कि पटना से शिक्षा प्राप्ति के उपरांत दोनों मित्र बाबू तीतन सिंह एवं बाबू ऐदल सिंह ने अमावां ईस्टेट में राज-प्रबंधन का भी कार्य किया था। अमावां राज में कार्य के दौरान इन्होंने ब्रिटिश राजस्व प्रबंधन को बारीकी से समझा। अपनी योग्यता एवं कार्यकुशलता के कारण ये जल्द ही अमावां ईस्टेट के प्रिय हो गए। अमावां में कार्य करने के दौरान ही दोनों मित्रों ने जमींदारी हासिल करने का निश्चय किया। एक-एक कर कई स्थानों में ये जमींदारी स्थापित करते चले गए। बाबू ऐदल सिंह जब जमींदारी हासिल करते तब बाबू तीतन सिंह उन्हें आर्थिक मदद करते एवं बाबू ऐदल सिंह ने भी उसी प्रकार बाबू तीतन सिंह को जमींदारी हासिल करने में सहायता प्रदान की। जल्द ही दोनों ने अपने-अपने क्षेत्र में जमींदारी हासिल कर अमामा राज-प्रबंधन के कार्य से अपने को मुक्त किया। बाबू तीतन सिंह का मौजा मुरौरा, पुन्हा, सोन्सा, इंदवास, मनियामा, तुंगी, वाजिदपुर, घोसरामा, देवीसराय, नानंद, रहुई, कुलभदारी आदि स्थानों तक विस्तृत था।
बातचीत के क्रम में बाबू तीतन सिंह के परिवार के वरिष्ट वंशज पशुपति नाथ सिंहा ने बताया कि मंदिर के समीप ही बाबू तीतन सिंह ने अपनी दो मंजिला हवेली का निर्माण कराया था। हवेली निर्माण में लखौरी ईंटों एवं मिर्जापुर के पत्थरों का प्रयोग किया गया था। हवेली को मजबूती प्रदान करने के लिए इसके नींव में भारी चट्टानों का प्रयोग किया गया । हवेली के ऊपरी बुर्ज पर कास्ट आयरन की वेदिका एक निश्चित क्रम में लगी हुई थी। हवेली की दीवारों एवम छतों के निर्माण के लिए चुना पत्थर, सुर्खी, खांड,मेथी एवं रेत आदि के मिश्रण का प्रयोग किया गया था। हवेली की दीवारें लगभग 36 से 40 इंच मोटी थी। हवेली की मोटी दीवारे एवं छत वातानुकूलन का कार्य करते थे। हवेली के मध्य एक विशाल प्रांगण था। हवेली की सुरक्षा के लिए तीन विशाल फाटक थे। हवेली के बाहरी हिस्से में एक विशाल हॉल निर्मित था जो बैठक-ए-खास था। बैठक-ए-खास, कीमती कालीनों, फर्नीचरों और झाड़फानूस से सुसज्जित था। हवेली का निर्माण इस प्रकार से किया गया था कि प्रातः काल मंदिर के गुम्बदों की पहली परछाई हवेली पर ही पड़े। बातचीत के क्रम में पशुपति नाथ बाबू ने बताया कि हवेली के बगल भाग में ही विशाल पाकशाला था। बाबू साहब शाकाहारी थे पर उन्हें मिष्ठान से अति लगाव था। मिष्ठान बनाने के लिए विशेष रसोइयों को रखा गया था। बातचीत के क्रम में बाबू पशुपति नाथ ने बताया कि इनकी माँ अलोधन देवी के अनुसार सन 1934 में उनके बड़े भाई बाबू नन्द कुमार सिंह का जन्म हुआ था। इसी वर्ष बिहार में आये भीषण भूकंप ने कोहराम मचा दिया। चौतरफा तबाही का मंजर था। भूकम्प से हवेली का दक्षिणी-पश्चिमी भाग प्रभावित हुआ। इस भाग की ऊपरी मंजिल टूट कर गिर गयी। लेकिन किसी के जान का नुकसान नही हुआ। बाद में इसी टूटे भाग से दाखिल होकर (पानीपत, पंजाब के) डकैतों ने डकैती का प्रयास किया जो असफल रहा। सभी डकैत पहलवानों द्वारा पकड़ लिए गए। शीघ्र ही हवेली के इस टूटे भाग की मरम्मत की गई एवम हवेली की सुरक्षा बढ़ा दी गयी।

 राधाकृष्ण के अनुनय उपासक बाबू तीतन सिंह की 102 वीं पूण्यतिथि पर विशेष

बाबू साहब निर्धनों और जरुरतमंदों को खाली हाथ नहीं लौटने देते थे। बाबू साहब कन्यादान को अति धार्मिक एवं पुण्य का कार्य मानते थे। प्रत्येक वर्ष आर्थिक रूप से कमजोर कन्याओं के विवाह का आयोजन कर यथासंभव सहयोग करते थे। इन कार्यो ने बाबू साहब को अति लोकप्रिय बना दिया था। प्रत्येक शाम हवेली के सामने बैठकी लगती और जरूरतमंद आकर अपनी समस्या बताते और बाबू साहब उनको समाधान देते। किसी को झोपड़ी बनाने के लिए ताड़ का पेड़ चाहिए था तो किसी को छप्पर के लिए बाँस। बाबू साहब इनकी इन जरूरतों को कभी अनदेखा नहीं करते। वे तुरंत आदेश पत्र (रूक्का) लिखकर दे देते और उनकी समस्या का समाधान करते। बाबू पशुपति नाथ के अनुसार अकाल पड़ने पर हवेली जरुरतमंदों से भरी रहती। बाबू साहब अपने हाथों से अनाज का वितरण करते।
पारिवारिक वंशावली को दर्शाते हुए बाबू पशुपति नाथ ने बताया कि बाबू प्रयाग नारायण सिंह के संतानों द्वारा ही वंश आगे बढ़ा। बाबू प्रयाग नारायण के तीन पुत्र बाबू महेंद्र नारायण सिंह, बाबू महिपत नारायण सिंह एवं बाबू यदुनंदन नारायण सिंह हुए। बाबू यदुनंदन नारायण सिंह का वंश वारिस के बिना आगे बढ़ नही सका। बाबू महिपत नारायण के दो पुत्रों बाबू चंदेश्वर प्रसाद सिंह एवं बाबू हरेकृष्ण प्रसाद सिंह में से केवल बाबू चंदेश्वर प्रसाद सिंह का ही वंश आगे चला। बाबू चंदेश्वर प्रसाद सिंह के चार पुत्र हुए। बाबू सूरजदेव नारायण सिंह, बाबू शिवदेव नारायण सिंह, बाबू नन्द कुमार प्रसाद सिंह एवं बाबू पशुपति नाथ सिंह (स्वयं) इनके पुत्र थे। बाबू महेंद्र नारायण सिंह के एक पुत्र बाबू बलदेव नारायण सिंह के द्वारा ही इनका वंश आगे बढ़ा। बाबू बलदेव नारायण सिंह के पुत्र बाबू दिग्विजय नारायण सिंह हुए। कहा जाता है कि बाबू साहब को पशु-पक्षियों से भी बहुत प्रेम था। इसके लिए हवेली के समीप ही हाथीखाना, अस्तबल, गौशाला आदि का निर्माण भी कराया गया था। गौशाला में सैकड़ों की संख्या में दुधारू पशु रहा करते थे। इन पशुओं के देखरेख के लिए कई लोगों को लगाया गया था। बाबू साहब को काले इटालियन घोड़ों से विशेष लगाव था। इनके अस्तबल में कई काले इटालियन घोड़े भी थे। बाबू साहब हरिहर क्षेत्र के मेले से अश्वों का चयन करते थे। इसके अतिरिक्त हवेली के शीर्ष बुर्ज पर पक्षियों के रहने की भी व्यवस्था थी। फल एवं फूल के शौकीन बाबू तीतन सिंह ने कई बीघे में फुलवारी और बगीचे का भी निर्माण कराया था। नारंगी, आम, लीची, जामुन आदि विविध फल बगीचे की शोभा बढ़ाते थे। बाबू साहब बच्चों को बुला-बुला कर अपने हाथों से फल बाँटते। शाम में उनका कुछ समय बच्चों के साथ बगीचे में ही बीतता। गुलाब के फूलों से उन्हें बहुत लगाव था। गुलाब के अलावा चंपा, चमेली के फूल भी बगीचे में लगे थे। फूलों का ज्यादातर उपयोग राधारानी के श्रृंगार में एवं मंदिर में आराधना के लिए किया जाता था। बाबू साहब को पहलवानी का भी शौक था। रामा पहलवान, भीखू पहलवान सहित उस वक़्त के कई नामी गिरामी पहलवानों को उन्होंने प्रश्रय दे रखा था। वैशाख शुक्ल पक्ष चतुर्थी तिथि तदनुसार 22 अप्रैल सन 1920 को 100 वर्ष की आयु पूर्ण कर बाबू तीतन सिंह ब्रह्मलीन हो अपने साध्य बाकेबिहारी के संग एकाकार हो गए।

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